भारतीय राजनीति का संक्रमण काल (द्वितीय चरण )
1. भारतीय राजनीति का संक्रमण काल (द्वितीय चरण) (1916 ) (मार्च ) - 1998 (मार्च )
1996 के आम चुनाव परिणाम के बाद एक बार फिर भारत की राजनीति का संक्रमण काल आरंभ हो गया। यह संक्रमण 1998 के मार्च तक प्रखर स्तर पर रहा। वास्तव में यह संक्रमण वास्तविक रूप में 1999 के अक्टूबर तक रहा जब तक कि अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में NDA गठबंधन को बहुमत न मिल गया परन्तु 1998 के मार्च में अटल जी की सरकार बनी इसीलिए यहां 1996 से 1998 के संक्रमण की चर्चा इस शीर्षक में करेंगे।
1996 के आम चुनाव में कांग्रेस पहली बार दूसरे नम्बर का दल हुआ। भारतीय जनता पार्टी को 161 सीटें मिली और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में में इसका पदार्पण हुआ। कांग्रेस को सिर्फ 140 सीटें मिली। अब यह महत्वपूर्ण था कि सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया जाए या नहीं। इसके पीछे कारण यह था कि 1996 में भी भाजपा के साथ दो ही दल मुख्य रूप से गठबंधन में थे परन्तु समता पार्टी के आ जाने से एक आत्म विश्वास पैदा हुआ था परन्तु उसके पास दो ही सांसद थे। भाजपा, शिव सेना, आवासीय दल, समता पार्टी मिलकर सामूहिक रूप से भी 272 की जादूई संख्या पर नहीं पहुंचते थे ।
भाजपा को उस समय भी साम्प्रदायिकता के नाम पर एक अछूत पार्टी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के द्वारा समझा जाता था। सही रूप में ये दल अधिकतर कांग्रेस के निकाले नेता के द्वारा बने थे या वे थे जो क्षेत्रीय स्तर पर अपना प्रभाव रखते थे। तेलुगु देशम पार्टी, वामपंथी दल, मुपनार कांग्रेस इत्यादि जैसे दलों के द्वारा अच्छी सीटें जीती गई थी। परंतु तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ने सबसे बड़े दल के नेता अटल बिहारी बाजपेयी को शपथ लेने का आमंत्रण दिया। 16 मई 1996 को अटल बिहारी बाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई आज के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि एक गैर कांग्रेसी नेता प्रधानमंत्री बना।
1977 में मोरारजी देसाई भी कांग्रेस का विरोध कर ही प्रधानमंत्री बने थे परंतु वह भी एक कांग्रेसी ही थे। अटल जी का राजनीतिक गोत्र कभी कांग्रेसी का नहीं था।
अटल बिहारी बाजपेयी का राजनीतिक सफर बेदाग तथा निष्कलंक था। उनका व्यवहार तथा राजनीतिक अनुशासन अतुलनीय था। 1977-79 के बीच अटल जी भारत के विदेश मंत्री रह चुके थे। उन्होंने विदेश मंत्री के रूप में अच्छे कार्य किए थे। 40 वर्षों से अधिक समय तक संसद में सदस्य के तौर पर रहने का उनको अनुभव था। 1995 में मुम्बई में हुए भाजपा के राष्ट्रीय कार्य परिषद् की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। कहा जाता है कि इस घोषणा के पहले अटल जी को सूचना नहीं दी गयी थी। फिर भी अटल जी के नेतृत्व में 1996 के चुनाव में भाजपा को सबसे अधिक सीटें मिलना एक ऐतिहासिक घटना थी।
16 मई को राष्ट्रपति महोदय ने अटल जी को शपथ दिलाकर संसद में 13 जून के अन्दर विश्वास मत प्राप्त करने को कहा। अटल जी एक प्रधानमंत्री के रूप में सिर्फ 13 दिन ही रह पाए। 31 मई को विश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए उन्होंने अपने आप को एक ऐसा नेता बताया जिसे सत्ता तथा विपक्ष दोनो एक समान रूप में दिखता है। उन्होंने कहा "मेरे लिए सत्ता का सहवास तथा विपक्ष का वनवास एक समान है। सरकारें आती रहेंगी, जाती रहेंगी पर ये देश रहना चाहिए, देश का जनतंत्र रहना चाहिए" दो दिनों की बहस के बाद अटल जी को लगा कि संख्या बल उनके पक्ष में नहीं है तो मतदान के पहले ही उन्होंने सदन में इस्तीफे की घोषणा कर दी।
अटल जी का त्यागपत्र भारतीय राजनीति में एक ऐसे काल को न्योता दे रहा था जिसमें पहली 94 क्षेत्रीय दलों की मिली-जूली सरकार बनती दिखाई दी तथा फिर वहीं कांग्रेस का बाहरी- समर्थन मिलना आवश्यक होता। यह दो बार पहले देखा जा चुका था जब 1779-80 में चौधरी चरण सिंह अल्पकाल के लिए कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे।
वहीं दूसरी बार 1990 के अंत में चन्द्रशेखर जी के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनी। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये दोनों प्रधानमंत्री सबसे कम दिनों तक प्रधानमंत्री रहे थे तथा चौधरी चरण सिंह तो प्रधानमंत्री के रूप में संसद में बैठ भी नहीं पाए थे।
अटल जी के त्याग पत्र देने के बाद क्षेत्रीय दलों की बैठकें कई बार हुई। आखिर 13 क्षेत्रीय दलों ने मिलकर ‘संयुक्त मोर्चा' का निर्माण किया। इस संयुक्त मोर्चे में लगभग अधिकतर राज्यों के क्षेत्रीय दल तथा वामपंथी दल भी शामिल थे। डी.एम.के. जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, असम गण परिषद, मुपनार कांग्रेस, तेलगु देशम पार्टी, समाजवादी पार्टी, जैसे दल इसमें शामिल थे। साथ ही भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी भी इसमें शामिल थी। संयुक्त मोर्चे का नेता कौन हो? इस मुद्दे पर कई दिनों तक रहस्य रहा। वी.पी. सिंह जी को भी प्रस्ताव दिया गया पर वह नहीं माने। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को भी कहा गया पर उन्होंने अपनी पार्टी की बाहर से समर्थन की बात कही। आखिरकार कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री को दिल्ली बुलाकर प्रधानमंत्री पद देने की बात कही गई।
एच.डी. देवगौड़ को प्रधानमंत्री के रूप में चुनना एक आश्चर्य ही था क्योंकि इस रेस में वह होंगे, कोई सोच भी नहीं सकता था। प्रधानमंत्री के रूप में एच.डी. गौड़ को शपथ दिलायी गयी। इस सरकार में 13 दलों को शामिल किया गया। कांग्रेस को बाहर से समर्थन देने के लिए कहा गया वह सहर्ष तैयार हो गयी। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के मंत्री इन्द्रजीत गुप्त को गृहमंत्री बनाया गया। मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी सरकार में शामिल नहीं हुई। जून 1996 से लेकर मार्च 1997 तक देवगौड़ की सरकार चली।
इधर कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन हो चुका था कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर उसके सबसे अधिक दिनों तक रहे कोषाध्यक्ष तथा बिहार से वरिष्ठ नेता 'सीता राम देसाई' आसीन हुए। केसरी की कार्यशैली अलग थी। उनकी कांग्रेस पार्टी एक ऐसी पार्टी बन गयी थी जो सही तौर पर इस गठबंधन तथा संक्रमण काल को अभी स्वीकार नहीं कर पायी थी।
धीरे-धीरे कांग्रेस अध्यक्ष केसरी के रिश्ते देवगौड़ सरकार से खराब होने लगे | केसरी अपनी पार्टी की तरफ से विभिन्न एजेण्डों को थोपने की कोशिश करने लगे। देवगौड़ को एक प्रधानमंत्री होने के बावजूद बार-बार सीता राम केसरी जी के घर के चक्कर लगाने पड़ते थे। देवगौड़ एक किसान नेता थे तथा उन्होंने कर्नाटक में एक अच्छी सरकार चलायी थी। केसरी की तरफ से उनको की गई बार - बार विभिन्न मांग अब देवगौड़ को चुभने लगी थी। देवगौड़ ने धीरे-धीरे कांग्रेस की मांगों को नजर-अंदाज करना आरंभ कर दिया। आखिरकार कांग्रेस ने देवगौड़ सरकार से अप्रैल की शुरूआत में यानी 1997 के अप्रैल में समर्थन वापस ले लिया। देवगौड़ ने विश्वास प्रस्ताव रखा जिसमें वह हार गए।
देश के सामने फिर एक बार अस्थिरता आयी। एक साल के अंदर ही प्रधानमंत्री को देश ने देख लिया था। समा. चारपत्रों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस राजनीतिक अस्थिरता के लिए फिर कांग्रेस को उत्तरदायी माना गया। कांग्रेस के बारे में कई समाचार पत्रों में लेख लिखे गए तथा केसरी के प्रति विरोध प्रकट किए गए । कांग्रेस के अंदर भी समर्थन वापस लेने पर मतैक्यता नहीं थी। कांग्रेस की प्रणाली अब पहले की तरह नहीं थी। विपक्षी पार्टी की मजबूती तथा कांग्रेस की सत्ता से बाहर होने ने पार्टी के आंतरिक कलह को बढ़ा दिया था। सीता राम केसरी की व्यक्तिगत सोच के कारण ही देवगौड़ा सरकार को इस्तीफा देना पड़ा था।
अब एक बार फिर स्थिति संशयपूर्ण हुयी। आखिरकार कांग्रेस ने एक सप्ताह के अंदर यह प्रस्ताव दिया कि अगर संयुक्त मोर्चा सरकार के नेतृत्व के लिए कोई दूसरा नेता चुने तो कांग्रेस अपना समर्थन फिर से दे सकती है। संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने आखिर देवगौड़ा सरकार में रहे विदेश मंत्री 'इन्द्र कुमार गुजराल' को प्रधानमंत्री चुना। कहा जाता है कि यह चुनाव कांग्रेस की सलाह से ही हुआ क्योंकि गुजराल अपने प्रशासनिक कार्यकाल से ही कांग्रेस के नजदीक थे। अब गुजराल देश के प्रधानमंत्री पद पर शोभा बढ़ाने वाले थे। गुजराल को 21 अप्रैल 1997 को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलायी गई।
गुजराल की पारी एक प्रधानमंत्री के तौर पर सिर्फ डेढ़ साल की रही। गुजराल एक अनुभवी नेता थे तथा समझौ. तावादी रुख रखते थे। एक गठबंधन के मार्चे को नेतृत्व करना आसान नहीं था। लेकिन देवगौड़ा से एक मामले में इनका यही अंतर था कि यह उनकी तरह सीधे मना नहीं कर देते थे। उदाहरण स्वरूप कांग्रेस के प्रति उनका रवैया सुनने तथा अधिकतर मांगो को मानने वाला रहा। नहीं मानने योग्य मांगों का वह सीधे विरोध नहीं कर विनम्र रवैया अपनाते थे।
देवगौड़ा सरकार अपनी प्रशासनिक नीतियों तथा वैदेशिक संबंधों में कुछ महत्वपूर्ण फैसलों के लिए याद की जाती रहेगी। गंगा नदी समझौता तथा चीन के साथ संबंधों की विषयगत सूचियों में महत्वपूर्ण स्थान है। वहीं इन्द्र कुमार गुजराल का कार्यकाल सबसे अधिक उनके डॉक्ट्रिन के लिए जाना जाता है।
इन्द्र कुमार गुजराल सही रूप से विदेश नीति विशेषज्ञ के तौर पर जाने जाते थे। इन्होंने अपनी 'गुजराल डॉक्ट्रिन' में भारत के पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को महत्वपूर्ण बताया। इस नीति में तीन महत्वपूर्ण बिन्दुओं को समाहित किया गया था जिसमें 'संप्रुभता', 'समानता' तथा 'अहस्तक्षेप' की नीति को महत्वपूर्ण बताया गया। गुजराल डॉक्ट्रिल का सिद्धांत दक्षिण एशिया में शांति उद्देश्य से निर्मित किया गया था।
> गुजराल सिद्धांत के 5 तथ्य निम्नलिखित थे: -
1. भारत, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव, श्रीलंका, भूटान जैसे पड़ोसी देशों से पारस्परिक आदान-प्रदान को नहीं कहेगा लेकिन आपसी-विश्वास एवम् - मंत्री बढ़ाने के सभी प्रयास करे।
2. कोई भी दक्षिण एशियाई देश क्षेत्र के अन्य देश के हितों के विरुद्ध अपने भू-भाग के प्रयोग की अनुमति नहीं देगा।
3. कोई भी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
4. सभी दक्षिण एशियाई एक दूसरे की भू-भागीय अखण्ता और संप्रभुता का सम्मान करेंगे।
5. सभी दक्षिण एशियाई देश शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ताओं के माध्यम से अपने विवादों का समाधान करेंगे।
गुजराल डॉक्ट्रिन के ये पांच बिन्दु सैद्धांतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण थे। इस सिद्धांत की प्रशंसा भी हुई परंतु इसकी आलोचना भी कम नहीं हुई। इसके आलोचक इस डॉक्ट्रिन की अप्रासंगिकता को इस बात से महत्व देते थे कि शत्रु पड़ोसी पर सिद्धांत कैसे काम करेगा। समाचार पत्रों में गुजराल की 'डॉक्ट्रिन' के विपक्ष में अधिक लेख लिखे गए।
गुजराल सरकार के कांग्रेस से रिश्ते अच्छे थे। गुजराल ने सीता राम केसरी से भी व्यक्तिगत रूप से अच्छे संबंध बना लिए थे। परंतु कलह की बानगी उनकी अपनी पार्टी से ही आरम्भ हुई। बिहार का चारा काण्ड का मामला उस समय विवादों की जड़ में था । वह जिस जनता दल से संबंधित थे उस समय उस पार्टी का सबसे मजबूत गढ़ बिहार था। जनता दल के इस मजबूत गढ़ में सबसे अधिक जनाधार वाले नेता लालू प्रसाद यादव थे। चारा घोटाले की आग लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री पद को अपने लपेटे में लेने लगी। गुजराल के सामने दो मजबूरी थी। पहली तो राज्यपाल से कहें कि लालू प्रसाद पर मुकदमे चलाने के लिए आदेश दें तथा दूसरी कि लालू प्रसाद से त्यागपत्र लिया जाए। आखिरकार तत्कालीन राज्यपाल बिहारी डॉ. ए. आर. किदवई ने लालू प्रसाद यादव के खिलाफ मुकदमे चलाने के आदेश दे दिए। लालू प्रसाद ने इसके बाद भी इस्तीफे से मना कर दिया। गुजराल के सामने कोई भी विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री की तरफ से इस्तीफे की मांग करना एक मुद्दा बन सकता था तत्कालीन संयुक्त मोर्चा के संयोजक 'चन्द्र बाबू नायडू' ने सबसे पहले लालू जी से इस्तीफे की मांग की तथा यह कहा कि लालू जी को नैतिक आधार पर त्यागपत्र दे देना चाहिए। इसके बाद जनता राय तथा वाम दल के भी नेता भी लालू से इस्तीफे मांगने लगे या त्याग पत्र देने की सलाह देने लगे।
लालू जी ने त्यागपत्र दे दिया बदले में उन्होंने अपनी पत्नी श्री मति राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। लालू ने जनता दल छोड़ दिया तथा राष्ट्रीय जनता दल नाम की पार्टी बना ली। राष्ट्रीय जनता दल के रूप में भी लालू के दल गुजराल को समर्थन जारी रखा।
गुजराल सरकार ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा के चलते राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की। उस समय कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। राष्ट्रपति डॉ. के. आर. नारायण ने इस पर पुनः विचार के लिए मंत्रिमंडल को कहा तथा उच्च न्यायालय ने भी इस पर कड़ी टिप्पणी की। गुजराल सरकार के लिए यह एक नकारात्मक टिप्पणी थी। अटल बिहारी बाजपेयी ने दिल्ली में उत्तर प्रदेश मामले पर अनशन किया। यह बात काफी बड़े स्तर पर चर्चित रही तथा गुजराल सरकार या यह बात काफी बड़े स्तर पर चालत रा के लिए छिछालेदारी जैसी स्थिति हो गयी।
गुजराल सरकार के पतन का आरंभ जैन आयोग की रिपोर्ट था। राजीव गांधी हत्या काण्ड के षड्यंत्र को उजागर करने के लिए जैन आयोग की स्थापना की गई थी। जैन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार डी. एम. के की भूमिका पर कुछ सवाल उठाना लाजिमी थे। जब यह रिपोर्ट संसद में रखी गयी तो यह सार्वजनिक हो गया कि डी. एम. के. की तरफ से तमिल उग्रवादियों को मौन समर्थन मिला हुआ था। इस रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस के संसद के भीतर तथा संसद के बाहर सरकार पर दबाव डाला गया कि डी. एम. के. के मंत्रियों को सरकार से हटाना चाहिए। प्रधानमंत्री गुजराल ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया। गुजराल डी. एम. के. जैसे धड़े को अपने मोर्चा समूह से हटाकर एक जाखिम मोल नहीं लेना चाहते थे। 28 नवम्बर 1997 को कांग्रेस ने अंतत: गुजराल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। गुजराल ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
सरकार की अस्थिरता से भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब हो गयी थी। उधर-पूर्वोत्तर की अशांति भी कम नहीं थी। गुजराल के त्यागपत्र देने के बाद अभी विकल्पों पर चर्चा हुई पर किसी ने भी प्रयोग कार्य नहीं किया। आखिरकार राष्ट्रपति डॉ. के.आ. नारायण ने लोक सभा भंग करवा चुनाव की घोषणा कर दी।
1996 से लेकर 1998 तक यानी तीन वर्षों में तीन प्रधानमंत्री तथा तीन चुनावों को लेकर भारतीय राजनीतिक में संक्रमण की स्थिति बनी पर ये तीन साल कहीं उस युग की ओर इशारा कर रहे थे जो सामूहिक गठबंधन तथा विभिन्न दलों के आपसी तालमेल के साथ सरकार बनाने का युग था। यह कहना उचित होगा कि अब भारत का राजनैतिक कैनवास अपनी पृष्ठभूमि को विभिन्न रंगों से भरने वाला था तथा इस बात को कांग्रेस तब भी समझ नहीं पायी तथा भाजपा ने इसका मौका पाकर फायदा उठाया। इसी कार्य में भाजपा को अधिक सफलता मिली तथा वह अपने स्तर पर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग दलों से गठबंधन कर चुनाव की तैयारी आरंभ करने लगी।
अब 1998 का चुनाव आने वाला था। जहां कांग्रेस अपनी परिस्थिति से निकल नहीं पा रही थी वहीं भाजपा अपने साथी दलों के साथ सरकार बनाने के लिए चुनावी सफलता की ओर बढ़ रही थी। मार्च 1998 के आम चुनाव में भाजपा को 181 सीटें मिली तथा कांग्रेस को 138 सीटें मिली। भाजपा अपने समर्थक दलों के साथ 252 सीटों तक पहुंच गयी। उस समय भाजपा के साथ चन्द्र बाबू नायडू तथा ममता बनर्जी भी थी। इधर कांग्रेस में सीता राम केसरी की अध्यक्षता खतरे में थी। अधिकतर नेता इनके खिलाफ थे। केसरी - इस्पीफा देने को तैयार नहीं थे। अचानक राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने कांग्रेस में आने की बात कही तथा सीताराम केसरी को मजबूरी में त्याग पत्र देना पड़ा तथा सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। मार्च 19 को अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बन गये थे तथा अब यह महसूस हुआ कि राजनीतिक स्थिरता आएगी परंतु अभी बहुत सी घटना होना बाकी थीं। इन घटनाओं ने आगे की राजनीतिक को रास्ता दिखाने में बहुत सहायता की।
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