विस्तार एवं संगठन–शेरशाह सूर एवं उसका प्रशासन
> द्वितीय अफगान साम्राज्य शेरशाह सूर
> शेरशाह के प्रारम्भिक जीवन का परिचय या फरीद से शेरशाह बनने तक
तारीख-ए-शेरशाही में शेरशाह के जीवन एवं कार्यों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है. शेरशाह के बचपन का नाम फरीद था. उसके पिता हसन खाँ गंगू थे तथा पितामह इब्राहिम खाँ सूर थे, जो मूलतः अफगानिस्तान के शेरगढ़ी इलाके के रहने वाले थे. लगभग 1452-53 ई. में सुल्तान बहलोल लोदी ने अफगानों को भारत आकर बसने को प्रेरित किया. अतः आने वाले अफगानियों के साथ इब्राहिम सूर भी रोजगार की तलाश में भारत गया.
सुल्तान सिकन्दर लोदी के समय जौनपुर के सूबेदार जमाल खाँ ने हसन खाँ के कार्यों से प्रसन्न होकर उसे सहसाराम, ख्वासपुर एवं हांड़ा की जागीरें दे दीं.
फरीद भी अपने पिता के साथ सहसाराम आ गया जहाँ उसके साथ उसकी सौतेली माता का व्यवहार ठीक नहीं रहा. इस पर वह पुनः जौनपुर आ गया और यहाँ उसने अरबी व फारसी का अध्ययन किया. उसकी प्रतिभा से सभी लोग प्रभावित थे. जौनपुर के सूबेदार जमाल ख़ाँ ने फरीद के पिता हसन को इस बात के लिए राजी कर लिया कि फरीद उसके प्रबन्ध का कार्य करे. अतः फरीद सहसाराम आ गया.
> जागीरदार फरीद
फरीद ने लगभग 21 वर्ष तक अपनी जागीर का प्रबन्ध किया. इस कारण उसे पर्याप्त रूप से प्रशासनिक शिक्षा एवं अनुभव प्राप्त हो गये. इस अवधि के दौरान उसने कृषकों, जमींदारों एवं मुकद्दमों से सीधा सम्पर्क साधा. विद्रोही जमींदारों पर नियन्त्रण स्थापित किया, कृषि एवं भू-राजस्व व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर दिया. फरीद ने मुकद्दम एवं अन्य हिन्दू पदाधिकारियों को जो समय पर कर नहीं चुकाते थे, राजकीय आज्ञा का पालन नहीं करते थे, उन्हें उसने कठोर दण्ड दिया. अतः उसकी जागीर की व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई.
> फरीद और इब्राहीम लोदी
फरीद अपनी सौतेली माता के व्यवहार से दुःखी होकर 1518 ई. में सुल्तान इब्राहीम लोदी के पास चला गया और उसके विश्वासपात्र दौलत खाँ की सहायता से उसने अपनी जागीर पुनः पाने का प्रयास किया, परन्तु उसे इब्राहीम लोदी द्वारा कोई सहायता नहीं मिली, लेकिन 1523 ई. में उसके पिता हसन खाँ की मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी ने फरीद को उसकी पूरी जागीर सौंप दी तथा फरीद ने वापस आकर जागीर के बँटवारे का प्रस्ताव रखा जिसे मानने से फरीद ने अपनी जागीर सँभाल ली. इस पर उसके सौतेले भाई ने इनकार कर दिया और वह दक्षिण बिहार के शासक बहार खाँ की सेवा में चला गया.
> बहार खाँ और फरीद
फरीद को बहार खाँ के साथ रहकर अपनी प्रतिभा को दिखाने का अवसर मिला. अपनी बुद्धिमानी एवं दूरदर्शिता के कारण उसने बहार खाँ पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया तथा बहार खाँ ने अपने छोटे पुत्र जलाल का उसे शिक्षक (अतालिक) नियुक्त कर दिया. एक दिन शिकार खेलते समय फरीद ने तलवार के एक वार से एक शेर को मार दिया. इससे प्रसन्न होकर बहार खाँ ने फरीद को ‘शेरखाँ' की उपाधि प्रदान कर दी, अब फरीद शेरखाँ कहा जाने लगा.
> बाबर और शेरखाँ
शेरखाँ ने एक बार पुनः भाग्य आजमाने के चक्कर में आगरा में जुनैद बरलास की सहायता से मुगल बादशाह बाबर के दरबार में प्रवेश किया तथा उसे मुगल सेना में भर्ती कर लिया गया. शेरखाँ ने मुगल सेना में रहते हुए मुगल सैनिकों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि भाग्य ने साथ दिया तो मुगलों को आसानी से हराकर भारत से बाहर किया जा सकता है. बाबर भी शेरखाँ से शंकित था तथा वह शेरखाँ पर नजर रखे हुए था. शेरखाँ ने बाबर के अनेक सैनिक अभियानों में सहायता दी. फलतः शेरखाँ को बाबर ने उसकी जागीर वापस कर दी.
> बिहार में शेरखाँ पुनः
शेरखाँ को जब यह अहसास हो गया कि उसका मुग़लों के साथ अधिक दिनों तक निर्वाह नहीं हो सकता तो वह 1528 ई. में पुनः बहार खाँ ( पूर्व संरक्षक) के पास चला. आया और फिर से जलाल खाँ का संरक्षक बन गया. बहार खाँ की मृत्यु के बाद वह जलाल खाँ की माता जो अल्पायु जलाल की संरक्षिका भी थी, का वकील (सलाहकार) नियुक्त हुआ. अब उसने अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ किया और सेना व प्रशासन में अपने आदमियों की नियुक्ति प्रारम्भ की. फलतः दक्षिण बिहार में उसका प्रभुत्व स्थापित हो गया और वह शासक बन बैठा.
इसी के बीच सुल्तान इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी ने बिहार पहुँचकर उसे बिहार के अफगानों का नेता मानकर बाबर से अन्तिम संघर्ष करने को आमन्त्रित किया. महमूद ने जलाल खाँ को अपने संरक्षण में लेकर दक्षिण बिहार का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया. अतः शेरखाँ पुनः सहसाराम चला गया. अब महमूद खाँ ने बाबर पर आक्रमण की योजना बनाई और अफगानों को मिलाकर चुनार के किले का घेरा डाल दिया, लेकिन बाबर ने तेजी से अफगानों, पर आक्रमण किया, इससे अफगानों की हार हो गई. महमूद भागकर बंगाल चला गया. शेरखाँ इस युद्ध में भाग लेते हुए भी अलग रहा तथा बाबर से इसने क्षमा माँग ली. इस पर बाबर ने जलाल खाँ को दक्षिणी बिहार का शासक एवं शेरखाँ को उसका सहायक मान लिया. इससे शेरखाँ की शक्ति और प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई और उसे दक्षिणी बिहार में अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया. 1530 ई. में शेरखाँ ने चुनार के किले पर अपना अधिकार जमा लिया और चुनार के भूतपूर्व गवर्नर ताजखाँ की विधवा लाड मलिका से अपना विवाह कर लिया इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा की ख्याति फैल गई और अब वह अफगानों का वास्तविक नेता बन गया.
> मुगल-अफगान संघर्ष : शेरखाँ से शेरशाह
जून, 1539 ई. को चौसा नामक स्थान पर हुमायूँ और शेरखाँ के मध्य हुए युद्ध में शेरखाँ ने हुमायूँ को पराजित कर दिया था. इस विजय के उपरान्त शेरखाँ ने अपनी उपाधि शेरखाँ से 'शेरशाह' रख ली और उसने कन्नौज या बिलग्राम के युद्ध (मई, 1540) के युद्ध के बाद 10 जून, 1540 को उसने-आगरा में हिन्दुस्तान की सत्ता सम्हाल ली तथा द्वितीय अफगान साम्राज्य की नींव रखी.
नोट–मुगल-अफगान संघर्ष का विस्तृत विवरण हुमायूँ और शेरखाँ नामक शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है.
> शेरशाह द्वारा पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा कैसे की गई?
शेरशाह ने हुमायूँ को बाहर खदेड़ देने के बाद एक दूरदर्शी शासक के रूप में अपनी बाहरी पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा के लिए ऐसा प्रबन्ध किया कि उसके जीवित रहते हुमायूँ, कामरान या मिर्जा हैदर आदि अफगान राज्य पर आक्रमण न कर सकें अपने इस उद्देश्य को सफल बनाने के लिए शेरशाह ने अग्रलिखित कार्य किये -
1. शेरशाह ने सर्वप्रथम भारत में प्रवेश के मार्ग पेशावर व बोलन पर अपना अधिकार जमाये रखने का प्रयास किया.
2. सीमा प्रान्त के उत्तरी भागों में धक्कड़ शासक सारंग मुगलों का मित्र था. अतः शेरशाह ने इनके गाँवों आदि को आक्रमण कर जला दिया तथा जिसको पाया, मार दिया की नीति अपनाई. इससे धक्कड़ दब गये.
3. शेरशाह ने इस क्षेत्र पर अपना स्थायी नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से एक नया दुर्ग 'रोहतासगढ़' बनवाया.
4. दक्षिणी भारत में बिलौची, अफगान तथा जाटों का बाहुल्य था तथा ये किसी के नियन्त्रण में रहना पसन्द नहीं करते थे, लेकिन जब शेरशाहं हुमायूँ का पीछा करता हुआ खुशआब पहुँचा तब बिलौची एवं अफगानों ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली. इस प्रकार शेरशाह का सिन्ध पर अधिकार हो गया.
5. शेरशाह ने इस क्षेत्र की सुरक्षा हेतु अपने योग्यतम सेना नायकों हैबत खाँ नियाजी, ख्वास खाँ, राय हुसैन जावाजी आदि की नियुक्ति की, लेकिन बाद में देखा कि लोग एक-साथ नहीं रह सकते, तब उसने अकेले हैबत खाँ नियाजी को रख दिया और उसे 'लाल छत्र' एवं ‘मसनद-ए-आला- आजम हुमायूँ' की पदवी दी तथा उसे 30,000 सैनिक रखने की अनुमति प्रदान की. हालांकि किसी अन्य प्रान्तीय शासक को इतनी बड़ी सेना रखने की अनुमति नहीं दी.
6. इसके साथ ही शेरशाह ने मुगल शत्रुओं के आन्तरिक • मामलों में हस्तक्षेप की भी चेष्टा की. इस प्रकार स्पष्ट है कि शेरशाह द्वारा इस क्षेत्र को चाक-चौबन्द कर देने के कारण मुगल भारत में प्रवेश न कर सके.
> शेरशाह और मालदेव के सम्बन्धों की समीक्षा
राणा सांगा की मृत्यु के बाद चित्तौड़ का प्रभाव राजपूताने में घट गया, तब मारवाड़ के मालदेव ने अपनी शक्ति एवं प्रभाव क्षेत्र का अत्यधिक विस्तार कर लिया और वह दिल्ली व आगरा के शासक शेरशाह को चुनौती देने की स्थिति में आ गया. अतः दोनों में युद्ध होना स्वाभाविक हो गया. दोनों के मध्य युद्ध होने के निम्नलिखित कारण थे –
1. मालदेव का राज्य बहुत अधिक विस्तृत था. उसके राज्य में आज के बीकानेर, जोधपुर और जयपुर के प्रदेश शामिल थे, साथ ही अजमेर एवं उत्तर का अरावली का पहाड़ी प्रदेश भी शामिल था. यदि शेरशाह अपना राज्य विस्तार राजपूताने में करना चाहता था तो उसे मालदेव से टक्कर लिए बिना पूरा नहीं कर सकता था.
2. मालदेव के विजय अभियान से बहुत से राजपूत सामन्त एवं राजे उसके शत्रु हो गये. इनमें दो प्रमुख व्यक्ति थे – (i) बीकानेर के मन्त्री नगराज, एवं (ii) मेड़ता के शासक वीरमदेव. ये दोनों मालदेव से नाराज होकर शेरशाह से सहायता लेने आगरा गये.
3. मालदेव से शेरशाह स्वयं नाराज था, क्योंकि मालदेव ने हुमायूँ को अपने यहाँ शरण देने के लिए आमन्त्रित किया था और यदि हुमायूँ मालदेव की शरण लेता तो मालदेव हुमायूँ की ओर से शेरशाह से टक्कर लेता.
स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में मालदेव एवं शेरशाह के मध्य युद्ध होना अनिवार्य हो गया.
> सामेल का युद्ध (1544 ई.)
शेरशाह ने लगभग 80,000 घुड़सवार, हाथी और तोपखाने के साथ मालदेव के विरुद्ध लेकर चला. और सामेल तक वह निर्विरोध पहुँच गया. उसकी सहायता के लिए वीरमदेव और नगराज भी आ मिले, लेकिन फिर भी शेरशाह की मालदेव पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं पड़ी, क्योंकि शेरशाह को इस युद्ध में अपनी पराजय का खतरा था. इस पर शेरशाह ने कूटनीति से काम लिया और उसने अपने आदमियों द्वारा मालदेव के खेमे में गुमनाम पत्र डलवा दिये जिसमें लिखा था कि, “वे लोग शेरशाह के आने से बहुत प्रसन्न हैं तथा युद्ध के समय मालदेव को पकड़कर शेरशाह के हवाले कर देंगे." ये पत्र जब पकड़े गये तो मालदेव को अपने साथ विश्वास घात होने की आशंका उत्पन्न हो गई. इस पर वह पीछे लौटने की तैयारी करने लगा. राठौर सामन्तों के विरोध के बावजूद भी मालदेव का अब लड़ने का साहस नहीं रहा और वह सामेल से भाग गया.
मालदेव के भागने के बाद उसके दो सामन्तों कूँपा और जैता ने लगभग 20,000 हजार सिपाहियों के साथ अन्धेरी पर आक्रमण कर दिया. उनका आक्रमण इतना तीव्र था कि शेरशाह बड़ी कठिनाई से उन्हें पराजित कर सका और विजय के बाद शेरशाह ने कहा कि, “अरे मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत खो बैठता."
अब शेरशाह ने मालदेव का पीछा किया और अजमेर, जोधपुर, नागौर, मेड़ता आदि स्थानों पर शेरशाह का अधिकार हो गया तथा मालदेव को भागने व पछताने के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगा.
> सूरवंश के पतन के कारण
सूरवंश का शासनकाल मात्र सन् 1540 से 1545 ई. तक, अर्थात् 15 वर्षों तक रहा. शेरशाह ने अपने शासन के 5 वर्षों के दौरान राज्य की स्थिति को सुदृढ़ करने के अनेक प्रयास किये, इसके बावजूद भी भारत में इस वंश का शीघ्रता से पतन हो गया, जिसके निम्नलिखित कारण थे—
1. अफगान लोग स्वभाव से ही स्वतन्त्रता प्रिय होते हैं. इसके साथ ही इनमें अहंकार, उत्तराधिकार के नियमों का अभाव था. शेरशाह ने अपने योग्यतम पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर बहुत बड़ी गलती की. परिणाम यह हुआ कि सूर साम्राज्य में गृह युद्ध उत्पन्न हो गया.
2. सूर साम्राज्य के गृह युद्ध से पंजाब, मालवा, राजपूताना आदि क्षेत्रों में विद्रोह होने लगे तथा ये क्षेत्र स्वतन्त्र होने का प्रयास करने लगे.
3. सूर साम्राज्य के आन्तरिक विद्रोहों के कारण ही हुमायूँ को पुनः भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला.
4. इस्लामाबाद ने योग्यतम अधिकारियों के स्थान पर अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जिससे प्रशासन-तन्त्र ढीला पड़ गया.
5. इस्लामशाह के उत्तराधिकारी अत्यन्त दुर्बल एवं बुद्धिहीन थे. अतः इससे उनमें आन्तरिक कलह उत्पन्न हो गया और हुमायूँ ने पुनः अपनी सत्ता परिस्थितियों का लाभ उठाकर प्राप्त कर ली.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सूर साम्राज्य के पतन में एक से अधिक कारणों ने मिलकर अपना योगदान किया जिससे उसका अत्यन्त कम समय में पतन हो गया.
> शेरशाह के केन्द्रीय प्रशासन का विवरण (Central Administrations)
भारतीय इतिहास में शेरशाह न केवल एक विजेता एवं कुशल सेनानायक के रूप ही विख्यात है, बल्कि उसकी गणना एक सक्षम प्रशासक के रूप में की जाती है. उसने अपने लिए न केवल एक बड़े राज्य की स्थापना की, बल्कि उसने अपने राज्य में सशक्त प्रशासनिक व्यवस्था भी लागू की. 'तारीख-ए-शेरशाही' के लेखक अब्बास खाँ सखनी ने शेरशाह की प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया है.
> शेरशाह की प्रशासनिक व्यवस्था में स्वयं की स्थिति
राज्य की समस्त शक्तियाँ शेरशाह के हाथों में ही केन्द्रित थीं. वह शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी था. वह कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सैनिक मामलों का प्रधान था. राज्य के समस्त कर्मचारी अपने कार्यों के लिए शेरशाह के प्रति उत्तरदायी थे. शेरशाह ने अपनी असीमित और अनियन्त्रित शक्ति के होते हुए भी उसने ‘उदार तानाशाह' (Benevolent Despot) के समान अपना आदर्श रखा था. उसने अपने कार्य प्रजा की भलाई के लिए किया. प्रो. अवधबिहारी पाण्डेय के अनुसार, “शेरशाह ने प्रजातांत्रिक आधार पर निरंकुशता स्थापित की. उसकी निरंकुशता को अफगान सरदारों का समर्थन प्राप्त था." शेरशाह ने अपनी योग्यता और क्षमता के बल एक प्रभावशाली शासन व्यवस्था का गठन किया उसके समय में प्रशासन निम्नलिखित भागों में बँटा हुआ था, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
(i) दीवान-ए-विजारत—यह शेरशाह का सबसे महत्वपूर्ण विभाग था, जो तुर्ककालीन वजीर से मिलता-जुलता था. यह राज्य की आय-व्यय का हिसाब रखता था तथा अन्य विभागों के कार्यों का निरीक्षण करता था. शेरशाह स्वयं इस विभाग के कार्यों में रुचि लेता था.
(ii) दीवान-ए - आरिज — इस विभाग के प्रधान को ‘आरिज-ए-ममालिक' कहा जाता था, जो सैन्य-विभाग का प्रमुख होता था. सैन्य संगठन, सैनिकों की नियुक्ति, उनका वेतन, रसद इत्यादि की व्यवस्था करना इसका प्रमुख कार्य था, शेरशाह इस विभाग पर नियन्त्रण रखने के लिए स्वयं इसकी समय-समय पर जाँच किया करता था.
(iii) दीवान-ए-रसालात — यह विभाग 'दीवान-ए-मोहतासिब' कहलाता था. यह विदेशी दूतों का स्वागत करना, उनके ठहरने की व्यवस्था करना एवं आवश्यकतानुसार दूतों को विदेशों में भेजने के लिए उत्तरदायी था. अन्य राज्यों से कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने, पत्र-व्यवहार करने आदि का कार्य भी यह विभाग करता था.
(iv) दीवान-ए-ईन्सा– इस विभाग का कार्य राजकीय घोषणाओं को तैयार करना, उन्हें प्रसारित करने, प्रान्तीय गवर्नरों एवं स्थानीय पदाधिकारियों से पत्र-व्यवहार करने की जिम्मेदारी थी. यह विभाग राज्य के अभिलेखागार के रूप में भी कार्य करता था. राज्य में होने वाली घटनाओं की सूचना सुल्तान तक पहुँचाने का कार्य भी इसी विभाग के पास था.
(v) दीवान-ए-कजा – यह न्याय का विभाग था तथा मुख्य काजी इस विभाग का प्रधान था तथा मुख्य न्यायाधीश की हैसियत से यह राज्य में न्याय की व्यवस्था करने के प्रति उत्तरदायी था.
(vi) दीवान-ए-बरीद—यह गुप्तचर विभाग था तथा इसका प्रधान 'बरीद-ए-ममालिक' था. राज्य में घटने वाली प्रत्येक घटना के बारे में यह विभाग सुल्तान को सूचना देता था. इस विभाग के अधीन अनेक गुप्तचर थे, जो राज्य में विभिन्न स्थानों पर नियुक्त थे.
इन महत्वपूर्ण विभागों के अतिरिक्त केन्द्रीय प्रशासन से सम्बद्ध अन्य किसी पदाधिकारी का नाम नहीं मिलता. परन्तु अवश्य ही इसके अतिरिक्त सुल्तान के महल, उसकी व्यक्ति गत सम्पत्ति, सुरक्षा एवं निजी सेवा के लिए पदाधिकारी रहे होंगे.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, शेरशाह किसी सुदृढ़ केन्द्रीय शासन व्यवस्था की स्थापना नहीं कर सका, बल्कि उसने तुर्की सल्तनत के समय से चली आ रही व्यवस्था में ही आवश्यक संशोधनों एवं परिवर्तनों के साथ लागू किया. उसने नए विभागों का सृजन नहीं किया, उसके प्रबन्धक विभाग और उप-विभाग प्राचीन व्यवस्था पर ही आधारित थे. उसकी सैनिक व्यवस्था अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक-व्यवस्था से प्रभावित थी. उसकी भू-राजस्व नीति भी मौलिक नहीं कही जा सकती.
वास्तव में शेरशाह के प्रशासन का महत्व इस बात में निहित है कि, उसने प्राचीन संस्थाओं एवं व्यवस्था को बनाए रखते हुए अपनी मौलिक प्रशासकीय नीतियों द्वारा नवीन स्वरूप प्रदान किया और ज्यादा प्रभावशाली बनाया. इस प्रकार शेरशाह एक व्यवस्था निर्माता नहीं, बल्कि एक व्यवस्था सुधारक था.
> शेरशाह : प्रान्तीय शासन (Provincial Administration)
शेरशाह के प्रान्तीय शासन व्यवस्था के विषय में हमें अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती है. अतः विभिन्न विद्वानों ने उसकी प्रान्तीय शासन-व्यवस्था के विषय में अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए हैं. डॉ. कानूनगो के अनुसार, “शेरशाह प्रान्तीय शासन-व्यवस्था रखना ही नहीं चाहता था. वह केन्द्र व परगना के बीच सरकार के अतिरिक्त अन्य किसी प्रशासनिक इकाई को नहीं रखना चाहता था. हालांकि उसने सैनिक आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ अस्थायी प्रान्तों जैसे—बंगाल, मालवा, राजपूताना एवं पंजाब आदि राज्यों का गठन किया. इसके बावजूद सभी राज्यों में शेरशाह एक जैसी शासन-व्यवस्था का गठन शेरशाह नहीं कर पाया.” लेकिन ठीक इसके विपरीत डॉ. परमात्माशरण लिखते हैं कि, शेरशाह का राज्य विभिन्न प्रान्तों में विभक्त था और उनका प्रशासन सैनिक अधिकारी प्रान्तपति की हैसियत से चलाते थे, सरकार वस्तुतः प्रान्तीय इकाई ही थे. उदाहरणस्वरूप— बंगाल की विजय के बाद खिज्र खाँ को उसका गवर्नर नियुक्त किया गया, किन्तु बाद में उसे शिकों में विभाजित कर शिकदारों की नियुक्ति की गई और इन सभी शिकदारों को 'अमीन-एबंगाल' के अधीन कर दिया गया, जो बंगाल का गवर्नर था." डॉ. आशीर्वादीलाल दिल्ली सल्तनत के अनुसार, शेरशाह के साम्राज्य को 'इक्ताओं में बँटा हुआ स्वीकार करते हैं, जिनमें सैनिक अधिकारी शासन करते थे." इस प्रकार कहा जा सकता है कि, शेरशाह ने अपने राज्य को क्षेत्रफल के आधार पर अनेक भागों में बाँटा और उस पर अपना कड़ा नियन्त्रण बनाए रखा.
> प्रान्तीय पदाधिकारी
हाकिम, अमीन, फौजदार आदि भिन्न-भिन्न नामों से प्रान्तों के अधिकारी जाने जाते थे तथा इन सभी की स्थिति एकसमान नहीं थी. पंजाब के प्रान्तपति को 'मसनद - ए - आली' की उपाधि दी गई तथा वह 30,000 सैनिक रख सकता था. इसी प्रकार बंगाल के गवर्नर ख्वास खाँ और शुजात खाँ को, जो राजपूताना एवं बंगाल के गवर्नर थे, उन्हें 20000 व 12,000 सैनिक रखने की अनुमति दी गई थी. इस व्यवस्था के कारण कुछ प्रान्तों के गवर्नर अधिक शक्तिशाली हो गए और शेरशाह की मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता के प्रयास प्रारम्भ कर दिए. कहीं-कहीं पर शेरशाह ने नायब गवर्नर की भी नियुक्ति की, जो गवर्नर के कार्यों में सहायता दिया करते थे. ये सभी सैनिक अधिकारी थे, जो अपने अधीनस्थ प्रशासकीय कर्मचारियों की सहायता से प्रशासन संचालित किया करते थे.
> शेरशाह : स्थानीय प्रशासन (Local Administration)
शेरशाह के स्थानीय प्रशासन की मुख्य विशेषता पूरे राज्य में एकरूपता का होना था. उसके समय में प्रान्तों को सरकार, परगना एवं ग्राम में विभाजित किया गया था तथा विभिन्न पदाधिकारियों द्वारा इनका प्रशासन चलाया जाता था, जिनका विवरण निम्नलिखित है—
(i) सरकार का प्रशासन– शेरशाह का सम्पूर्ण राज्य सरकारों (जिले) में बँटा हुआ था जिनकी संख्या प्रान्त के क्षेत्रफल के अनुसार घटती-बढ़ती रहती थी. सरकार के प्रशासन के लिए दो प्रमुख अधिकारी थे – (i) शिकदार-एशिकदारान एवं (ii) मुसिफ-ए-मुंसिफान.
‘शिकदार-ए-शिकदारान' अपने अधीन शिकदारों के कार्यों का निरीक्षण एवं शिक के अन्दर शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करता था.. इसके अतिरिक्त वह सरकारी कानूनों का पालन करवाने, शिकदारों के अनुचित कार्यों की शिकायत सूबेदारों के पास करने व फौजदारी मामले निपटाने का कार्य भी करता था. वास्तव में उसका पद एक सैनिक अधिकारी के समान था तथा उसे 5,000 तक सैनिक रखने की छूट होती थी.
'मुंसिफ-ए-मुसिफान' प्रमुख न्यायाधीश की तरह शिक में कार्य करता था, इसके अतिरिक्त वह अमीनों के कार्यों की देखभाल तथा उनके निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करता था.
शेरशाह की यह एक बड़ी चतुराई थी कि, उसने शिक के अन्दर दो एकसमान अधिकारियों की नियुक्ति कर दोनों को एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखने का अवसर प्रदान किया.
इन अधिकारियों के अतिरिक्त एक शिक में 'फौजदार' होता था, जो 'शिकदार-ए-शिकदारांन' के अधीन कार्य करता था. इसके अतिरिक्त एक शिक में अनेक लिपिक व अन्य छोटे पदाधिकारी रहते थे. जो प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने में मदद करते थे.
(ii) परगना का शासन — शेरशाह के राज्य में 'शिक' से छोटी इकाई ‘परगना’ थी जिसके प्रशासन के लिए शिकदार, फोतदार, कारकून एवं अमीन की नियुक्ति की जाती थी. परगने का सर्वोच्च अधिकारी 'शिकदार' होता था, जिसका प्रमुख कार्य परगने में शान्ति व्यवस्था को बनाए रखने एवं राजस्व वसूलने का था. वह न्याय सम्बन्धी कार्यों को भी करता था तथा उसके पास सैनिक भी होते थे.
परगने में शिक़दार के समकक्ष ही 'मुंसिफ' नामक अधिकारी होता था वह परगने की समस्त भू-व्यवस्था का नियन्त्रक था. इस हैसियत से वह भूमि सम्बन्धी सभी विवादों को सुनता था. 'फोतेदार' परगने का कोषाध्यक्ष तथा परगने का राजस्व उसी के पास जमा होता था. यह परगने की आय-व्यय का भी ब्यौरा रखता था. प्रत्येक परगने में एक फारसी तथा एक हिन्दी भाषा के कारकून (क्लर्क) होते थे, जो भूमि सम्बन्धी व आय-व्यय सम्बन्धी सभी प्रकार के दस्तावेज तैयार करते थे. शेरशाह विद्रोहों को न पनपने देने के लिए प्रति दो वर्ष बाद शिकदारों एवं अमीनों का स्थानान्तरण कर देता था तथा स्वयं परगने के कार्यों पर नियन्त्रण रखता था.
> ग्राम प्रशासन
के शेरशाह के प्रशासन की सबसे छोटी इकाई 'ग्राम' थे, जिसमें स्थानीय तत्वों को विशेष महत्व दिया गया था. ग्राम प्रशासन का प्रधान 'मुखिया' था, जोकि सरकारी पदाधिकारी नहीं था, परन्तु उसे प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. मुखिया, पटवारी, मुकद्दम एवं चौकीदार की सहायता से अपने गाँव में शान्ति स्थापित करने, लगान वसूलने, अपराधों की रोकथाम करने और अपराधियों को दण्डित आदि करने का कार्य करता था. शेरशाह की यह व्यवस्था थी कि, अगर गाँव में कोई अपराध करता और पकड़ में नहीं आता, तो मुखिया को दण्डित किया जाता था. शेरशाह की इस व्यवस्था से ग्रामों में पूर्णरूपेण शान्ति व्यवस्था की स्थापना हो गई.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, शेरशाह ने केन्द्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की, जिससे उसके काल में निरन्तर शान्ति व्यवस्था बनी रही.
> शेरशाह द्वारा राजस्व व्यवस्था में किए गए सुधार (Revenue Reforms)
शेरशाह द्वारा भू-राजस्व व्यवस्था एवं कृषि में सुधार के अनेक उपाय किए गए. उसके इन सुधारों को लागू करने का उद्देश्य यह था कि, इससे न तो राज्य को हानि हो और न ही किसानों का शोषण हो अर्थात् किसान व राज्य लिए दोनों को लाभ पहुँचाने के लिए शेरशाह ने अपने सुधार लागू किए.
शेरशाह ने अपने लगान की राशि तय करने के लिए समस्त राज्य की भूमि की पैमाइश करवाकर उसे उत्तम, मध्य और निम्न श्रेणियों में विभाजित किया तथा प्रति बीघा औसत पैदावार निश्चित की तथा उपज का 1/3 भाग लगान के रूप में निश्चित किया.
शेरशाह ने उपज की दरों को निश्चित करने के लिए एक अलग प्रणाली 'टाय' निकाली. जिसके अनुसार अलगअलग फसलों की अलग-अलग दर निश्चित की गई. इस प्रकार उसकी लगान-व्यवस्था ‘बीघेवार एवं जिसवार' पद्धति पर आधारित हो गई. किसानों को अपना राजस्व नकद या अनाज के रूप में जमा करवाने की छूट थी, लेकिन सरकार लगान नकद रूप में ही वसूल करना ज्यादातर पसन्द करती थी तथा वर्ष में दो बार लगान वसूल करती थी. किसानों को लगान के अतिरिक्त दो अन्य कर (i) जरीबाना (भूमि की नाप के लिए) एवं (2) महसीलाना ( लगान के कर्मचारियों के वेतन के लिए) भी देना पड़ता था. यह कुल उपज की 22% से 5% तक होती थी.
शेरशाह ने प्राकृतिक विपदा के समय किसानों को मदद देने के लिए सुरक्षित सहायता कोष की स्थापना की थी, जिसमें प्रति बीघा 200 बहतोली टका के हिसाब से किसानों को प्रति वर्ष जमा करना पड़ता था.
शेरशाह के समय में पैमाइश और रायं निर्धारित करने के अतिरिक़्त लगान निर्धारण की पुरानी पद्धतियाँ जैसे—लंक बटाई, रास बटाई, खेत बटाई एवं जब्ती प्रणाली भी उसके राज्य के अलग-अलग भागों में प्रचलित थी. इस व्यवस्था के अतिरिक्त शेरशाह ने किसानों की सुरक्षा के लिए अनेक उपाय किए. उसने अपने लगान वसूलने वाले अधिकारियों को किसानों को परेशान नहीं करने के आदेश दिए. उसका स्पष्ट आदेश था. कि लगान वसूलते समय कर्मचारी उदारता का व्यवहार करें. सैनिकों को भी यह आदेश दिया गया था कि, वे मार्ग में पड़ने वाली फसलों को नुकसान नहीं पहुँचाए.
शेरशाह ने अपने राज्य के प्रत्येक किसान को पट्टा जारी किया जिसमें निर्धारित लगान का विवरण लिखा रहता था. किसानों से इसकी ‘कबूलियत' लिखवाई जाती थी. प्रत्येक गाँव का पटवारी राजस्व से सम्बन्धित दस्तावेज अपने पास रखता था. 'खालसा भूमि से लगान वसूली का कार्य राजकीय कर्मचारी पटवारी एवं मुकद्दम की सहायता से करते थे. अन्य जगहों पर इसके लिए स्थानीय जमींदार उत्तरदायी थे.
इन सारे सुधारों के बावजूद शेरशाह की लगान-व्यवस्था में अनेक त्रुटियाँ थीं. इस व्यवस्था में उत्तम श्रेणी की भूमि वाले को सबसे कम तथा निम्न श्रेणी की भूमि वाले को सबसे अधिक लगान देना पड़ता था. इसके अतिरिक्त भी किसानों पर अन्य बहुत से करों का बोझ लाद दिया गया. पूरे राज्य में किसानों दोनों को परेशानी होती थी. उसकी लगान-व्यवस्था एकसमान लगान-व्यवस्था लागू न होने से कर्मचारियों एवं की सबसे बड़ी कमजोरी उसके द्वारा सिंचाई की समुचित व्यवस्था न करना था.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था अपने समय में प्रचलित व्यवस्था से काफी भिन्न थी, इसमें किसानों के हितों की रक्षा के लिए अनेक उपाय किए गए थे. उसकी लगान-व्यवस्था का महत्व इस बात में है कि, उसने लगान की दरों को निश्चित किया, किसानों और राज्य के अधिकारों के साथ उनके कर्त्तव्यों के साथ उनके कर्त्तव्यों को निश्चित किया तथा दोनों के मध्य ताल-मेल की स्थापना की.
> शेरशाह द्वारा किये गए आर्थिक सुधारों का मूल्यांकन (Economic Reforms)
शेरशाह ने अपने आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत दो महत्वपूर्ण कार्य किए; यथा (1) मुद्रा-व्यवस्था में सुधार, व (2) व्यापार को प्रोत्साहन.
(1) मुद्रा-व्यवस्था में सुधार – शेरशाह द्वारा राज्य की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए व पूरे राज्य मुद्राव्यवस्था में एकरूपता लाने के लिए प्राचीन सिक्कों को बन्द कर उनके स्थान पर नए सिक्के निश्चित अनुपात में विभिन्न धातुओं के ढलवाए. उसने शुद्ध चाँदी का 'रुपया' तथा ताँबे का 'दाम' चलवाया.
शेरशाह का चाँदी का सिक्का जो रुपया कहलाता था. यह '180 ग्रेन' का होता था. इसमें 175 ग्रेन शुद्ध चाँदी की मात्रा होती थी. उसने 167 ग्रेन सोने की 'अशर्फी' का भी प्रचलन करवाया. इन मुख्य सिक्कों के अतिरिक्त शेरशाह ने चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों के मूल्य के आधे, चौथाई, आठवें एवं 16वें भाग के छोटे सिक्के भी जारी किए. इन सिक्कों पर शेरशाह का नाम व प्रथम चार खलीफाओं के नामों का उल्लेख रहता था.
शेरशाह के इन मुद्रा सुधारों ने उसके पूरे साम्राज्य में मुद्रा-व्यवस्था में एकरूपता ला दी, जिससे व्यापार वाणिज्य को बल मिला.
(2) व्यापार को प्रोत्साहन–शेरशाह ने व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक कदम उठाए. इस हेतु उसने सर्वप्रथम सड़कों एवं सरायों की मरम्मत करवाई, जिससे कि राज्य के दूरस्थ हिस्सों में भी आवागमन सरलता से हो सके. उसने 'प्राचीन राजमार्ग' (ग्राण्ड ट्रंक रोड) की मरम्मत कराकर उसे आवागमन के योग्य बना दिया. इसके अतिरिक्त उसने आगरा, माण्डु, जोधपुर, चित्तौड़ होकर गुजरात जाने वाली सड़कों का भी निर्माण करवाया. इससे उसके पूरे राज्य में सड़कों का जाल फैल गग्रा और आवागमन में अत्यधिक सुगमता हो गई और व्यापार का विकास हुआ.
शेरशाह ने व्यापार पर लगाई जाने वाली चुंगियों को हटा दिया तथा केवल दो स्थानों पर चुंगी वसूलने की व्यवस्था कराई. व्यापारियों से राज्य में प्रवेश करते समय और बाजार में सामान बेचते समय ही चुंगी वसूल की जाती थी. इससे व्यापारियों के लाभ की मात्रा बढ़ गई. शेरशाह ने वस्तुओं के मूल्य निश्चित किए तथा व्यापारियों को निश्चित दरों पर माल बेचने को कहा. निश्चित माप-तौल के बाट - बटखरों का प्रयोग करने को कहा गया तथा सामान में मिलावट करने वालों और कम तौलने वाले व्यापारियों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया. व्यापारियों के
इस प्रकार स्पष्ट है कि, जहाँ शेरशाह ने हितों की रक्षा के लिए उपाय किए वहीं वह उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने में भी सफल रहा.
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