विस्तार एवं संगठन — अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब

विस्तार एवं संगठन — अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब

विस्तार एवं संगठन — अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब

> बैरमखाँ के पतन के कारण
बैरमखाँ के पतन के निम्नलिखित कारण थे - 
1. बैरमखाँ स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी, दम्भी, ईर्ष्यालु एवं क्रूर था. असीम सत्ता का मालिंक होने के कारण वह किसी की परवाह नहीं करता था. हालांकि उसमें अनेक चरित्रिक गुण भी थे, परन्तु धीरे-धीरे उसके कार्यों से मुगल अमीर वर्ग नाराज हो गया.
2. मुगल दरबारियों ने अकबर बैरमखाँ के सम्बन्ध में कड़वाहट घोलं दी. इससे अकबर स्वयं बैरमखाँ से मुक्त होने के लिए उतारू हो गया. इससे षड्यन्त्र -कारियों में अतका खेल के सदस्यों; जैसे—माहम अनगा, जीजी अनगा, हमीदाबानू बेगम आदि का प्रमुख हाथ था.
3. बैरमखाँ शिया-सम्प्रदाय से सम्बन्धित था, जबकि मुगल कट्टर सुन्नी थे. अतः दोनों में मतभेद होना स्वाभाविक था. सुन्नी मुगल जिनकी संख्या अधिक थी, बैरमखाँ द्वारा शिया मत के लोगों को ऊँचे-ऊँचे पदों पर बैठातें देख नहीं सकते थे.
4. मुगल दरबार में ईरानी और तुर्रानी वैमनस्य काफी अधिक था, बैरमखाँ स्वयं ईरानी था. अतः उसने महत्वपूर्ण पदों पर ईरानी लोगों को नियुक्त किया था, इससे मुगलों का तुर्रानी वर्ग बैरम खाँ से नाराज हो गया.
5. अपने जीवन के प्रारम्भ में बैरमखाँ ने असाधारण सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया था. पानीपत के युद्ध में मुगलों को विजय प्रत्यक्षतः बैरमखाँ के कारण ही मिली, परन्तु उसके चुनार और रणथम्भौर अभियान पूर्ण रूप से असफल रहे. इससे मुगलों की प्रतिष्ठा को आधात लगा अतः अकबर ने बैरम खाँ को हटाना ही उचित समझा.
6. धीरे-धीरे अकबर बड़ा होता जा रहा था और उसे अब किसी संरक्षक के अधीन कार्य करना पसन्द नहीं था. अब वह समस्त कार्यों को अपने हाथ में लेना चाहता था. अकबर को अपने खर्च के लिए बैरमखाँ से पर्याप्त धन नहीं मिल पाता था. बैरमखाँ ने अकबर के महावत की हत्या कर दी थी, कभी- कभी बैरमखाँ अत्यन्त ही महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं अकेले ही ले लेता था तथा केवल मात्र स्वीकृति के लिए उसे अकबर के पास भेज देता था. सदर के पद पर शेख गदाई की नियुक्ति को भी अकबर पसन्द नहीं करता था.
इसी के मध्य अकबर को यह आशंका उत्पन्न हो गई कि बैरम खाँ कामरान के पुत्र मिर्जा अबुल कासिम जोकि शया मतावलम्बी था, को बैरम खाँ गद्दी पर बिठाकर अकबर को गिरफ्तार करना चाहता है. इन सब कारणों से प्रेरित होकर अकबर ने बैरम खाँ को हटाकर सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथ में लेने का निर्णय किया.
> पेटीकोट सरकार : टिप्पणी
1560 ई. से लेकर 1564 ई. तक अकबर जिन लोगों के संरक्षण में था उसमें हरम की स्त्रियों का प्रमुख स्थान था. अतः इतिहासकार उसके शासन के इस काल को पेटीकोट सरकार या पर्दा शासन की संज्ञा देते हैं. पेटीकोट सरकार के सदस्यों में माहम अनगा जो अकबर की धाय माँ थी, का प्रमुख स्थान था.
उसने महत्वपूर्ण पदों पर अपने समर्थकों की नियुक्तियाँ कीं तथा नागरिक एवं सैनिक प्रशासन में अनेक परिवर्तन किये. वह सदैव अपने स्वार्थों की पूर्ति में ही लगी रही तथा उसने राज्य के हितों को कभी ध्यान नहीं दिया.
इस सरकार के अन्य सदस्यों में माहम अनगा का पुत्र आधम खाँ, जीजी अनगा एवं उसका पति शमसुद्दीन प्रमुख थे. इन लोगों को हमीदाबानू बेगम, दिल्ली के गवर्नर शिहाबुद्दीन तथा मुल्ला पीर मोहम्मद का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त था. आधम खाँ ने शमसुद्दीन अनगा की हत्या करवा दी.
इस घटना से अकबर अत्यन्त दुःखी एवं क्रोधित हो गया तथा उसने आधम खाँ की हत्या करवा दी तथा उसके कुछ दिनों बाद ही माहम अनगा की मृत्यु हो गई. माहम अनगा की मृत्यु के साथ ही अतका खैल या पर्दा शासन का प्रभाव अकबर के ऊपर से समाप्त हो गया और अब वह सही अर्थों में शासक बन गया.
> अकबर के शासनकाल के प्रारम्भिक विद्रोह :  टिप्पणी
अकबर को अपने शासनकाल में तीन प्रमुख विद्रोहों का सामना करना पड़ा –
(1) अब्दुल्ला खाँ उज्बेग का विद्रोह – अब्दुल्ला खाँ को 1562 ई. में पीर मुहम्मद के स्थान पर अकबर ने मालवा का सूबेदार नियुक्त किया था, परन्तु उसने यहाँ आकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने का प्रयास किया. अतः 1564 ई. में अकबर ने स्वयं मालवा पर आक्रमण किया. अतः अब्दुल्ला खाँ भागकर पहले गुजरात और उसके बाद जौनपुर चला गया. जौनपुर में ही अब्दुल्ला खाँ की 1565 ई. में मृत्यु हो गई. अब मालवा में बहादुर खाँ को सूबेदार बनाया गया.
(2) खानज़माँ का विद्रोह-जौनपुर में 1565 ई. में खान जमाँ जोकि उज्वेगों का नेता था ने विद्रोह कर दिया. उसके बंगाल के शासक सुलेमान कर्रानी से भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे. अतः अकबर ने जौनपुर पर आक्रमण कर दिया और उसका उस पर अधिकार हो गया तथा खान जमाँ पटना की तरफ भागने को विवश हो गया, लेकिन मुनीम खाँ के प्रयासों से अक़बर ने खान जमाँ और उसके साथियों को क्षमा कर दिया.
(3) मिर्जा हकीम का विद्रोह–मिर्जा हकीम अकबर का भाई एवं काबुल का स्वतन्त्र शासक था. जब उस पर बदख्सां के शासक सुलेमान मिर्जा ने आक्रमण किया. तब उसने अकबर से सहायता माँगी और अकबर ने उसे सहायता देने का आश्वासन भी दिया, लेकिन इसी बीच उज्बेगों ( खान जमाँ ) के विद्रोह का लाभ उठाकर उसने पंजाब पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधिकार में कर स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया तथा खुतबा पढ़वाया. उसे विद्रोही खान जमाँ ने भी अपना समर्थन प्रदान किया.
अतः अकबर 1566 ई. को विद्रोह का दमन करने के उद्देश्य से लाहौर जाना पड़ा मिर्जा हकीम काबुल भाग गया इसी के बीच सम्भल के उज्बेगों ने भी विद्रोह कर दिया. अकबर के लिए यह कठिन समय था, परन्तु उसने परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक मुकाबला किया और 1567 ई. में उसने फतेहपुर परसोकी नामक स्थान पर विद्रोहियों को बुरी तरह पराजित कर दिया खान जमाँ मारा गया. खान बहादुर की हत्या कर दी गई. इस प्रकार स्पष्ट है कि अकबर ने अपने आन्तरिक विद्रोहियों का दमन कर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली.
> अकबर के सैनिक अभियानों का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए. : टिप्पणी
अकबर के सैनिक उद्देश्य निम्नलिखित थे –
अकबर के समकालीन इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार, “अकबर की विजय-नीति का मुख्य उद्देश्य स्थानीय भारतीय राजाओं और शासकों के अत्याचारों से उत्पीड़ित जनता को अपने संरक्षण में लेकर उन्हें अत्याचारों और उत्पीड़नों से सुरक्षा प्रदान कर सुख एवं शान्ति का जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करना था." आधुनिक इतिहासकार अबुल फजल के इस विचार को सत्यता से परे मानते हैं.
जबकि कुछ इतिहासकारों ने अकबर के साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को धार्मिक नजरिये से देखा है, जो वस्तुतः असंगत प्रतीत होता है. उसके साम्राज्यवाद का दृष्टिकोण पूरे भारत को अपने अधीन करना था.
जिस समय अकबर ने सत्ता सँभाली उस समय मुगलों के भारत में अनेक प्रतिद्वन्द्वी थे. यदि उस समय सभी प्रभावशाली राज्यों पर अपना नियन्त्रण यदि नहीं रखता, तो उसे अपने राज्य से हाथ धोना पड़ सकता था. अतः अकबर को अपने राज्य की रक्षा एवं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों से भारत की सत्ता को बचाये रखने के लिए उसे साम्राज्यवादी नीति का सहारा लेना पड़ा.
हुमायूँ की मृत्यु के बाद से राजकोष रिक्त पड़ा था, प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और सैनिक संगठन भी अत्यन्त दुर्बल हो गया था. अतः अकबर को इन सबके लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता थी. अपने इस उद्देश्य की पूर्ति वह बड़ी आसानी से राज्य विस्तार नीति का अनुसरण करके कर सकता था. फलतः अकबर ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया.
> अकबर की विजयों और उसके सैनिक अभियानों का विस्तार से विवेचन 
अकबर के साम्राज्य विस्तार को हम तीन भागों में बाँटकर अध्ययन कर सकते हैं।
> प्रथम चरण (1556 ई. से 1560 ई. तक 56 ई. से 1560 ई. तक) 
पानीपत के द्वितीय युद्ध (1556 ई.) में विजय प्राप्त करने के बाद अकबर का दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार हो गया, परन्तु इस समय मुगलों को सर्वाधिक खतरा अफगानों से था. अतः बैरम खाँ, जोकि इस काल में अकबर का संरक्षक था, ने अफगानों के विरुद्ध अभियान प्रारम्भ किये. उसने सिकन्दर सूर को पराजित कर मानकोट का किला एवं इब्राहीम सूर से जौनपुर छीन लिया. इसी तरह बैरम खाँ ने अभियान कर सम्भल, लखनऊ और बनारस पर अधिकार कर वहाँ अकबर का शासन स्थापित किया. मेवात, ग्वालियर, अजमेर भी बैरम खाँ ने जीत लिए. इस प्रकार कहा जा सकता है कि अकबर ने अपने शासन के प्रारम्भ में जो विजयें प्राप्त कीं वास्तव में वे समस्त विजयें उसके संरक्षक बैरम खाँ ने उसके लिए जीतीं थीं. इन विजयों के फलस्वरूप अकबर का राज्य पूर्व में बिहार तथा पश्चिम में मालवा तक विस्तृत ही गया.
> द्वितीय चरण (1560 ई. से 1579 ई. तक)
अकबर ने बैरम खाँ से मुक्ति पाकर इस काल में उसने मालवा, जौनपुर, चुनार, जयपुर, मेड़ता, गोंडवाना, मेवाड़, रणथम्भौर, कालिंजर, गुजरात, बंगाल एवं बिहार पर विजय प्राप्त की जिनका विवरण निम्नलिखित है - 
> मालवा
अकबर का समकालीन यहाँ का शासक बाज बहादुर था. यहाँ का शासक अपनी प्रेमिका रूपमती एवं संगीत में निरन्तर खोया रहता था. उसे राज-कार्य की ओर ध्यान देने का कोई लगाव नहीं था. ऐसे में इस पर अकबर ने 1560 में आधम खाँ को मालवा विजित करने का कार्य सौंपा जिसने उसकी राजधानी माण्डु पर अधिकार कर लिया, लेकिन कुछ समय बाद बाज बहादुर ने पुनः इस पर कब्जा जमा लिया. इस पर 1562 ई. में अकबर ने अब्दुल्ला खाँ उज्बेग को को पूर्ण रूप से अब्दुल्ला द्वारा पराजित कर दिया गया. कुछ मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा, अब बाज बहादुर समय तक बाज बहादुर इधर-उधर शरण लेता रहा और अन्त में 1570 ई. में उसने नागौर में अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तथा अकबर ने बाज बहादुर को अपना मनसबदार नियुक्त कर दिया.
> जौनपुर
तब अकबर जब अपने मालवा अभियान में व्यस्त था, मुहम्मद आदिलशाह सूर के पुत्र शेर खाँ ने जौनपुर पर चढ़ाई कर दी. इसलिए, अकबर ने जौनपुर के सूबेदार खान जमाँ को तुरन्त सैनिक सहायता भेजी और खान जमाँ ने अफगानों को भगा दिया, लेकिन इससे खान जमाँ का साहस बढ़ गया और वह स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करने लगा. अतः 1562 ई. में अकबर ने स्वयं जौनपुर पर अधिकार कर लिया.
> चुनार
बिहार और उत्तर प्रदेश की बीच सीमा पर स्थित सामरिक महत्व के इस दुर्ग पर अकबर के सेनानायक आसफ खाँ ने 1561 ई. में अधिकार कर लिया.
> जयपुर
1563 ई. में जब अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन के लिए अजमेर जा रहा था, तब आमेर के राजा भारमल ने स्वेच्छा से उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी पुत्री का विवाह अकबर से कर दिया. बदले में अकबर ने उसे अपना मनसबदार नियुक्त कर दिया. उसके पुत्र भगवानदास एवं पौत्र मानसिंह को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किये, इससे अकबर को आगे चलकर अनेक लाभ प्राप्त हुए.
> मेड़ता
उदयपुर राज्य के अन्तर्गत मेड़ता का राज्य था. अतः 1562 ई. में अकबर ने इसे अपने राज्य में मिला लिया. 
> गोंडवाना
गोंडवाना मध्य प्रदेश का एक शक्तिशाली राज्य था तथा यहाँ की शांसिका रानी दुर्गावती थी, जो अपने अल्पवयस्क पुत्र वीर नारायण की संरक्षिका थी. 1564 ई. में धन प्राप्ति की आशा में मुगल सेना ने आसफ खाँ के नेतृत्व में आक्रमण किया. रानी दुर्गावती ने मुगलों का कड़ा प्रतिरोध किया, लेकिन घायल हो गईं और उसने आत्महत्या कर ली. उसका पुत्र वीर नारायण युद्ध में ही मारा गया और गोंडवाना पर मुगलों का अधिकार हो गया.
> रणथम्भौर
इस समय यहाँ का शासक सुर्जन राय था. पहले इसने मुगल सेना का कड़ा प्रतिरोध किया, लेकिन आमेर के राज्य भगवानदास एवं मानसिंह के कहने पर उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली. 
> चित्तौड़
अकबर के समकालीन चित्तौड़ का शासक सिसोदिया वंशी राणा उदयसिंह था, जो राजपूतों का सबसे शक्तिशाली राज्य था. इसने जब अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की तब 1567 ई. में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया. उदयसिंह मुगलों से वीरतापूर्वक लड़ा और अन्त में वह जंगलों में जाकर छिप गया. उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र महाराणा प्रताप ने भी मुगलों से लोहा लिया और 1576 ई. में हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध लड़ा जिसमें राणा ने पराजित होने के बाद भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और अपने पूरे जीवन तक मुगलों से संघर्ष करता रहा.  
> कालिंजर
1569 ई. में ही अकबर ने रामचन्द्र को पराजित कर इसके अभेध दुर्ग पर अधिकार कर लिया.
> मारवाड़
1570 ई. में जब अकबर अपनी अजमेर यात्रा के दौरान नागौर रुका, तो वहाँ जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर के शासकों ने उपस्थित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा बीकानेर और जैसलमेर के राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये. इस प्रकार मारवाड़ अकबर के अधीन हो गया.
> गुजरात
अकबर ने गुजरात पर आक्रमण वहाँ के बजीर एतमाद खाँ के निमन्त्रण पर नवम्बर 1571 ई. में किया और उसने अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया और मिर्जा अजीज कोका को उत्तरी गुजरात का एवं एतमाद खाँ को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक नियुक्त कर दिया. इसके बाद अकबर खम्भात की ओर बढ़ा जहाँ पुर्तगाली एवं अन्य व्यापारियों ने अकबर के सुमक्ष उपस्थित होकर अकबर की अधीनता को स्वीकार कर लिया.
लेकिन इसी समय मिर्जा इब्राहीम हुसैन ने विद्रोह कर दिया और भड़ौंच पर अधिकार कर लिया, लेकिन अकबर ने बड़ी ही वीरता से उनको 1572 ई. में करनाल के युद्ध में पराजित कर दिया और भड़ौंच एवं सूरत पर अधिकार कर लिया तथा गुजरात की व्यवस्था कर वह राजधानी लौट गया. 
अकबर के राजधानी लौटते ही अबीसीनियों, अफगानों और मिर्जाओं ने विद्रोह कर दिया. मुहम्मद मिर्जा ने खम्भात और भड़ौंच पर अधिकार कर लिया तथा अहमदाबाद को घेर लिया. इस समय अकबर सीकरी में था तथा विद्रोह की सूचना पाते ही वह तुरन्त अहमदाबाद तेजी से रवाना हुआ और ग्यारह दिनों में साबरमती नदी पार कर उन पर आक्रमण कर दिया. विद्रोही संगठित नहीं हो पाये तथा पराजित हो गये तथा हुसैन मिर्जा और इख्तियार उल-मुल्क युद्ध-क्षेत्र में ही मारे गये. अहमदाबाद पर पुनः अकबर का अधिकार हो गया.
> बंगाल तथा बिहार
अकबर का समकालीन बंगाल एवं बिहार का अफगान शासक सुलेमान करमानी था, लेकिन 1572 ई. में उसकी मृत्यु के बाद नये शासक दाऊद ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और शाह की उपाधि धारण की तथा खुतबा पढ़वाया. अतः अकबर ने मुनीम खाँ को दाऊद पर आक्रमण करने का आदेश दिया.
मुनीम खाँ ने पटना एवं हाजीपुर पर अधिकार कर लिया तथा मुजफ्फर खाँ तुरबाती को इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया. अब मुनीम खाँ अपनी राजधानी ताण्डा की तरफ भाग गया. मुनीम खाँ ने उसका पीछा जारी रखा तथा उसके समस्त क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया. अतः अब दाऊद ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा उसे उड़ीसा का गवर्नर नियुक्त कर दिया.
इसी बीच मुनीम खाँ की मृत्यु गई. अतः दाऊद ने इसका लाभ उठाकर विद्रोह कर दिया और टाँडा पर पुनः अधिकार कर लिया.
अतः बंगाल के नये गवर्नर हुसैन कुली खान-ए-जहाँ ने दाऊद खाँ को 1576 ई. में राजमहल के युद्ध में दाऊद को पराजित कर उसकी हत्या कर दी गई. इसके साथ ही अफगानों के स्वतन्त्र राज्य का अन्त हो गया.
> तृतीय चरण (1579 ई. से 1605 ई. तक)
> उड़ीसा के अफगानों का दमन
उड़ीसा पर मानसिंह के नेतृत्व में अनेक आक्रमण किये गये, लेकिन 1592 ई. में मानसिंह ने अफगान नेता निसार खाँ को पराजित कर उसे उड़ीसा से बाहर खदेड़ दिया तथा खुर्दा के शासक राजा रामचन्द्र देव को 'गजपति’ एवं ‘उड़ीसा के राजा' ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली.
> काबुल
अकबर का भाई हकीम मिर्जा उसके विरुद्ध काबुल में निरन्तर षड्यन्त्र कर रहा था तथा अनेक मुगल पदाधिकारी उसे अकबर के स्थान पर भारत का शासक बनाना चाहते थे. 1581 ई. में मिर्जा ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया, लेकिन पराजित होकर वह वापस काबुल भागा. इस पर स्वयं अकबर और मानसिंह ने उसका पीछा किया तथा अनेक विद्रोहियों की हत्या करवा दी गई. 1585 ई. में हकीम मिर्जा की मृत्यु हो गई. अतः काबुल को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया.
> कश्मीर 
कश्मीर में शाह चक की मृत्यु के बाद बने नये शासक युसुफ ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. इस पर अकबर ने भगवानदास को कश्मीर विजय के लिए भेजा. भगवानदास ने युसुफ को पराजित कर बन्दी बना लिया तथा कश्मीर पर इससे मुगलों का अधिकार हो गया. 
> सिन्ध
अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में मुगल सेना ने 1591 ई. में, सिन्ध के शासक मिर्जा जानी को पराजित कर उसे अकबर की अधीनता स्वीकार करने को बाध्य कर दिया. सिन्ध को मुगल राज्य में मिला लिया गया तथा मिर्जा जानी को मुगल मनसबदार बना दिया गया.
> खानदेश
खानदेश को उस समय दक्षिण का प्रवेश द्वार कहा जाता था. इस राज्य पर 1577 ई. में अकबर ने अपना प्रभाव बढ़ाना प्रारम्भ किया और एक बड़ी फौज भेजी. इस पर यहाँ के शासक अली खाँ ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली अकबर ने खानदेश का नाम बदलकर धनदेश कर दिया.
> अहमदनगर
अकबर ने जिस समय अहमदनगर पर आक्रमण किया उस समय यहाँ उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हो रहा था तथा चाँदबीबी यहाँ की वास्तविक शासिका थी. 1593 ई. में शाहजादा मुराद ने अहमदनगर पर 1593 ई. में आक्रमण किया, किन्तु विफल रहा. अतः दोनों पक्षों में सन्धि हो गई ओर बुरहान-उल-मुल्क को सुल्तान स्वीकार कर लिया गया तथा बुरहान ने मुगलों को धन एवं बरार का क्षेत्र सौंप दिया.
अहमदनगर के सरदारों ने इस सन्धि को जब मानने से इन्कार कर दिया तब मुराद की मृत्यु के बाद शाहजादे दानियाल ने आक्रमण जारी रखा तथा 1600 ई. में उसने अहमदनगर पर अधिकार कर लिया तथा चाँदबीबी की हत्या उसी के आदमियों ने कर दी व अहमदनगर के अल्पवयस्क सुल्तान को ग्वालियर दुर्ग में कैद कर लिया गया.
> असीरगढ़ विजय
अकबर ने खानदेश के नये शासक अली खाँ के पुत्र मीरनशाह के अधीनता स्वीकार न करने पर, खानदेश पर आक्रमण कर दिया तथा उसके शक्तिशाली दुर्ग असीरगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया मीरन को गिरफ्तार कर, उसे पेंशन देकर ग्वालियर भेज दिया गया. यह अकबर की अन्तिम विजय थी.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अकबर ने अपने जीवनकाल में एक विशाल साम्राज्य का अपनी विजयों द्वारा निर्माण किया. उसके साम्राज्य की सीमा उत्तर-पश्चिम में काबुल से लेकर पूर्व में बंगाल तक एवं उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत हो गयी और इस निर्माण कार्य में अकबर ने दृढ़ इच्छा शक्ति, धैर्य तथा सैनिक प्रतिभा और कूटनीतिज्ञता का अद्भुत परिचय अकबर ने दिया और इन्हीं कारणों से वह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर सका.
> राजपूत नीति को प्रभावित करने वाले 
अकबर की राजपूत नीति को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित तत्व थेअकबर की कारक
अकबर के स्वयं का राजपूतों के प्रति दृष्टिकोण — अकबर स्वयं राजपूतों की वीरता और स्वामिभक्ति से अत्यन्त प्रभावित था. उसका जन्म विषम परिस्थितियों में हुआ था तथा राजपूत शासक राणा वीरशाल ने अकबर और हुमायूँ की, जो सहायता की थी उसे अकबर भूल नहीं सकता था. उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार वह करना चाहता था इसके साथ ही अकबर में धार्मिक उदारता की भावना भी थी. अकबर यह भी जानता था कि लालची व स्वार्थी मुगल अमीरों की तुलना में वीर, साहसी, स्वामिभक्त और वचन के पक्के राजपूतों से मैत्री करना अधिक अच्छा है.
राजपूताना की भौगोलिक स्थिति - राजपूताना की सीमाएँ दिल्ली और आगरा से सटी हुई थीं तथा यहाँ के शासकों द्वारा राजधानी पर आक्रमण की सम्भावनाएँ सदैव बनी रहती थीं. अतः अपनी राजधानी और पूरे साम्राज्य की सुरक्षा के लिए राजपूतों से मित्रता करनी आवश्यक थी.
सैनिकों की प्राप्ति का स्थल राजपूताना-अकबर की सेना में मुख्य रूप से मध्य एशियाई क्षेत्रों के सैनिकों की संख्या अधिक थी. ये लोग विदेशी होने के कारण यहाँ के निवासियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखते थे तथा अक्सर क्रूरता का व्यवहार किया करते थे. विदेशी सैनिकों का यह भी दम्भ रहता था कि शासन उन्हीं के दम पर टिका हुआ है. अतः अकबर से भी उनका व्यवहार मर्यादोचित नहीं रहता था ऐसी स्थिति में अकबर अपनी सेना में राजपूतों को लेकर उन पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित कर सकता था. 
अकबर के साम्राज्य विस्तार में सहायक – अकबर यह जानता था कि राजपूत हिन्दू जाति के स्वाभाविक नेता थे तथा यदि अपने राज्य को इस देश में बचाये रखना है, तो राज्य विस्तार में उनका सहयोग आवश्यक था, क्योंकि वह राजपूतों को राजपूतों की सहायता से ही अधिकार में लेना चाहता था.
मुगल अमीरों की शक्ति पर अंकुश रखने में सहायकमुगल अमीर स्वभाव से ही स्वार्थी प्रकृति के थे उन्होंने अकबर के विरुद्ध कई बार षड्यन्त्र किया और यहाँ तक कि उसे गद्दी से हटाने का भी प्रयास किया. अतः अकबर उनका एक प्रतिद्वन्द्वी गुट तैयार करना चाहता था, जो राजपूतों के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता था.
भारतीयों का विश्वास प्राप्त करना – भारतीय अभी भी मुगलों को विदेशी एवं लुटेरा समझते थे अर्थात् भारतीय जनता की सहानुभूति मुगलों के साथ नहीं थी. अतः अकबर राजपूतों का सहयोग प्राप्त कर अधिकांश हिन्दुओं का समर्थन प्राप्त करना चाहता था.
इस प्रकार स्पष्ट है कि अकबर राजपूतों के प्रति उदार नीति अपनाने को विवश था तथा उसने सभी सम्भव उपायों द्वारा राजपूतों से मित्रता करने का प्रयास किया.
> अकबर की राजपूत-नीति का स्वरूप निर्धारित कीजिए
अकबर की राजपूत नीति के स्वरूप को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है –
(1) ऐसे राज्य जिन्होंने स्वतः ही अधीनता को स्वीकार कर लिया था.
(2) ऐसे राज्य जिन्होंने आरम्भ में विरोध किया, परन्तु बाद में उसकी शक्ति देखकर अधीनता स्वीकार कर ली.
(3) ऐसे राज्य जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की.
प्रथम श्रेणी के ऐसे राज्यों में जयपुर, जैसलमेर एवं बीकानेर को रखा जा सकता है, इन राज्यों ने अकबर की स्वतः ही अधीनता स्वीकार की तथा अपनी पुत्रियों का विवाह उससे कर दिया. प्रतिकार के बदले अकबर ने इन राज्यों के राजाओं को अपने साम्राज्य में अनेक अच्छे-अच्छे पद उनकी योग्यता के आधार पर दिये. डॉ. वेणीप्रसाद ने इस प्रकार के विवाह के महत्व के विषय में लिखते हैं, "यह भारतीय राजनीति में एक नये उद्घाटन का प्रतीक है. इसने देश को विलक्षण सम्राटों की परम्परा प्रदान की. इसने मुगल सम्राटों की चार पीढ़ियों को कुछ महानतम् सेनापति और राजनीतिज्ञ भी दिये.”
राजपूतों को अपनी ओर मिलाने के लिए उन्हें दरबार मुगल प्रशासन एवं सेना में महत्वपूर्ण पद प्रदान किये तथा सेना में भी बड़ी संख्या में राजपूतों को भर्ती किया गया. भारमल, भगवानदास, मानसिंह, टोडरमल, बीरबल आदि को अकबर ने अपने नवरत्नों में शामिल किया.
अकबर ने राजपूतों के लिए उदार नीति का अनुसरण किया उसने हिन्दुओं पर लगाये जाने वाले जजिया एवं तीर्थ यात्रा कर को हटा दिया तथा जबरदस्ती मुसलमान बनाने पर मनाही कर दी.
इन सब कार्यों के अतिरिक्त अकबर ने अनेक हिन्दू त्यौहारों; जैसे—दशहरा, होली, दीपावली आदि को दरबार में मनाना प्रारम्भ कर दिया तथा स्वयं हिन्दुओं के समान तिलक लगाने लगा.
अकबर ने बाल-विवाह, सती प्रथा आदि पर प्रतिबन्ध लगाने के साथ-साथ पशुबलि रोकने, अन्तरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने तथा छुआछूत को समाप्त करने का भी प्रयास किया. यद्यपि ये अकबर के सुधार कार्य हिन्दू समाज पर स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ सके.
ऐसे राजपूत राज्य जिन्होंने अकबर की अधीनता सीधे स्वीकार नहीं की उनके विरुद्ध अकबर ने सैनिक कार्यवाही की तथा उनके राज्य मुगल साम्राज्य में मिला लिए गए, जैसे 1562 ई. में मेड़ता को ठीक इसी प्रकार रणथम्भौर, कालिंजर एवं गढ़ कटंगा पर भी सैनिक अभियान किये गये.
अकबर का विरोध करने वाले राजपूत राज्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली राज्य चित्तौड़ था. यह राज्य उन सभी राज्यों से घृणा करता था, जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार की थी. अतः अकबर ने चित्तौड़ पर अपना अधिकार करने के लिए 1567 ई. में एक बड़ा अभियान कर उस पर अधिकार कर लिया, लेकिन यहाँ के शासक उदयसिंह को अपने अधीन नहीं कर सका.
उदयसिंह की मृत्यु के बाद राणाप्रताप ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा और 1576 ई. का प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध लड़ा जिसमें राणा के पराजित होने पर भी मृत्यु पर्यन्त मेवाड़-मुगल संघर्ष चलता रहा. राणाप्रताप की मृत्यु के बाद भी उनके पुत्र अमरसिंह ने इस संघर्ष को जारी रखा.
इस प्रकार स्पष्ट है कि अकबर ने अपनी दूरदर्शिता का प्रयोग कर राजपूतों को अपना प्रबल समर्थक एवं मित्र बना लिया तथा जब तक उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी नीतियों रहा. का अनुसरण किया उन्हें राजपूतों का सहयोग बराबर मिलता
> अकबर की राजपूत नीति: महत्व (टिप्पणी)
बनाने की दृष्टि से अकबर की राजपूत नीति महत्वपूर्ण स्थान मुगल राज्य के विस्तार एवं उसको भारत में स्थायी रखती है तथा उसकी इस नीति के परिणाम बड़े ही दूरगामी निकले. भारतीय समाज, राजनीति, धर्म एवं संस्कृति के सभी क्षेत्रों पर इस नीति का प्रभाव पड़ा.
अकबर की इस नीति के कारण ही अफगान जोकि मुगलों के प्रतिद्वन्द्वी थे, को भारत की सत्ता से स्थायी रूप से वंचित हो जाना पड़ा और मुगल भारत में स्थायी रूप से जम गये. उनकी सत्ता को भारत में चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा.
अकबर की राजपूत नीति ने हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य एकता, निकटता तथा सद्भावना का विकास किया और परिणाम यह निकला कि धार्मिक तनाव का वातावरण दूर हो हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर राज्य की सेवा की तथा अकबर को सम्पूर्ण राष्ट्र का सम्राट कहा जाने लगा.
इस नीति के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक समन्वय का युग प्रारम्भ हुआ. मुगलों ने हिन्दुओं के और हिन्दुओं ने मुगलों के तौर-तरीकों, रीति-रिवाजों, वस्त्र-आभूषणों, खान-पान एवं भाषा आदि को स्वेच्छा से अपना लिया. फारसी के साथ-साथ संस्कृत भाषा का का प्रयोग बढ़ने लगा. दरबार में हिन्दू त्यौहार उसी तरह मनाये जाते थे जिस तरह से मुस्लिम पर्व. अकबर ने स्वयं तिलक लगाना प्रारम्भ कर दिया.
अकबर की राजपूत नीति ने शान्ति व्यवस्था, सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था और आर्थिक विकास में मदद की. अकबर ने टोडरमल की मदद से अनेक भूमि सुधार करवाये. कृषि के साथ-साथ व्यापार-वाणिज्य और उद्योग-धन्धों में बहुत अधिक उन्नति हुई. इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी तथा इससे कला-कौशल एवं शिक्षा - साहित्य आदि के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ.
अकबर की राजपूत नीति ने राजपूतों को भी अनेक लाभ प्रदान किये. राजपूत राज्य विनाश एवं बर्बादी से बच गए, परन्तु राजपूतों ने स्वेच्छा से अपने राजनैतिक दावे छोड़ दिये. उन्होंने देश में हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयास कर मुगल राज्य की रक्षा एवं अपने व्यक्तिगत हितों एवं स्वार्थों की पूर्ति की. 
इस नीति का सर्वाधिक बुरा परिणाम यह निकला कि अकबर की सुरक्षा का आश्वासन पाकर राजपूत राजे भोगविलास में पड़ गये जिससे उनकी सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई. मुगल अमीरों के अनेक दुर्गुणों के वे शिकार हो गये और विश्वासघात करने लगे. इन सबके बावजूद भी अकबर की राजपूत नीति के महत्व पर डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है कि, “राजपूतों ने सम्राट के लिए हिन्दुओं का समर्थन प्राप्त किया एवं उनके कारण धर्म एवं संस्कृति का एकीकरण हुआ. वस्तुतः मुगल साम्राज्य मुगल-राजपूत भागीदारी थी, जिसके लिए राजपूतों ने अपना रक्त बहाया और सर्वोच्च का त्याग किया."
> अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले कारक :
> अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं –
सम्राट अकबर की माता एक सुसंस्कृत सूफी परिवार की शिया मतावलम्बी थीं. उसका पिता हुमायूँ शियाओं से प्रभावित था, किन्तु अकबर का व्यक्तिगत धर्म सूफी प्रभावित सुन्नी धर्म था. अंतः वंश के प्रभाव से उसमें कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी.
अकबर की धार्मिक नीति को उदार बनाने में उसके शिक्षकों जो शिया और सुन्नी दोनों वर्गों के थे, की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. वजायद, मुनीम खाँ और अब्दुल लतीफ जैसे उदार गुरुओं के संरक्षण में उसने शिक्षा पाई. उसकी माता हमीदाबानू बेगम, बैरम खाँ, माहम अनगा आदि के विचार भी अकबर को प्रभावित करने वाले सिद्ध हुए.
उसके समय का वातावरण भी अकबर को उदार बनाने में सहायक बना. अकबर को भारत आने से पहले पंजाब में रहना पड़ा, जहाँ गुरु नानक के प्रभाव से हिन्दू और मुस्लिम सद्भाव बढ़ रहा था. उनके शिष्य हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे. इसी वातावरण में अकबर का बचपन बीता. अकबर बहुत ही कुशाग्र बुद्धि का था. उसने बचपन से ही धर्म के क्षेत्र में बहुरूपता का अनुभव किया था. इससे उसकी धर्म के क्षेत्र में अधिक जानकारी प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हो गई और वह विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-सन्तों, सूफियों, मौलवियों आदि से विचार-विमर्श करने लगा.
अकबर पर भक्ति आन्दोलन के सन्तों का भी प्रमुखता से प्रभाव पड़ा. कबीर, नानक, रैदास, चैतन्य आदि ने धार्मिक कट्टरता, अन्धविश्वास एवं रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया तथा सभी धर्मों की एकता पर बल दिया. सूफी सन्तों ने भी प्रेम और भक्ति का सन्देश दिया. अतः इन सभी ने मिलकर अवश्य ही अकबर के विचारों को प्रभावित किया होगा.
भारत में हिन्दुओं की संख्या बहुत अधिक थी. अतः इन लोगों को अकबर के प्रभाव में होना उसके साम्राज्य की रक्षा के लिए आवश्यक था. अतः अकबर के लिए यह आवश्यक हो गया कि सभी धर्मों के प्रति वह एक जैसी नीति का अनुसरण करे, अन्यथा उसका राज्य स्थायी नहीं रह सकता था.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अकबर ने उदार धार्मिक नीति का अनुसरण वंशानुगत प्रभाव, वातावरण, धार्मिक आन्दोलन तथा तत्कालीन परिस्थितियों की आव श्यकतानुसार किया. इससे उसके साम्राज्य को सदियों तक स्थायित्व मिला.
> अकबर की धार्मिक नीति का विकास 
अकबर की धार्मिक नीति का विकास तीन चरणों में हुआ—
(1) प्रथम चरण (1556–75 ई.), (2) द्वितीय चरण (1575–82 ई.), (3) तृतीय चरण (1582-1605 ई.). 
1. प्रथम चरण (1556-75 ई.)
इस काल में अकबर की धार्मिक नीति का विकास अपने शैशवकाल में था. वह एक सुन्नी मुसलमान की तरह रहता था और इस्लाम के नियमों का पालन करता था. इस काल में अकबर ने हिन्दुओं से जजिया कर लिया, लेकिन उनके मन्दिर नहीं तोड़े गये और न ही उन्हें धर्म-परिवर्तन को विवश किया गया. यह उसका धार्मिक उदारता की नीति का प्रथम परिचायक था.
1562 ई. में अकबर ने आमेर की राजकुमारी अपना विवाह कर लिया और अब वह उससे प्रत्यक्ष रूप से हिन्दुओं के सम्पर्क में आ गया, इससे उसके विचारों में बड़ा परिवर्तन हुआ. फलतः हिन्दुओं को अपने पक्ष में मिलाने के लिए 1563 ई. में तीर्थयात्रा की व 1564 ई. में अकबर ने जजिया कर समाप्त कर दिया. अपने इन कार्यों से उसने बहुसंख्यक हिन्दू जनता का समर्थन हासिल कर लिया.
अकबर ने अब हिन्दुओं को मन्दिर बनवाने की अनुमति दे दी तथा उसने स्वयं अमृतसर में मन्दिर बनवाने के लिए सिखों को जमीन दी व ज्वालामुखी मन्दिर में छत्र भेंट किया. 
अकबर ने हिन्दू त्यौहारों जैसे—होली, दीपावली, दशहरा आदि को अपने दरबार में मनाना ठीक उसी तरह प्रारम्भ किया जिस प्रकार मुस्लिम त्यौहार मनाये जाते थे. उसने अपने माथे पर चन्दन का टीका लगाना प्रारम्भ कर दिया. अकबर ने हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक बुराइयों जैसे—सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत आदि को दूर करने का प्रयास भी किया.
2. द्वितीय चरण (1575-82 ई.)
अकबर की धार्मिक विकास की नीति के अन्तर्गत 1575 से 1582 ई. तक के काल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीन प्रमुख घटनाएँ हुईं. जैसे— इबादतखाना की स्थापना, महजर की घोषणा और दीन-ए-इलाही की स्थापना.
(i) इबादतखाना की स्थापना – अकबर धार्मिक मामलों में अत्यन्त जिज्ञासु था. अतः वह सभी धर्मों का सार जानना चाहता था. इस हेतु उसने फतेहपुरसीकरी में 1575 ई. में एक विशाल भवन बनवाया तथा इसे इबादतखाना नाम दिया.
इस भवन के चारों ओर विभिन्न धर्मों के लोग बैठते थे और मध्य में एक ऊँचे सिंहासन पर अकबर बैठकर उनके विचार सुनता था और अन्त में अपना निर्णय देता था. आरम्भ में इसमें केवल सुन्नी मुसलमानों को ही आमन्त्रित किया गया, किन्तु उनमें आपसी मतभेद और बैमनस्य को देखते हुए अकबर ने अन्य धर्मावलम्बियों को भी इसमें आमन्त्रित किया तथा इससे अकबर को ब्राह्मण, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि सभी धर्मों के विचार जानने को मिले तथा वह इतना जान गया कि सभी धर्मों का सार एक ही है और उनमें केवल बाहरी अन्तर है. 
(ii) महजर की घोषणा – यह अकबर को धार्मिक मामलों में सर्वोच्च घोषित करने का एक घोषणा-पत्र था, जिसमें इस्लाम धर्म की व्याख्या का अन्तिम अधिकार अकबर को मिला. इस घोषणा-पत्र को फैजी के पिता शेख मुबारक ने 1579 ई. में तैयार किया तथा यह प्रावधान किया कि धार्मिक मामलों में विवाद होने पर अकबर उन मतों में से एक को चुन सकता था, जो उसकी दृष्टि में श्रेष्ठ था. बिन्सेट स्मिथ इसे अधिकार पत्र की संज्ञा देते हैं, जिसके अनुसार अकबर को धार्मिक मामलों में असीमित अधिकार प्राप्त हो गये. इस घोषणा पत्र से अकबर इमाम-ए-आदिल बन गया. यह अकबर की शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि और उलेमा वर्ग पर कठोर आघात था.
(iii) दीन-ए-इलाही की स्थापना – अकबर ने विभिन्न धर्मों के विषय में, जो जानकारी प्राप्त की थी, उस आधार पर उसे धर्मों में कुछ बातें समान लगीं. उसने इन सब बातों को अबुल फजल द्वारा लिपिबद्ध करवा लिया और 1582 ई. में अकबर ने तौहीद-ए-इलाही के नाम से एक नए धर्म की घोषणा की. इसमें अकबर ने एक ऐसा मार्ग निकालने का प्रयास किया, जो सभी को स्वीकार्य हो तथा सभी व्यक्ति साम्प्रदायिक भेदभाव भूलकर सभी व्यक्ति शाश्वत धर्म के सार्वभौम एवं सर्वमान्य आचरण से युक्त सिद्धान्तों के अनुयायी बन सकें.
अकबर ने इस धर्म के लिए किसी धर्मग्रन्थ, देवालय या कोई विशेष पूजागृह नियत नहीं किया, बल्कि उसने इस नये धर्म को एक सैद्धान्तिक रूप प्रदान किया. 'सुलहकुल' की नीति को ध्यान में रखते हुए उसने सभी धर्मों की अच्छी बातों का समावेश अपने धर्म-दर्शन में किया.
अकबर दीन-ए-इलाही द्वारा राष्ट्रीयता एवं धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण बनाने में सफल रहा तथा इसके चलते धार्मिक विद्वेष की भावना पर वह बहुत अधिक नियन्त्रण पा सका.
3. तृतीय चरण (1582-1605 ई.)
अकबर ने इस काल में अनेक सुधार किये उसने हिज्री सन् के स्थान पर सौर वर्ष को लागू कर दिया. गौ मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया. लोगों को केवल आवश्यकतानुसार ही शराब पीने की इजाजत दी गई. मुसलमानों द्वारा दाढ़ी रखने पर प्रतिबन्ध लगाया गया. गहने, रेशमी वस्त्र आदि पहनने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया.
इसके साथ ही अकबर ने सार्वजनिक प्रार्थनाओं, अजान एवं रमजान पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया. 12 वर्ष से कम उम्र के लड़कों का खतना, हजयात्रा तथा अरबी भाषा की पढ़ाई बन्द कर दी गई तथा अनेक फकीरों एवं शेखों को देश निकाला दे दिया.
अकबर के इन सभी कार्यों के कारण उसे 'काफिर' कहा गया तथा इस्लाम धर्म त्यागने का आरोप लगाया गया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अकबर की धार्मिक नीति का उद्देश्य किसी भी धर्म की उपेक्षा एवं दूसरे धर्म को अनावश्यक रूप से प्रश्रय देने का नहीं था, बल्कि धार्मिक सहिष्णुता का विकास करना था. उसने अपनी धार्मिक नीति द्वारा साम्राज्य के सभी लोगों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया और यही उसकी महानतम् उपलब्धि थी.
> “अकबर द्वारा दीन-ए-इलाही उसकी मूर्खता का प्रतीक था उसकी बुद्धिमत्ता का नहीं." विवेचना.
धार्मिक क्षेत्र में अकबर द्वारा किये गये कार्यों में सर्वाधिक चर्चित कार्य उसके द्वारा स्थापित ‘दीन-ए-इलाही ' मत जिसका प्रारम्भिक नाम 'तौहीद-ए-इलाही' था.
इसकी स्थापना हेतु अकबर ने धार्मिक नेताओं, महत्वपूर्ण सरदारों एवं अन्य गणमान्य व्यक्तियों की एक सभा बुलाकर उनसे अनुरोध किया कि वे कोई ऐसा मार्ग निकाल लें जिसमें राज्य के सभी लोग आपसी मतभेदों को भुलाकर एक साथ प्रेम से रह सकें. इस सभा ने अकबर से ही ऐसा मार्ग निकालने का अनुरोध किया. फलतः अकबर ने 'दीन-एP इलाही' की स्थापना की. इस नये मत के प्रचार-प्रसार के लिए अकबर ने कोई व्यवस्था नहीं की तथा न ही कोई देवालय या विशिष्ट पूजा पद्धति का निर्माण किया. अकबर का स्थान इसमें एक शेख या सन्त की तरह था, जो इसमें शामिल होते थे वे अकबर को अपना गुरु मानते थे, जो जितना आत्म समर्पण कर सकता था उसी के आधार पर शिष्यों में वर्गभेद था तथा सम्राट का इसको स्थापित करने का उद्देश्य लोगों को सदाचरण, संयम तथा सहिष्णुता का आदर्श उपस्थित करना था ताकि लोगों को इसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिल सके.
> दीन-ए-इलाही के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं –
1. बादशाह अकबर से दीक्षा लेनी पड़ती थी तथा उसे अपना गुरु स्वीकार करना पड़ता था. रविवार के दिन दीक्षा लेने वाला व्यक्ति बादशाह के समक्ष उपस्थित होकर अपनी पगड़ी बादशाह उसके पैरों में रख देता था, जो इस बात का प्रतीक था कि उसने अपने अहंकार एवं स्वार्थ का त्याग कर दिया है.
2. सम्राट उसे उठाकर उसकी पगड़ी उसके सिर पर रख देता था और उसे अपना शिष्य मान लेता था. उसी समय उसे एक शस्त दिया जाता था, जिस पर 'अल्लाहो-अकबर' खुदा रहता था.
3. शिष्य से यह आशा की जाती थी कि वह सम्राट के अनुकरण द्वारा अपना सुधार करेगा तथा सम्राट से आवश्यकतानुसार मौखिक शिक्षा ग्रहण करेगा.
4. एक शिष्य दूसरे से मिलने पर अभिवादन के समय ‘अल्ला-हो-अकबर' कहेगा तथा दूसरा इसका जवाब ‘जल्ला जलाल-हू' कहकर करेगा.
5. मृत्यु से पूर्व ही व्यक्ति को मृत्युभोज देना होगा. 
6. अपने जन्मदिन पर प्रीतिभोज देना होगा.
7. इसे मानने वालों को मांस भक्षण पर प्रतिबन्ध था.
8. केवल सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही स्त्री से सहवास करें.
9. सांसारिक इच्छाओं का त्याग करें तथा सबके साथ मृदुता का व्यवहार करें.
10. कर्म के प्रभाव पर विचार करें तथा भक्ति और में वृद्धि करें.
दीन-ए-इलाही के सिद्धान्तों को देखने से स्पष्ट होता है कि इसमें आचरण के नियमों पर अधिक जोर दिया गया है न कि एक नये पृथक् धर्म के निर्माण पर, लेकिन अकबर का समकालीन 'दंबिस्तान महाजब' का लेखक मोहसिन फानी इसे ‘मजहब' कहता है. वही बदायूँनी ने लिखा है कि, “जो व्यक्ति इसे स्वीकार करते थे उन्हें इस्लाम का त्याग करना पड़ता था" वस्तुतः यह एक गलत तथ्य है. अकबर ने इस नये धर्म के प्रचार के लिए कोई दबाव नहीं डाला. इसी कारण उसके जीवनकाल में इसके सदस्यों की संख्या बहुत ही कम रही और उसकी मृत्यु के बाद यह समाप्त हो गया. ब्लेकमेन के अनुसार इसके सदस्यों की संख्या 18 से अधिक नहीं थी.
दीन-ए-इलाही की अत्यन्त तीखी आलोचना करने वालों की कमी नहीं है. सर बूल्जले हेग के अनुसार अपने परामर्शदाताओं की सहायता लेकर अकबर ने ऐसे धार्मिक सम्प्रदायों का प्रचार किया, क्योंकि उसके थोथे घमण्ड ने उसे ऐसा करने पर विवश किया, दीन-ए-इलाही वास्तव में एक लज्जाजनक असफलता थी जो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई किसी को भी अच्छी नहीं लगी. इतिहासकार बिन्सेट स्मिथ इसे उसकी मूर्खता का प्रतीक मानते हैं तथा आगे लिखते हैं, "यह उसका हास्यास्पद दम्भ तथा अनियन्त्रित अधिनायक तन्त्र के दानवीय विकास का फल था.
परन्तु यदि हम निष्पक्ष रूप से विचार करें, तो हम पाएँगे कि उपर्युक्त आलोचनाएँ सही नहीं हैं. अकबर वास्तव में अपने नये धर्म द्वारा अपने राज्य में बसने वाली सभी जातियों एवं धार्मिक सम्प्रदाय के लोगों को एकसूत्र में बाँधकर अपने साम्राज्य का स्थायित्व चाहता था तथा उसका दूसरा उद्देश्य राष्ट्रीय सम्राट के रूप में अपने को प्रतिष्ठित करवाना तथा सम्राट के पद एवं गौरव को बढ़वाना था. इस नये धर्म का उद्देश्य सभी धर्मों में समन्वय एवं एकता स्थापित करना भी
था.
अकबर को अपने इस लक्ष्य में 'दीन-ए-इलाही' के माध्यम से पर्याप्त सफलता मिली तथा उसकी गणना राष्ट्रीय सम्राट के रूप में की जाने लगी. अतः उसके द्वारा स्थापित 'दीन-एइलाही' को उसकी मूर्खता का प्रतीक कहना वस्तुतः गलत होगा. CE 1600 था.
> राष्ट्रीय सम्राट के रूप में अकबर का मूल्यांकन
मध्यकालीन विश्व के सम्राटों में अकबर अपना एक विशेष स्थान रखता है. वह महान् साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक, धर्म सहिष्णु शासक, समाज सुधारक, कला और संस्कृति के संरक्षक के रूप में उसका स्थान महत्वपूर्ण है. अकबर की ख्याति विशेष रूप से इसलिए है कि उसने सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया. उसने अपने कार्यों से अपने राज्य की नींव को इतना सुदृढ़ कर दिया कि उसके मरने के बाद भी उसका राज्य सदियों तक चलता रहा. अतः उसके द्वारा किये गये कार्यों को देखते हुए इतिहासकारों ने उसे 'राष्ट्रीय सम्राट' की संज्ञा दी है. 
अकबर ने भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधकर उनमें यह अहसास उत्पन्न किया कि वे एक राष्ट्र के निवासी हैं. इसी कार्य को सिद्ध करने के लिए उसने अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई.
पानीपत के मैदान से लेकर असीरगढ़ विजय तक अकबर ने सम्पूर्ण उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के एक बड़े भ-भाग पर अपना अधिकार कर लिया. मुगलों के दो प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों राजपूतों एवं अफगानों को अकबर के सामने नतमस्तक होना पड़ा. अकबर ने अपने राज्य विस्तार के लिए सैनिक शक्ति के साथ-साथ कूटनीति का भी सहारा लिया और यहाँ तक विदेशी पुर्तगालियों को भी यहाँ अपने पाँव जमाने का मौका नहीं दिया.
अकबर ने न केवल भारत का राजनैतिक एकीकरण किया, अपितु उसने पूरे साम्राज्य के लिए एक समान प्रशासन व्यवस्था भी लागू की. उसके प्रशासन का मुख्य उद्देश्य जनता का कल्याण करना था. इस प्रकार स्पष्ट है कि राजनीतिक और प्रशासनिक एकता स्थापित कर उसने सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरो दिया.
अकबर की उल्लेखनीय उपलब्धि भारत में धार्मिक एकता को स्थापित करना था. अकबर से पूर्व के सभी शासक इस्लाम का प्रचार-प्रसार करना अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते थे, लेकिन अकबर ने धार्मिक कट्टरता की नीति को त्यागकर उदार नीति का अनुसरण किया. अकबर ने हिन्दुओं पर से जजिया और तीर्थयात्रा कर हटाकर तथा उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता देकर उनकी सद्भावना को अपने लिए प्राप्त कर लिया. अकबर ने अपने प्रयासों से धार्मिक विद्वेष, बैमनस्य एवं कटुता की भावना को समाप्त कर आपसी सद्भाव सहयोग का वातावरण तैयार कर, उसने लोगों में एक राष्ट्र के निवासी होने का भाव जगाया.
अकबर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों के धर्मों के उत्थान के लिए समान रूप से प्रयास किये तथा उनमें व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया. वह समाज के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना चाहता था जिससे कि सभी लोग आपस में मिल-जुलकर प्रेम से रह सकें. इस कार्य के लिए उसने हिन्दुओं के त्यौहारों को उसी तरह मनाना प्रारम्भ किया, जिस तरह वह अपने दरबार में मुस्लिम त्यौहार मनाता था. अतः उसकी इस सुलहकुल की नीति ने आपसी विभेद मिटाने एवं सुसंगठित राज्य, समाज और राष्ट्र निर्माण में अमूल्य योगदान दिया. 
अकबर ने देश में सांस्कृतिक उत्थान की दिशा में भी अनेक उल्लेखनीय कार्य किये. उसने फारसी के साथ-साथ संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास के लिए अनुवाद विभाग की स्थापना की. महाभारत, गीता, रामायण, कुरान, अथर्ववेद आदि ग्रन्थों का उसने फारसी में अनुवाद बाइबिल, कराया.
इतिहास, काव्य, गज़ल एवं कविता आदि साहित्य की सभी विधाओं को संस्कृत, उर्दू एवं फारसी में लिखा गया. शैक्षणिक विकास के लिए अकबर ने अनेक मदरसे खुलवाये तथा संस्कृत पाठशालाओं को अनुदान दिये.
अकबर ने कलाकारों, कवियों, चित्रकारों एवं संगीतकारों को संरक्षण प्रदान किया. उसके द्वारा स्थापत्य के क्षेत्र में अनेक सुन्दर भवनों का निर्माण करवाया गया जिसमें हिन्दू और इस्लामी दोनों शैलियों का मिश्रण पाया जाता है. अकबर ने धार्मिक प्रतिबन्ध के बावजूद भी चित्रकला को प्रोत्साहन दिया. अकबर के प्रयासों से विभिन्न कला-शैलियों में समन्वय स्थापित किया गया. इसने मुगल कला को एक विशेष स्वरूप प्रदान किया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अकबर को भारत की राजनीतिक एकता प्रदान करने का प्रयत्न, एक शासन-व्यवस्था, एक अर्थ एवं लगान-व्यवस्था, एक करव्यवस्था, सभी को योग्यता के आधार पर राज्य की सेवाओं में उच्चतम स्थान प्राप्त करने की सुविधा, राजपूतों से विवाह सम्बन्ध और सम्मान की नीति, सभी धर्मों को समान सुविधा और दृष्टि से एकता लाने का प्रयत्न, फारसी भाषा का राज्य भाषा और सभी भाषाओं की प्रगति में सहयोग, विभिन्न ललित कलाओं की उन्नति और उनकी कलाविधियों के समन्वय का प्रयत्न, सांस्कृतिक एकता का प्रयत्न आदि ऐसे कार्य थे, जो राष्ट्रीय हित एवं प्रगति के आधार पर किये गये थे. अतः इन्हीं सब कारणों को देखते हुए अकबर को 'राष्ट्रीय सम्राट' की संज्ञा दी जाती है.
> जहाँगीर और अर्जुनदेव के सम्बन्धों पर टिप्पणी
गुरु अर्जुनदेव (1582-1607 ई.) सिक्खों के पाँचवें गुरु थे. इनके गुरु बनने से पूर्व सिक्ख मुख्य रूप से एक धर्मिक सम्प्रदाय के रूप में थे, लेकिन इन्होंने सिखों को संगठित कर गुरुपद के महत्व को बढ़ा दिया तथा अब गुरु के लिए राजदरबार, राजमहल, राजकोष एवं घुड़सवार सेना की स्थापना की गई. अभी तक सिख मुगलों की राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे. अतः अकबर इनके समय में अत्यधिक उदार रहा तथा उसने सिखों को अमृतसर के लिए जमीन दी.
परन्तु 1606 ई. में जब शाहजादा खुसरो ने विद्रोह किया तब गुरु अर्जुनदेव ने उसे आशीर्वाद के साथ-साथ आर्थिक सहायता भी दी, इससे जहाँगीर उनसे नाराज हो गया तथा 2 लाख रुपया जुर्माना एवं गुरु ग्रन्थ साहिब से कुछ गीतों को निकालने का आदेश दिया जिसे गुरु ने मानने से स्पष्ट मना कर दिया, फलस्वरूप जहाँगीर ने उनकी सारी सम्पत्ति जब्त करने एवं मृत्युदण्ड की आज्ञा दे दी. लाहौर के नाजिम चन्दूशाह ने व्यक्तिगत कारणों तथा जहाँगीर के आदेश के बाद उन्हें गिरफ्तार करके अमानवीय कष्ट देकर उनकी हत्या कर दी. 
इससे सिख जाति में मुगलों के प्रति रोष उत्पन्न हो गया वे अपने गुरु की हत्या का बदला लेने के लिए अपने आपको सैनिक शक्ति के रूप में संगठित करने का प्रयास करने लगे. अनेक इतिहासकारों ने जहाँगीर के इस कार्य को धार्मिक भावनाओं से प्रेरित माना है, लेकिन यह सही नहीं लगता. वस्तुतः उसने राजनीतिक कारणों से ही गुरु की हत्या का आदेश दिया था, क्योंकि उसने केवल गुरु को ही दण्ड दिया अन्य सिखों को नहीं, लेकिन फिर भी यह कहा सकता है कि जहाँगीर ने अर्जुनदेव को दण्ड देकर एक महान् राजनीतिक भूल की जिसका परिणाम उसके उत्तराधिकारियों को आगे चलकर भुगतना पड़ा.
> जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहाँ का महत्व
मिर्जा ग्यास बेग की पुत्री एवं अलीकुली बेग या शेर अफगान की विधवा मेहरुनिसा पर जब 1611 ई. में नौरोज त्यौहार के अवसर पर जहाँगीर की नजर पड़ी तब वह उस पर मोहित हो गया और उससे इसने विवाह कर लिया. विवाह के बाद जहाँगीर ने मेहरुनिसा को नूरजहाँ और नूरमहल की उपाधि प्रदान की जहाँगीर और नूरजहाँ का विवाह जहाँगीर के शासनकाल की एक प्रमुख घटना है, क्योंकि इस एकमात्र महिला ने मुगल शासन को अगले 15 वर्षों तक पूर्ण रूप से अपने प्रभाव में रखा और वह शक्तिशाली ताकत बनी रही.
नूरजहाँ ने जहाँगीर से विवाह होने के बाद मुगल राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया. इस कार्य को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए एक गुट का निर्माण किया जिसे ‘नूरजहाँ जुनता' कहा गया, इस गुट में उसका पिता एत्माउद्दौला, उसकी माता अस्मत बेगम, उसका भाई आसफ खाँ और शाहजादा खुर्रम सम्मिलित थे. आरम्भ में नूरजहाँ ने अपने प्रभाव से अपने सगे-सम्बन्धियों को ऊँचे पदों पर नियुक्त कर दिया. उसका पिता प्रमुख दीवान और भाई खानसामा नियुक्त कर दिये गये. नूरजहाँ ने स्वयं अपना नाम सिक्कों पर छपवाया जिससे उसका शासन और जहाँगीर पर प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित होता है.
नूरजहाँ एक सुसंस्कृत विचारों, कलात्मक गुणों से परिपूर्ण एक सुन्दर महिला थी. उसे नये-नये फैशन के वस्त्र, इत्र, आभूषण एवं शृंगार आदि के आविष्कार का शौक था. वह अपने प्रभाव से दरबार में फारसी कला एवं संस्कृति को प्रश्रय देने लगी. उसने अनाथों गरीबों की व का विवाह अपने खर्च से करवाया.
नूरजहाँ बराबर जहाँगीर के साथ रहती थी, इससे जहाँगीर उस पर पूरी तरह आश्रित रहने लगा.
इस प्रकार स्पष्ट है कि नूरजहाँ के शासनकाल में जहाँगीर उस पर अत्यधिक आश्रित रहा तथा इसी कारण जहाँगीर को खुर्रम व महावत ख़ाँ के विद्रोहों का सामना करना पड़ा और अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.
> शाहजहाँ की मध्य एशियाई (Central Asian) नीति
शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति का मुख्य उद्देश्य काबुल की सुरक्षा के लिए बल्ख पर अधिकार करना तथा खोये हुए कन्धार को प्राप्त करना था. इस हेतु उसके द्वारा किये गये प्रयास निम्नलिखित हैं
(1) कन्धार पर अभियान – ईरान के शाह अब्बास प्रथम की मृत्यु के कारण कन्धार में इस समय अराजकता की स्थिति थी. अतः शाहजहाँ ने कन्धार के किलेदार अलीमर्दान को अपने संरक्षण में लेकर कन्धार का किला अपने अधिकार में कर लिया. (1638 ई.) और दौलत खाँ को वहीं का प्रशासक नियुक्त कर दिया.
थोड़े समय बाद शाह अब्बास द्वितीय ने कन्धार पर चढ़ाई कर दी. शाहजहाँ को इसकी सूचना मिलते ही उसने औरंगजेब तथा सादुल्ला खाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी, परन्तु यह सेना कई महीने देर से पहुँच पाई ऐसे में कन्धार पर एक बार पुनः ईरान का अधिकार हो गया.
औरंगजेब के नेतृत्व में कन्धार गई मुगल सेना ने पुनः कन्धार लेने का प्रयास किया, किन्तु वह असफल रही और कन्धार सदैव के लिए मुगलों के हाथ से निकल गया. शाहजहाँ ने इसके बाद औरंगजेब (1652 ई.) और दारा (1653 ई.) के नेतृत्व में कन्धार को जीतने का प्रयास किया, किन्तु वह सफल नहीं हो सका.
(2) बल्ख अभियान—मध्य एशियाई क्षेत्र में उज्बेक लोग भी काफी शक्तिशाली थे तथा वे मुगलों के प्रतिद्वन्द्वी थे. वह काबुल पर अपना अधिकार करना चाहते थे. उन्होंने मुगलों की पैतृक भूमि 'समरकन्द' पर भी अधिकार कर लिया था. इनका नेता नजर मुहम्मद था, लेकिन उसके कार्यों से जनता नाराज थी. अतः उसके पुत्र अजीज ने सत्ता हथिया ली. नजर मुहम्मद ने शाहजहाँ से सहायता माँगी. इसे शाहजहाँ ने सुनहरा मौका देखकर नजर मुहम्मद की सहायता के लिए एक बड़ी सेना भेजी.
शाहजादा मुराद के अधीन मुगल सेना ने नजर मोहम्मद की सहायता के स्थान पर बल्ख पर अभियान कर दिया, इससे नजर मुहम्मद फारस की ओर भाग गया. मुराद ने बल्ख को लूटा तथा उस पर अधिकार कर लिया. इस पर शाहजहाँ ने उसे बल्ख और बदख्सां का सूबेदार नियुक्त कर दिया, परन्तु वह आगरा लौट आया.
अतः शाहजहाँ ने औरंगजेब को इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया तथा ट्राम्स-ऑक्सियाना में उज्बेकों के विद्रोह को शान्त कर दिया और कूटनीति का प्रयोग करते हुए नजर मुहम्मद को कहा कि मुराद का कार्य अनुचित था. अतः शाहजहाँ ने उसे सहायता तथा बल्ख वापस देने का आश्वासन दिया, परन्तु शर्त यह रखी कि वह औरंगजेब से क्षमा माँगे, परन्तु वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ. इसी बीच वहाँ रसद सामग्री की कमी हो गई तथा कड़ाके की ठण्ड पड़ने लगी जिससे मुगल सेना के हजारों सैनिक मारे गये और उनकी वापसी अत्यन्त ही कठिन हो गई, केवल थोड़े से ही सैनिक वापस जीवित लौट सके.
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शाहजहाँ को मध्य एशियाई क्षेत्र में सफलता तो मिली, लेकिन उससे नुकसान कहीं ज्यादा हुआ. इस अभियान से मुगलों की सेना की प्रतिष्ठा मात्र बढ़ी, परन्तु विशेष राजनैतिक लाभ नहीं हुए.
> शाहजहाँ की दक्षिण नीति
दक्षिण की रियासतें अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुण्डा मुगलों के विरुद्ध सदैव षड्यन्त्र करती रहती थीं. अहमदनगर राज्य जोकि दक्षिण भारत में मुगलों के विरोध का प्रमुख केन्द्र था, को नष्ट करने के उद्देश्य से शाहजहाँ ने अपनी दक्षिण की नीति अपनाई. इस नीति के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित थे
(1) अहमदनगर – शाहजहाँ ने अहमदनगर को पहले अलग-थलग करने के लिए बीजापुर राज्य को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया तथा शाहजी भोंसले को पूना की जागीर देकर उसे मुगल मनसबदार बना दिया.
1629 ई. में शाहजहाँ ने अहमदनगर के शासक मलिक अम्बर के पुत्र फतेह खाँ पर आक्रमण किया शाहजहाँ के नेतृत्व में किये गये इस अभियान में अहमदनगर राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया. अतः फतेह खाँ ने बीजापुर से सहायता की प्रार्थना की, जो बीजापुर द्वारा स्वीकार कर ली गई और बीजापुर के सुल्तान ने मुगलों से सम्बन्ध तोड़ लिया.
इसी बीच फतेह खाँ ने निजामशाह की हत्या करवा दी और उसके अल्पव्यस्क पुत्र को शासक नियुक्त कर स्वयं उसका संरक्षक बन गया तथा शाहजहाँ से समझौता कर लिया.
अहमदनगर में शाहजहाँ के नाम से खुतबा पढ़ा गया तथा सिक्के जारी किये गये. इन कार्यों के बदले फतेह खाँ को मुगल सेवा में ले लिया गया तथा शाहजी से पूना की जागीर लेकर उसे दे दी. इस अभियान से अहमदनगर का राज्य नष्ट प्रायः हो गया.
(2) बीजापुर – 1635 ई. के बाद शाहजहाँ ने बीजापुर पर ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया, क्योंकि अहमदनगर में निजामशाही को जीवित करने के प्रयास बीजापुर द्वारा किये जा रहे थे. अतः शाहजहाँ ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और इसके साथ ही उसने बीजापुर के सुल्तान के पास एक दूत भेजा कि अहमदनगर राज्य को आपस में बाँट लिया जाये. मुगल सेना के उत्पात से बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह भयग्रस्त हो गया तथा उसने शाहजहाँ से सन्धि कर ली. इस सन्धि के अन्तर्गत 20 लाख रुपये युद्ध का हर्जाना मुगलों को दिया गया तथा गोलकुण्डा के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा व शाहजी भोंसले के दमन में मुगलों की सहायता करेगा. इस पर शाहजहाँ ने उसे अहमदनगर रियासत का एक बड़ा भाग दिया, जिसकी आय 20 लाख हूण थी.
(3) गोलकुण्डा — शाहजहाँ ने गोलकुण्डा से सन्धि करने के लिए एक दूत भेजा. सुल्तान कुतुबुल मुल्क ने उसका भव्य स्वागत किया तथा शाहजहाँ से सन्धि कर ली तथा उसने शाहजहाँ के नाम से खुतबा पढ़ा एवं सिक्के जारी किये तथा शाहजहाँ के प्रति बफादार रहने का आश्वासन दिया. इस पर शाहजहाँ ने गोलकुण्डा को, जो वह 4 लाख हूण का वार्षिक कर बीजापुर को देता था उससे मुक्त कर दिया तथा 2 लाख हूण वार्षिक गोलकुण्डा ने मुगलों को देना स्वीकार कर लिया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शाहजहाँ ने अहमदनगर के निजामशाही को समाप्त कर तथा बीजापुर एवं गोलकुण्डा से सन्धि कर दक्षिण में अपनी प्रभावशाली नीति को स्थापित कर लिया. इस प्रकार शाहजहाँ की दक्षिण नीति सफल रही.
> शाहजहाँ के समय हुए उत्तराधिकार के युद्ध का विवरण
शाहजहाँ के चार पुत्रों दारा, शुजा, औरंगजेब एवं मुराद के मध्य सत्ता प्राप्ति के लिए, जो संघर्ष हुआ वह शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों की सर्वाधिक प्रमुख घटना है. 
शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र दारा एक विद्वान्, उदार एवं दयालु व्यक्ति था. उसे शाहजहाँ सर्वाधिक चाहता था तथा उसे 'शाह इकबाल' की उपाधि दे रखी थी, वह पंजाब एवं दिल्ली का प्रशासक था. शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शुजा बंगाल का प्रशासक था वह साहसी, वीर किन्तु आलसी एवं अकर्मण्य था. वह राजनीति एवं शासन-सम्बन्धी कार्यों के लिए सर्वथा अयोग्य था. औरंगजेब शाहजहाँ का तीसरा पुत्र था जो चालाकी, कूटनीतिज्ञता एवं महत्वाकांक्षा में सबसे आगे था. वह एक बड़ा संगठनकर्ता तथा कुशल सेनापति था. चौथा पुत्र मुराद भी अत्यन्त बहादुर था, लेकिन वह भावुक, जल्दबाज एवं आराम तलब था. इस समय वह गुजरात का सूबेदार था. इन चारों के साथ शाहजहाँ की तीन पुत्रियों जहाँआरा, रोशनआरा, गौहरआरा ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इस संघर्ष में भाग लिया.
सितम्बर 1657 ई. में जब शाहजहाँ अचानक बीमार पड़ गया तथा उसके जीवित बचने की कोई आशा नहीं रही, तो उसकी बीमारी का समाचार पूरे राज्य में फैल गया. इस समय द्वारा राजधानी आगरा में ही था तथा शेष तीनों पुत्र राजधानी से बाहर दूर थे. अतः उन्हें अपने अधिकार की चिन्ता हुई और वे धीरे-धीरे राजधानी की ओर अपनी सेना सहित बढ़ने लगे.
अब शाहजहाँ ने दारा को अपना 'वलीअहद' नियुक्त कर दिया तथा मुगल सरदारों को दारा को भावी सम्राट मानने को कहा. इसने आग में घी का काम किया तथा शुजा और मुराद ने अपने आपको सम्राट घोषित कर दिया तथा अपने नाम से ‘खुतबा’ पढ़वाया. औरंगजेब ने चालाकी से काम लेते हुए कहा कि उसका आगरा जाने का उद्देश्य दारा जैसे धर्मभ्रष्ट व्यक्ति से सम्राट की रक्षा करना है. ऐसा उसने कट्टर मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से कहा तथा आगरा की ओर बढ़ता रहा. औरंगजेब ने इसी बीच मुराद से सन्धि कर ली और वह अपनी सेना सहित उज्जैन के निकट दीपालपुर में औरंगजेब से आकर मिल गया और औरंगजेब गुप्त रूप से तैयारियाँ करता रहा. उसने बीजापुर, गोलकुण्डा, शिवाजी तथा ईरान के शाह से भी गुप्त समझौता कर लिया. अब वह धरमत की ओर से आगे बढ़ा.
> धरमत का युद्ध
अप्रैल 1658 ई. में यह निर्णायक युद्ध शाहजहाँ और दारा की ओर से जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह द्वारा औरंगजेब एवं मुराद के विरुद्ध लड़ा गया, जिसमें जसवन्तसिंह पराजित होकर जोधपुर भाग गये. इस युद्ध से औरंगजेब का हौंसला और अधिक बढ़ गया और अब वह मुराद के साथ तेजी से राजधानी की ओर बढ़ा और चम्बल पार कर सामूगढ़ के समीप पहुँच गया.
> सामूगढ़ का युद्ध
29 मई, 1658 ई. को दारा और उसके साथी हाड़ा राजपूत एवं बाढ़ा के सैयदों ने औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेना पर आक्रमण किया, परन्तु औरंगजेब ने अपने कुशल सेनापतित्व के बल पर दारा को हरा दिया. इस युद्ध हारने के बाद दारा दिल्ली होते हुए लाहौर भाग गया. में
अब विजयी औरंगजेब एवं मुराद ने राजधानी आगरा में प्रवेश किया. शाहजहाँ द्वारा मिलने के लिए बुलाये जाने पर भी उन्होंने मिलने से मना कर दिया तथा शक्ति के बल पर दुर्ग में प्रवेश किया तथा शाहजहाँ को नजरबन्द कर दिया.
> मुराद का अन्त
आगरा पर अधिकार करने के बाद औरंगजेब मुराद के साथ दिल्ली की ओर दारा का पीछा करने के बहाने से आगे बढ़ा. इसी बीच दोनों में साम्राज्य के विभाजन को लेकर वैमनस्य पैदा हो गया तब औरंगजेब ने मुराद को धोखे से गिरफ्तार करवा लिया और ग्वालियर दुर्ग में कैद कर लिया और वहीं 1661 ई. में उसकी हत्या करवा दी. इसी बीच औरंगजेब ने दिल्ली पहुँचकर 21 जुलाई, 1658 ई. को दिल्ली में सम्राट बनने की घोषणा कर दी.
> दारा का अन्त
दारा सामूगढ़ की लड़ाई में हारने के बाद लाहौर चला गया और अपनी शक्ति को संगठित करने का प्रयास करने लगा. इसी बीच औरंगजेब ने उसका पीछा करना जारी रखा. अतः दारा लाहौर से सिन्ध, गुजरात होता हुआ अजमेर पहुँचा और जोधपुर के जसवन्तसिंह से सहायता का प्रयास किया, किन्तु वह सफल न हो सका. अतः देवराई के मैदान में 1659 ई. को दारा और औरंगजेब के मध्य लड़ाई हुई, जिसमें दारा पुनः पराजित हुआ और भागकर अफगानिस्तान में शरण लेने चला गया जहाँ अफगान सरदार मलिक जीवन ने उसे गिरफ्तार कर दिल्ली भेज दिया. अब दारा पर मुकदमा चलाकर उसे धर्म विरोधी सिद्ध किया गया और अपमानित कर उसकी हत्या कर दी गई.
> शुजा का दुःखद अन्त
1658 ई. में दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह से बहादुरपुर के युद्ध में पराजित होने के बाद शुजा ने मुंगेर में शरण ली और अपनी शक्ति संगठित कर राजधानी की ओर बढ़ने लगा और औरंगजेब की सेना के साथ दिसम्बर 1658 को खजुआ नामक स्थान पर युद्ध किया, लेकिन परास्त होकर बंगाल चला गया जहाँ औरंगजेब के समर्थक मीर जुमला ने उसका पीछा करना प्रारम्भ कर दिया. अतः शुजा ध्य होकर आराकान चला गया जहाँ बर्मा के राजा के विरुद्ध षड्यन्त्र करने के आरोप में उसकी समस्त परिवार सहित हत्या कर दी गई और इसी के साथ ही औरंगजेब के सभी प्रतिद्वन्द्वी समाप्त हो गये तथा इसके बाद औरंगजेब ने जून 1659 में विधिवत् अपना राज्याभिषेक कराया.
> क्या शाहजहाँ का शासनकाल 'स्वर्ण युग' था? इसके पक्ष में तर्क दीजिए.
अनेक इतिहासकारों एवं विदेशी यात्रियों तथा समकालीन लेखकों ने शाहजहाँ के शासनकाल में अत्यधिक उन्नति का वर्णन किया है. खाफी खाँ ने लिखा है कि, फिर “यद्यपि अकबर एक विजेता और संविधान निर्माता था, भी शासन व्यवस्था, साम्राज्य तथा राजस्व के प्रबन्ध और राज्य के प्रत्येक विभाग के सुव्यवस्थित प्रशासन के लिए भारत में ऐसा कोई भी राजकुमार शासक नहीं हुआ जिसकी शाहजहाँ से तुलना की जा सके.” इन सभी को देखते हुए शाहजहाँ के शासनकाल को 'स्वर्णकाल' कहने के निम्नलिखित कारण थे
साम्राज्य का विस्तार — अपने पूर्वजों की भाँति शाहजहाँ भी साम्राज्यवादी प्रकृति का था. अतः उसने भी अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अनेक अभियान किए. उसने बल्ख अभियान में मुगलों की प्रतिष्ठा को मध्य एशिया में पुनः स्थापित किया तथा दक्षिण में प्रभावशाली ढंग से मुगलों का आधिपत्य जमा दिया. उसके समय में प्रान्तों की संख्या बढ़कर 15 से 21 हो गई हालांकि उसका कान्धार अभियान सफल नहीं रहा.
प्रशासनिक सुव्यवस्था — शाहजहाँ के समय में प्रशासनिक व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त बनी रही. उसने अकबर के समय लागू की गई व्यवस्था को ही अपनाया, परन्तु आवश्यकतानुसार उसमें अनेक संशोधन भी किए और पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पर अपना नियन्त्रण बनाए रखा.
शाहजहाँ ने मनसबदारी, राजस्व एवं न्याय व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए. मनसबदारों के वेतन तथा उनके द्वारा रखे जाने वाले सवारों की संख्या में कमी कर दी. सामान्यतः मनसबदारों के जात एवं सवार की संख्या 9 हजार कर दी. यद्यपि राजकुमारों की मनसब बहुत अधिक थी.
राजस्व व्यवस्था में शाहजहाँ द्वारा अनेक परिवर्तन किए गए. उसने लगान की दर को 1/3 से 1/2 कर दिया, लेकिन इसके साथ ही उसने नहरों का निर्माण करवाया तथा किसानों को अनेक सुविधाएँ दीं. इससे राजकोष को लाभ हुआ.
शाहजहाँ के समय में व्यापार एवं उद्योग-धन्धों की अत्यधिक उन्नति हुई. भारतीय वस्तुओं की माँग इस समय यूरोप एवं पश्चिम एशिया में सर्वाधिक थी. आगरा, दिल्ली एवं बंगाल में हजारों निजी एवं राजकीय कारखाने थे, जहाँ पर अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्माण होता था. वस्त्र उद्योग इस समय बहुत अधिक उन्नत दशा में था. उसके समय के यूरोपीय यात्रियों ने उसके शासनकाल की अत्यधिक प्रशंसा की है. उल्लेखनीय है कि, शाहजहाँ का शासनकाल न्याय के लिए भी प्रसिद्ध है. न्याय की नजर में सभी व्यक्ति समान थे तथा अपराधियों को कठोर दण्ड दिए जाते थे.
जनहित के कार्य—शाहजहाँ की जनहित में कार्य करने की अत्यधिक रुचि थी. उसने अनेक प्रमुख व्यापारिक मार्गों एवं राजमार्गों पर सरायों का निर्माण करवाया. शिक्षा के विकास के लिए मदरसे एवं मकतब खोले गए तथा अनेक चिकित्सालयों का निर्माण भी उसके द्वारा करवाया गया.
शाहजहाँ ने अपने समय में दक्षिण में पड़ने वाले अकाल में स्वयं उसने राहत कार्यों की देख-रेख की.
साहित्य की प्रगति — शाहजहाँ के समय में साहित्य की भी अत्यधिक उन्नति हुई. उसका पुत्र दारा स्वयं एक बड़ा विद्वान् था. उसने अथर्ववेद एवं उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया. अब्दुल हमीद लाहौरी ने 'पादशाहनामा' एवं खाफी खाँ ने 'मुन्तखाब-उल-लुबाब' की रचना उसी के दरबार में रहते हुए की. मुंशी बनवारीदास ने 'प्रबोध चन्द्रोदय' का फारसी में अनुवाद किया.
इन सभी के अतिरिक्त शाहजहाँ ने हिन्दी के विकास के लिए उसके प्रमुख कवियों को संरक्षण प्रदान किया. सुन्दरदास ने 'सुन्दर शृंगार', 'सिंहासन बत्तीसी' एवं 'बारहमासा' की रचना की तथा संस्कृत के विद्वान् जगन्नाथ पण्डित ने उसी के दरबार में रहते हुए 'गंगा लहरी' की रचना की और 'महाकवि' की उपाधि प्राप्त की.
स्थापत्य का विकास – स्थापत्य की दृष्टि से शाहजहाँ का शासनकाल निःसन्देह स्वर्णकाल था. उसने अनेक सुन्दर नगरों एवं भव्य भवनों का निर्माण करवाया. शाहजहाँ ने दिल्ली में 'शाह जहानाबाद' का नगर एवं ऐतिहासिक 'लाल किला' का निर्माण करवाया. इसमें 'दिवान-ए-आम' एवं 'दिवान-ए-खास ' दो अत्यन्त ही भव्य भवन हैं. दिवान-ए-खास को पृथ्वी पर स्वर्ग के समान माना गया है. 
इसके अतिरिक्त शाहजहाँ ने जामा मस्जिद (दिल्ली), मोती मस्जिद (आगरा) तथा जहाँगीर के मकबरे (लाहौर) का निर्माण भी करवाया. शाहजहाँ के शासनकाल की सर्वाधिक उल्लेखनीय इमारत आगरा का 'ताजमहल' है, जो आज पूरे विश्व के लिए आश्चर्य का विषय है.
शाहजहाँ ने अपने बैठने के लिए रत्नों से सुसज्जित मयूर सिंहासन का निर्माण करवाया था, जिसमें विश्व का प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी जड़ा था.
अन्य कलाओं को प्रश्रय – शाहजहाँ ने संगीत को अपने दरबार में संरक्षण दिया तथा वह स्वयं संगीत का अच्छा जानकार था. उसके समय में जगन्नाथ ध्रुपद के प्रसिद्ध गायक थे. इसके अतिरिक्त चित्रकला की भी उसके समय में अत्यधिक उन्नति हुई.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, शाहजहाँ कौशल, शिक्षा एवं साहित्य के साथ-साथ व्यापार एवं का शासनकाल शान्ति व्यवस्था, आर्थिक सम्पन्नता, कलावाणिज्य के विकास का काल होने के कारण उसे हम ‘स्वर्ण युग' मान सकते हैं.
> शाहजहाँ का शासनकाल 'स्वर्ण-युग' नहीं था
शाहजहाँ के शासनकाल को स्वर्ण युग मानने वाले इतिहासकारों के विरुद्ध एडवर्ड एवं गैरट ने लिखा है कि, 'शाहजहाँ के शासनकाल में केवल ऊपरी चमक-दमक दिखाई देती है, वास्तविक स्थिति इससे भिन्न थी. अनेक उपलब्धियों के बावजूद भी शाहजहाँ का शासनकाल मुगल साम्राज्य और उसकी अर्थव्यवस्था के पतन की ओर इंगित करती है."
शाहजहाँ ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर, अपने भाइयों की हत्या करवा कर राजगद्दी को प्राप्त किया था. इसी का अनुसरण उसके पुत्रों ने किया जो मुगलों के पतन का प्रमुख कारण बना.
शाहजहाँ एक आराम तलब एवं अनुदार व्यक्ति था. उसकी मध्य एशियाई और दक्षिण नीति अधिक सफल नहीं रही. इस युद्ध में उसकी केवल प्रतिष्ठा ही बढ़ी तथा धन-जन की महान् हानि हुई, कोई राजनैतिक लाभ नहीं.
शाहजहाँ के शासनकाल में विद्रोह एवं षड्यन्त्र लगातार होते रहे. अतः उस काल को शान्ति एवं व्यवस्था का काल कहना उचित नहीं. उसके समय में हुआ उत्तराधिकार का युद्ध नरसंहार का और विश्वासघात का घिनौना रूप था.
व्यवस्था में शिथिलता आ शाहजहाँ ने प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन अवश्य किए, लेकिन वे मौलिक नहीं थे. इससे प्रशासनिक और प्रान्तीय शासक शक्तिशाली बने. उसकी सैनिक शक्ति में उतनी धार नहीं रही, तभी तो तीन बार सैनिक अभियान करने के बावजूद भी कान्धार को अपने अधीन नहीं कर सका.
शाहजहाँ ने अपने शासनकाल में अनेक युद्ध लड़े तथा अनेक भवनों का निर्माण करवाया जिससे उसका राजकोष रिक्त हो गया तथा उसकी पूर्ति के लिए उसने राजस्व दर को बढ़ाकर 1/3 से 1/2 कर दिया इससे आम जनता की परेशानी बढ़ गई. इसी से स्पष्ट है कि एक ओर तो उसने अपनी शान और शौकत को लगातार बढ़ाता रहा, लेकिन उसके बदले जनता को अपार कष्ट सहना पड़ा.
शाहजहाँ के समय में सामाजिक विषमता में भी वृद्धि हुई और समाज सुविधा भोगी तथा सुविधाहीन दो वर्गों में बँट गया. फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने जनसाधारण की हीन दशा का वर्णन किया है..
शाहजहाँ ने अकबर की धार्मिक उदारता की नीति का परित्याग कर दिया तथा उसने हिन्दुओं पर तीर्थयात्रा कर लगा दिया, उनके मन्दिर नष्ट कर दिए गए. राजपूतों से सम्बन्धों में भी कटुता आ गई थी.
शाहजहाँ का काल मुख्य रूप से कलात्मक प्रगति के लिए विख्यात है, लेकिन प्रगति केवल ऊपरी थी. उसके द्वारा निर्मित भवनों में सौन्दर्य अवश्य है, लेकिन मौलिकता नहीं इसी तरह जो प्रगति कला एवं संगीत के क्षेत्र में अकबर एवं जहाँगीर के समय में हुई थी, वैसी प्रगति उसके शासनकाल में नहीं हुई. अबुल फजल, तुलसी, सूरदास जैसी साहित्य की महान् विभूतियाँ उसके शासनकाल में नहीं हुईं.
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, शाहजहाँ का शासनकाल किसी तरह से स्वर्ण युग नहीं था, बल्कि उसका युग राजकीय शान-शौकत का था.
> औरंगजेब की धार्मिक नीति पर प्रकाश
औरंगजेब की धार्मिक नीति अत्यन्त विवाद का विषय है. अनेक भारतीय और विदेशी इतिहासकारों ने उसे धर्मान्ध तथा कट्टर सुन्नी मुसलमान सिद्ध करने का प्रयास किया है, जबकि आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार, औरंगजेब धर्मान्ध नहीं था, बल्कि उसके कार्य राजनीति से प्रेरित थे. उसने न केवल मन्दिरों को तोड़ा, बल्कि उन्हें अनुदान भी दिया. उसने इस्लाम की कुरीतियों को दूर करने का भी प्रयास किया फिर भी उसे निम्नलिखित कारणों से धर्मान्ध घोषित करने का प्रयास किया है.
औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था तथा इस्लाम के नियमों का बड़ी कठोरता से पालन करता था. उसे कोई भी धर्म-विरोधी कार्य सहन नहीं होता था. उसने अपनी राजगद्दी भी कट्टर मुसलमानों के समर्थन से प्राप्त की थी. अतः शासक बनते ही उसने घोषित किया कि, इस देश को जो 'दारुल हर्ब' है, को 'दारुल इस्लाम में बदलना है. उसने सिक्कों पर 'कलमा' खुदवाना बन्द कर दिया. नौरोज का त्यौहार तुलादान, झरोखा दर्शन आदि को भी इस्लाम विरोधी मानकर प्रतिबन्धित कर दिया.
अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में उसने दरबार में संगीत एवं गवैयों पर रोक लगा दी. शराब के निर्माण एवं बिक्री पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसी तरह औरंगजेब ने होली, मुहर्रम, बसन्तोत्सव जैसे त्यौहार, जुआ खेलने, तिलक लगाने स्त्रियों को मजारों पर जाने पर रोक लगा दी एवं दाढ़ी और एवं मूर्तियाँ रखने पर रोक के साथ कब्रों को छत से ढकने, पाजामे की लम्बाई तक निश्चित कर दी. उसने इतिहासलेखन विभाग बन्द कर दिया तथा कुरान के अनुसार उसने अपना जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया, जिससे वह 'दरवेश' अथवा 'जिन्दापीर' के नाम से जाना जाने लगा.
औरंगजेब ने इस्लाम धर्म को संरक्षण देने के लिए अनेक कार्य किए. पुराने मस्जिदों का पुनर्निर्माण तथा उनके लिए धन की व्यवस्था की. मुसलमान व्यापारियों के व्यापार को कर मुक्त कर दिया. वहीं हिन्दुओं पर उसने 5% टैक्स लगा दिया. राज्य के कुछ पद जैसे—करोड़ी, पेशकार आदि केवल मुसलमानों के लिए ही सुरक्षित कर दिए. उसने शरियत के नियमों का जनता से पालन करवाने के लिए 'मुहतसिब' नामक अधिकारियों की नियुक्ति की.
उसने हिन्दुओं को मुसलमान बनने को प्रेरित करने के लिए उन्हें नौकरियाँ, सम्मान और धन का लालच दिया. उनके धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. 1665 ई. में गुजरात के सोमनाथ मन्दिर सहित अनेक मन्दिरों को तुड़वा दिया. उसने बनारस, मथुरा, उड़ीसा, राजपूताना और अन्य अनेक मन्दिरों को तोड़ दिया. औरंगजेब ने 1679 ई. में अकबर द्वारा हटाए गए 'जजिया कर' को पुनः लागू कर दिया. उसके साथ ही धर्मयात्रा पर भी कर लगाया गया.
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर औरंगजेब को एक धर्मान्ध व्यक्ति भी माना जा सकता है. इसलिए लेनपूल ने लिखा है कि, “अपने इतिहास में मुगलों ने पहली बार एक कट्टर मुसलमान को देखा – एक ऐसा मुसलमान जो अपना भी दमन उतना ही करता था, जितना कि अपनी प्रजा का और एक ऐसा बादशाह जो अपने धर्म के लिए अपना राज्य सिंहासन भी छोड़ने को तैयार था." लेकिन उसके शासनकाल की घटनाओं का गहराई से विश्लेषण करें, तो उसकी नीति के प्रति ठोस राजनैतिक कारण नजर आते हैं. उसने मन्दिरों को राजनैतिक कारणों से ही तोड़ा, क्योंकि उत्तर भारत के प्रमुख मन्दिर शिक्षा के केन्द्र थे, जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों आते थे. उसने अपने लम्बे अभियान के बावजूद भी दक्षिण के मन्दिरों को नहीं तोड़ा. उसके समय में बंगाल में नए मन्दिरों का निर्माण भी हुआ. इसके अतिरिक्त औरंगजेब ने अनेक मन्दिरों को अनुदान भी दिया. चित्रकूट, गुवाहाटी, उज्जैन, गया इत्यादि के मन्दिरों को दान दिए जाने के प्रमाण भी मिलते हैं. उसका जजिया कर लगाने का उद्देश्य मराठे एवं राजपूतों के विरुद्ध जो इस समय युद्ध पर उतारू थे, के विरुद्ध मुसलमानों को संगठित करना था तथा अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाना था. उसके समय में हिन्दू सरदारों की संख्या शाहजहाँ के शासनकाल की संख्या से बहुत अधिक थी. अतः यह कहना कि उसने 'इस्लाम को राष्ट्र धर्म' घोषित कर दिया था, वस्तुतः गलत है.
फिर भी उसने अपने कार्यों को इस तरह से सम्पादित किया कि, हिन्दू जनता में उसके प्रति रोष उत्पन्न हुआ और मुगल राज्य के पतन में उसकी नीति एक प्रमुख कारण बन गई.
> औरंगजेब और जाट विद्रोह : टिप्पणी
औरंगजेब के शासनकाल का प्रथम विद्रोह जाट लोगों का था, जो पेशे से किसान थे और मथुरा, मेरठ आदि के आस-पास बसे थे. इन लोगों की लगान सम्बन्धी अनेक समस्याएँ थीं, जिसके विरुद्ध एवं मुगल अधिकारियों के व्यवहार के विरुद्ध आवाज उठाते रहते थे.
औरंगजेब के समय मथुरा के जाटों ने स्थानीय जमींदार गोकला जाट के नेतृत्व में 1669 ई. में मुगल फौजदार अब्दुल नवी के अत्याचारों से तंग आकर विद्रोह कर दिया और उसकी हत्या कर दी. सरकारी खजाने एवं गोदाम लूट लिए, अनेक मुल्ला-मौलवियों को मार दिया व मस्जिदें तोड़ डालीं. इस पर औरंगजेब स्वयं मथुरा गया और मथुरा के नए फौजदार हसन अली खाँ के नेतृत्व में जाटों एवं मुगल सेना के मध्य युद्ध हुआ जिसमें गोकला पराजित हुआ और मार डाला गया.
इसके बाद जाटों ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए राजाराम के नेतृत्व में अपने आपको सैनिक ढंग से संगठित किया तथा मार-काट एवं लूट-खसोट प्रारम्भ कर दी और यहाँ तक कि आगरा के पास सिकन्दरा में अकबर के मकबरे को भी लूटा. अतः इनका दमन करने के लिए आमेर के शासक विशन सिंह को मथुरा का फौजदार बनाकर भेजा जिसने जाटों को पराजित कर दिया और संघर्ष के दौरान 1688 ई. में राजाराम की हत्या कर दी गई, परन्तु शीघ्र ही जाट चूड़ामन के नेतृत्व में संगठित हो गए. इस समय औरंगजेब को दक्षिण में जाना पड़ा. अतः जाटों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और औरंगजेब की मृत्यु के बाद भरतपुर में स्वतन्त्र जाट राज्य की स्थापना चूड़ामन ने की.
> औरंगजेब एवं सिख सम्बन्ध
जहाँगीर द्वारा सिखों के 5वें गुरु अर्जुनदेव की हत्या करवाए जाने के बाद से ही सिखों और मुगलों के सम्बन्धों में कटुता आनी प्रारम्भ हो गई थी तथा यह कटुता शाहजहाँ के समय और बढ़ी तथा औरंगजेब के समय तक यह अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई.
औरंगजेब की सिखों से दुश्मनी उसके उत्तराधिकार के युद्ध के समय ही प्रारम्भ हो गई थी, जब उनके गुरु हरराय ने औरंगजेब के विरोधी दारा की मदद की. इस पर गुरु को अपने पुत्र रामराय को बन्धक के रूप में औरंगजेब के पास रखना पड़ा. इसी बीच 1661 ई. को गुरु हरराय की मृत्यु हो गई.
गुरु हरकिशन और तेगबहादुर गुरु हरराय की मृत्यु के बाद गुरु हरकिशन को गद्दी पर बैठाया गया. इस पर रामराय ने विरोध किया. अतः सिखों में उत्तराधिकारी का प्रश्न पैदा हो गया और रामराय ने औरंगजेब से सहायता की माँग की. इसी समय 1664 ई. में गुरु हरकिशन की मृत्यु हो गई तब तेगबहादुर अधिकांश सिखों का समर्थन प्राप्त कर गद्दी पर बैठ गए. अतः रामराय ने फिर से औरंगजेब से सहायता की माँग की. अतः औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलवाया, लेकिन उसके विरुद्ध आमेर के राजा जयसिंह के कारण कोई कार्यवाही नहीं कर सका और जयसिंह के साथ गुरु असम चले गए और वहाँ से आने के बाद गुरु ने अपना निवास आनन्दपुर में बना लिया तथा कश्मीर के प्रान्तीय शासक के धार्मिक अत्याचारों के विरुद्ध ब्राह्मणों को भड़काना प्रारम्भ कर दिया. इसके साथ ही उन्होंने कुछ मुसलमानों को सिख भी बना लिया. इस पर औरंगजेब क्रुद्ध हो गया तथा उन्हें पकड़कर दिल्ली लाया गया और इस्लाम न स्वीकार करने पर 1675 ई. में उनकी हत्या करवा दी गई. इस कारण औरंगजेब एवं सिखों के सम्बन्ध अत्यन्त ही खराब हो गए तथा इसके कारण राज्य को घातक परिणाम भुगतने पड़े और सिख अब सैनिक तैयारी करने लगे.
गोविन्द सिंह और औरंगजेब – तेगबहादुर की मृत्यु के बाद सिखों के 10वें गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708) बने. इन्होंने सिखों को संगठित कर एक सैनिक जाति के रूप में बदल दिया और खालसा पंथ की स्थापना की.
गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की सहायता से आस-पास (पंजाब) के पहाड़ी प्रदेश के स्थानीय शासकों को पराजित कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली. अतः औरंगजेब ने लाहौर तथा सरहिन्द के प्रशासकों को सहायता दी. मुगल सेना ने आनन्दपुर पर आक्रमण कर दिया और गुरु को भागने पर मजबूर कर दिया. उनके दो पुत्र इस युद्ध में पकड़ लिए गए और इस्लाम स्वीकार न करने के कारण उन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया गया.
गोविन्द सिंह ने हार न मानते हुए चमकौर नामक स्थान से अपना संघर्ष जारी रखा और यहाँ उनके दो अन्य पुत्र भी युद्ध में मारे गए. अब गुरु तलबण्डी चले गए. इस समय औरंगजेब अपने दक्षिण अभियान में अत्यधिक व्यस्त था, अतः उसने लाहौर के सूबेदार से सन्धि करने का आदेश दे दिया. 1706 ई. में गुरु गोविन्द सिंह औरंगजेब से मिलने दक्षिण गए और 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गई तथा नए मुगल बादशाह बहादुरशाह ने गुरु से सन्धि कर ली. गुरु जब दक्षिण से उत्तर की ओर लौट रहे थे, तो मार्ग में 1708 ई. में एक अफगान हत्या कर दी. इस प्रकार स्पष्ट है कि, औरंगजेब ने सिखों के प्रति अदूरदर्शी नीति अपनाई जिससे सिख अपने को सैनिक शक्ति के रूप में संगठित करके मुगलों के लिए सिरदर्द बन गए.
> औरंगजेब और मारवाड़ सम्बन्ध : राजपूत नीति
मारवाड़ के शासक जसवन्त सिंह जब अपना कोई उत्तराधिकारी छोड़े बिना ही 1678 ई. जमरूद नामक स्थान पर अफगानों से संघर्ष करते हुए मारे गए तब औरंगजेब ने मारवाड़ को मुगल राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया इससे मारवाड़-मुगल सम्बन्ध बिगड़ गए.
औरंगजेब ने जोधपुर, जो मारवाड़ की राजधानी था, को एक बड़ी सेना भेजकर अपने अधिकार में कर लिया तथा सारे मारवाड़ में की नियुक्ति कर दी मुगल तथा अनेक मन्दिरों को नष्ट कर दिया. अब औरंगजेब ने जसवन्तसिंह के भतीजे इन्द्र सिंह को 36 लाख रुपए के बदले अपना करद राजा बनाकर जोधपुर में नियुक्त कर दिया और मारवाड़ पर जजिया कर लगा दिया.
इसी बीच लाहौर में महाराजा जसवन्त सिंह की रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिसमें से एक पुत्र अजीत सिंह जीवित बच गया. अब जसवन्त सिंह का वीर सेनापति अजीत सिंह को अपने साथ लेकर दिल्ली आया तथा उसे वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने को कहा.
इस पर औरंगजेब ने अजीत सिंह को मुगल हरम में रखने तथा उसकी परवरिश करने के बाद उसका राज्य उसे सौंपने का आश्वासन दिया. इसके बाद उसने राज्य के विभाजन की भी चाल चली तथा औरंगजेब ने उसे इस्लाम स्वीकार करने को भी बाध्य किया. इससे राठौर सरदार भड़क उठे. इस पर औरंगजेब ने अजीत सिंह सहित जसवन्त सिंह की रानियों को नूरगढ़ के किले में कैद करने का आदेश दिया.
इस पर दुर्गादास राठौर ने राजपूत सरदारों को एकत्र किया तथा मुगलों को छकाते हुए रानियों और अजीत सिंह को लेकर जोधपुर चला गया और जोधपुर के राठौरों ने अजीत सिंह को अपना राजा स्वीकार कर लिया.
1679 ई. में औरंगजेब ने अब शाहजादा अकबर के नेतृत्व में एक बड़ी सेना जोधपुर भेजी जिससे दुर्गादास और उसके सरदार पराजित हो गए, तब दुर्गादास ने अजीत सिंह के साथ मेवाड़ में शरण ली. इस पर औरंगजेब ने मेवाड़ पर भी जजिया कर लगा दिया और मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी. मेवाड़ के राणा ने उदयपुर को छोड़ जंगलों में शरण ली और छापामार युद्ध नीति से मुगलों को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया.
शाहजादा अकबर की मेवाड़ के विरुद्ध असफलता को देखकर औरंगजेब ने उसे वापस मारवाड़ जाने का आदेश दे दिया, इससे उसने विद्रोह कर दिया (1681 ई.) और राजपूतों के साथ मिल गया तथा दुर्गादास के साथ मिलकर अजमेर पर आक्रमण कर दिया. इससे मुगलों की स्थिति और खराब हो गई. अतः औरंगजेब ने कूटनीति का सहारा लेकर मारवाड़ से अकबर (शाहजादा) और मेवाड़ को पृथक् कर दिया. इससे मारवाड़ ने अब अपना संघर्ष अकेले ही जारी रखा और छापामार युद्धों से मुगलों को परेशान करना प्रारम्भ कर दिया. अब औरंगजेब ने अपना दक्षिण अभियान प्रारम्भ कर दिया था, जिससे उसके पास मारवाड़ की तरफ ध्यान समय ही नहीं था. राठौर भी कभी मुगलों से समझौता करते और युद्ध करते और यही स्थिति उसकी मृत्यु (1707 ई.) तक बनी रही. उसके बाद 1709 ई. में अगले मुगल शासक बहादुरशाह ने अजीत सिंह को मारवाड़ का वास्तविक शासक स्वीकार कर लिया.
इस प्रकार स्पष्ट है कि, औरंगजेब की मारवाड़ के प्रति अपनाई गई नीति पूर्णतया अदूरदर्शितापूर्ण थी तथा इस नीति ने मुगलों और राजपूतों के मध्य खाईं खोद दी, जो कभी भी भरी नहीं जा सकी.
> औरंगजेब और मराठा सम्बन्ध
दक्षिण भारत में औरंगजेब के समय में मुगलों के सबसे प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मराठे थे. मराठों ने बीजापुर और अहमद नगर राज्यों की दुर्बलता का लाभ उठाकर अपनी शक्ति को संगठित कर लिया तथा उन्होंने शिवाजी के नेतृत्व में अनेक किलों को जीतकर ‘स्वतन्त्र हिन्दू राज्य' की स्थापना कर दी. शिवाजी की बढ़ती शक्ति औरंगजेब के लिए असहनीय थी. अतः उसने शिवाजी को दबाने का भरसक प्रयास किया. इसके लिए जब वह दक्षिण का सूबेदार था तब उसने बीजापुर के शासक आदिलशाह को शिवाजी को दबाने का आदेश देकर स्वयं उत्तराधिकार के संघर्ष में भाग लेने उत्तर की ओर रवाना हो गया.
बीजापुर के सुल्तान ने अफजल खाँ को शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजा, जिसकी शिवाजी ने बघनखा से 1659 ई. में हत्या कर दी और बीजापुर के अनेक इलाकों पर अधिकार कर लिया. अतः औरंगजेब ने शासक बनने के बाद ‘शाइस्ता खाँ' को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा. इस पर 1663 ई. में रात्रि में शिवाजी ने शाइस्ता खाँ के शिविर पर आक्रमण कर दिया तथा शाइस्ता खाँ को भागने पर विवश होना पड़ा इससे दक्षिण में शिवाजी की प्रतिष्ठा बढ़ गई.
जब 1664 ई. में शिवाजी ने सूरत के प्रसिद्ध मुगल बन्दरगाह को लूट लिया तब औरंगजेब ने अपने सबसे योग्य सेनानायक आमेर के कछवाहा राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा.
मिर्जा राजा जयसिंह ने कूटनीति एवं सैनिक शक्ति के बल पर शिवाजी के अनेक किलों को जीत लिया तथा अन्त में शिवाजी को पुरन्दर के किले में चारों ओर से सन्धि करने पर विवश कर दिया. शिवाजी और जयसिंह के मध्य जून 1665 ई. में ‘पुरन्दर की सन्धि' हुई जिसके अनुसार, शिवाजी 4 लाख हूण वार्षिक आय वाले किले मुगलों को देना स्वीकार कर लिया तथा बालाघाट इलाके के बदले 40 लाख हूण देना भी स्वीकार कर लिया. इसके साथ ही शिवाजी ने अपने पुत्र शम्भाजी के साथ आगरा जाना भी स्वीकार कर लिया.
शिवाजी ने 1666 ई. में आगरा की यात्रा की जहाँ दरबार में शिवाजी के साथ औरंगजेब का व्यवहार संतोषजनक नहीं रहा. इस पर शिवाजी ने अपना रोष व्यक्त तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, परन्तु शिवाजी कैद से भाग कर दक्षिण लौट गए और मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा. उन्होंने अपने सभी किले मुगलों से छीन लिए तथा रायगढ़ में 1674 ई. में अपना राज्याभिषेक करवाया तथा औरंगजेब चाहकर भी उनका दमन नहीं कर सका और 1680 ई. में उनकी मृत्यु हो गई.
शिवाजी की मृत्यु के बाद उनका पुत्र 'शम्भाजी' 1680 ई. में शासक बना वह शिवाजी जितना योग्य नहीं था. मराठों का दमन करने के लिए औरंगजेब अब स्वयं दक्षिण आ गया था. 1689 ई. में औरंगजेब ने संगमेश्वर नामक स्थान पर अचानक धावा बोलकर शम्भाजी को उनके मन्त्रियों सहित गिरफ्तार कर लिया और उन्हें अपमानित कर उनकी हत्या कर दी. शम्भाजी की हत्या के बाद मुगलों का अधिकार महाराष्ट्र पर हो गया तथा इसी के साथ मराठा इतिहास में 'स्वराज के लिए संघर्ष' का प्रादुर्भाव हुआ. अब मराठों ने राजाराम के नेतृत्व में मुगलों से छापामार लड़ाई प्रारम्भ कर दी तथा जिंजी, सतारा आदि स्थानों को अपना केन्द्र बनाकर वे मुगलों से लड़ते रहे.
1700 ई. में राजाराम की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ताराबाई ने मुगलों का प्रतिरोध जारी रखा और अनेक स्थानों पर अधिकार कर लिया तथा औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग करने के बाद भी मराठों के विरुद्ध सफल नहीं हो सका. अतः औरंगजेब उनसे सन्धि करने को विवश हो गया. मराठों ने शाहू को राजा बनाने एवं दक्षिण के छः क्षेत्रों से 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' वसूल करने की माँग की जिसे औरंगजेब के द्वारा ठुकरा दिया गया.
1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गई तब नए शासक बहादुरशाह ने शाहू को मराठों का नेता स्वीकार कर लिया और मुगल-मराठा संघर्ष समाप्त हो गया.
मुगलों एवं मराठों के मध्य चलने वाले इस लम्बे संघर्ष ने दक्षिण की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया, मुगल राज्य की नींव को खोखली बना दिया और मराठा स्वतन्त्रता संग्राम ने औरंगजेब की कमर तोड़ दी और बहीं उसकी कब्रगाह भी बन गई.
> क्या औरंगजेब की नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थीं
इतिहासकार लेनपूल के अनुसार, “मुगल साम्राज्य के पतन के लिए औरंगजेब ही मुख्य रूप से उत्तरदायी था. उसकी नीतियों ने मुगल साम्राज्य में विद्रोहों का ताँता लगा दिया तथा प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था नष्ट कर दी. एक शासक रूप में वह पूर्णतया विफल रहा और उसका पूरा जीवनकाल संघर्षों से भरा रहा."
उपर्युक्त कथन के अनुसार, औरंगजेब मुगल साम्राज्य के पतन के लिए पूर्णतया उत्तरदायी ठहरता है, लेकिन यह एकपक्षीय दृष्टिकोण प्रतीत होता है. मुगल साम्राज्य के पतन के लिए वह पूर्णतया उत्तरदायी नहीं था.
औरंगजेब एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति था, लेकिन उसकी कुछ नीतियों ने अवश्य ही मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को आरम्भ किया. उसकी धार्मिक नीति ने बहुसंख्यक हिन्दुओं को, जो मुगल राज्य का आधार स्तम्भ थे, नाराज कर दिया. वे औरंगजेब को केवल मुसलमानों का ही सम्राट मानने लगे. धर्म के आधार पर ही सिखों, जाटों सतनामियों, मराठों और दक्षिण की शिया रियासतों ने भी औरंगजेब का विरोध किया. उसकी मृत्यु के समय तक अनेक स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना के प्रयास हुए. अकबर की 'सुलह-ए-कुल' की नीति का अनुसरण न कर तथा हिन्दुओं पर जजिया कर लगाकर उसने बड़ी भारी भूल की तथा राजपूतों को विरोधी बनाकर उसने महत्वपूर्ण सेनानायकों को खो दिया.
औरंगजेब अनावश्यक रूप से लम्बे-लम्बे युद्धों में उलझा रहा इससे उसे बड़ी आर्थिक हानि उठानी पड़ी जिससे प्रशासनिक-तन्त्र की शिथिलता बढ़ी और राजकोष को पूरा करने के लिए जनता पर भारी कर लगाने पड़े. उसने जनहित के कार्य नहीं किए इससे उसने सामान्य जनता का भी समर्थन खो दिया.
मुगल साम्राज्य के पतन के लिए औरंगजेब की नीतियों के साथ ही उसका चरित्र भी कम उत्तरदायी नहीं है. वह एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था और कुरान के नियमों का पालन सभी लोगों से करवाना चाहता था जो सम्भव नहीं था. वह अत्यधिक शंकालु प्रकृति का था. अतः सारी शक्ति को उसने अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया. वह अपने सलाहकारों की बात भी नहीं सुनता था. फलतः उसके शहजादे अकबर ने विरोध कर दिया, जिसका दमन करने के प्रयास में उसने राजपूतों, सिखों एवं मराठों को अपना शत्रु बना लिया और जीवन भर उनसे जूझता रहा.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, औरंगजेब की नीतियों ने एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया जिससे कि मुगल साम्राज्य का संगठित रहना संदिग्ध हो गया. इसलिए उसकी मृत्यु के तुरन्त बाद नए स्वतन्त्र राज्यों की नींव पड़ी. हालांकि मुगलों के पतन के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे, परन्तु उसमें प्रमुख भूमिका का निर्वाह औरंगजेब की नीतियों ने किया.
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