मुगलकालीन सामाजिक जीवन, शिक्षा, साहित्य एवं कला के सन्दर्भ में

मुगलकालीन सामाजिक जीवन, शिक्षा, साहित्य एवं कला के सन्दर्भ में

मुगलकालीन सामाजिक जीवन, शिक्षा, साहित्य एवं कला के सन्दर्भ में

> मुगलकालीन समाज
मुगलकालीन समाज को स्पष्ट रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है – 
(i) हिन्दू और (ii) मुसलमान.
देश में हिन्दू जनता बहुसंख्यक थी, परन्तु मुसलमानों की संख्या भी कम नहीं थी. मुसलमान स्पष्ट रूप से दो भागों में बँटे थे—
(i) जन्मजात मुसलमान व (ii) वंशगत मुसलमान.
इन मुसलमानों में विदेशी जैसे- तुर्क, अफगान, मंगोल तथा उज्बेक आदि भी शामिल थे. विदेशी मुसलमान रक्त की शुद्धता पर बहुत अधिक बल देते थे और जातीय श्रेष्ठता का दावा करते थे. प्रशासन और समाज में इन लोगों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था.
मुसलमानों का दूसरा महत्वपूर्ण वर्ग भारतीय मुसलमानों का था. यह ऐसे मुसलमान थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर लिया था. इसमें से अधिकांश लोग पिछड़ी जाति के हिन्दू थे. इन्हें मुस्लिम समाज में भी उचित स्थान नहीं मिला था.
मुसलमानों में अनेक धार्मिक वर्ग भी थे; जैसे—शिया, सुन्नी, शेख, सैयदं और सूफी. इसी प्रकार हिन्दू समाज भी अनेक भागों व वर्णों, जातियों एवं उप-जातियों में बँटा हुआ था. ब्राह्मण और राजपूत समाज के अग्रणी वर्ण थे. हिन्दू समाज अभी भी अपने परम्परागत स्वरूप को बनाये हुए था. छुआछूत की भावना प्रत्येक जाति के नियम तथा संस्कारों का पालन बड़ी कड़ाई से होता था. इस काल में हिन्दू और मुसलमानों के अतिरिक्त सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि भी बड़ी संख्या में थे. विदेशी जातियों में पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी आदि भी यहाँ आकर बस गये थे. प्रत्येक सामाजिक वर्ग अपने रीति-रिवाजों का पालन करने में स्वतन्त्र था. उन पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था और मुगल सम्राटों ने सामान्यतः सभी वर्गों के प्रति उदार नीति का अनुसरण किया और सभी वर्गों के लोग कमोबेश आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के साथ रहते थे.
> सामाजिक वर्गीकरण
मुगलकाल में समाज का विभाजन स्पष्ट रूप में तीन भागों में किया जा सकता है -
(1) शासक वर्ग, (2) मध्यम वर्ग, (3) निम्न वर्ग.
(1) शासक वर्ग – इस वर्ग में मुगल सम्राट, हिन्दू शासक, सूबेदार, बड़े-बड़े सामन्त, जागीरदार, धार्मिक नेता, प्रशासनिक अधिकारी आदि आते थे. ये सभी व्यक्ति चाहे हिन्दू हों या मुसलमान मुगल दरबार से जुड़े हुए थे. में केवल उच्च घराने वाले हिन्दुओं, मुसलमानों व राजपरिवार के सदस्यों को ही स्थान दिया जाता था. इन लोगों के पास अनेक सुविधाएँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त थे. ये लोग शान-शौकत की जिन्दगी बसर करते थे. इस वर्ग के लोगों के पास अनेक महल, सुन्दर बाग-बगीचे, नौकर, दास-दासियाँ आदि होते थे. बहु-विवाह इनमें आम बात थी. इनके हरम में अनेक सुन्दरियाँ होती थीं. ये लोग नाच-गाना, जुआ, मद्यपान आदि के शौकीन थे. इनके अन्दर सामन्ती दुर्गुणों के होने के बावजूद भी इन लोगों ने बागवानी, शिल्प, वास्तुकला, शिक्षा, साहित्य एवं संगीत-कला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया.
(2) मध्यम वर्ग – मुगल समाज में मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व राजकर्मचारी, व्यापारी, व्यवसायी, भूमिपति, बुद्धिजीवी आदि करते थे. इन लोगों के पास भी काफी सुविधाएँ थीं और आर्थिक सम्पन्ता की स्थिति में इन लोगों का जीवन व्यतीत होता था. राजकीय कर्मचारियों को इतना वेतन मिलता था कि उनका जीवन सुख-चैन से बीत सके. जमींदारों की स्थिति भी काफी ठीक थी. भूमि पर एक प्रकार से इन्हीं का अधिकार था. यह लोग अपनी जमींदारी में छोटा किला या गढ़ी बनाकर रहते थे. उनकी सहायता के लिए इनके पास एक छोटी सेना भी होती थी. बड़े जमींदारों की स्थिति एक छोटे राजा के समान होती थी.
मुगलकाल में व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग था. इनकी अनेक श्रेणियाँ थीं; जैसे- 'बोहरा' अथवा 'सेठ' 'वणिक' 'चेट्टी', 'सर्राफ', 'बंजारे' इत्यादि इनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी. इस कारण ये लोग शान-शौकत की जिन्दगी व्यतीत करते थे, किन्तु अनेक व्यापारियों को यह डर रहता था कि कोई उनका धन न छीन ले. इस कारण वह सामान्यजन की तरह अपना जीवन व्यतीत करते थे.
(3) निम्न वर्ग – इस वर्ग की मुगलकाल में अत्यन्त दयनीय स्थिति थी. इसमें किसान, छोटे व्यापारी, उद्यमी, सेवक, दस्तकार, गुलाम और सामान्य जनता आती थी. इन लोगों का आर्थिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार से शोषण होता था. किसानों के पास अपनी स्वयं की भूमि नहीं होती थी. इन पर लगान का भार अत्यधिक होता था. अकाल एवं महामारी के समय इस वर्ग की सुध लेने वाला कोई नहीं होता था. किसानों की तरह ही दस्तकारों एवं श्रमिकों की स्थिति थी. अतः अनेक विद्वान् शहरों में जाकर सेना में कुली के रूप में भर्ती हो जाते थे अथवा अपना छोटा-मोटा कारोबार चलाते अथवा सम्पन्न घरानों में नौकर बन जाते थे. इस वर्ग के सदस्यों को कम पारिश्रमिक पर कार्य करना पड़ता था. इनके रहने के मकान, भोजन एवं वस्त्र अति साधारण किस्म के होते थे.
इस प्रकार उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुगलकाल में समाज के विभिन्न वर्ग आर्थिक रूप से एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न थे, परन्तु उनमें वैमनस्य नहीं था. समाज के सभी वर्गों के लोग अपने निर्धारित नियमों का पालन करते हुए एक-दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए प्रेम से जीवन व्यतीत करते थे और यही मुगलकालीन समाज की एक प्रमुख विशेषता भी है.
> मुगलकाल में स्त्रियों की दशा
मुगलकाल में भी स्त्रियों की स्थिति सल्तनतकाल के समान ही थी. उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया था तथा उनकी स्वतन्त्रता पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगे हुए थे. पर्दा- प्रथा के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्गों की स्त्रियों की दशा बड़ी ही दयनीय थी. अकबर ने स्वयं यह आदेश निकाला था कि, “यदि कोई नवयुवती सड़कों या बाजारों में दौड़ती पाई गई और इस अवस्था में वह पर्दे में न हुई या उसने जान-बूझकर बटन खोल दिया, तो उसे वेश्याओं के डेरों की ओर जाना पड़ेगा और उन्हीं का रोजगार करना पड़ेगा."
अमीरों के घरों में बड़ी संख्या में हिजड़े भी रहते थे, जो जनाने एवं मर्दाने क्षेत्रों में बेरोक-टोक आ जा सकते थे मुसलमानों में बड़े घर की स्त्रियाँ तो घर के बाहर ही नहीं निकलती थीं और उन्हें यदि किसी कारणवश निकलना भी पड़ता, तो वे पालकी में बैठकर बाहर जाया करती थीं.
इस काल में लड़की का जन्म अशुभ माना जाता था, जिस स्त्री के सदैव लड़कियाँ होती थीं, सभी उसे घृणा की नजर से देखते थे और कभी-कभी उसे तलाक दे दिया जाता था.
इस युग में बड़े घरानों एवं मुसलमानों में बहुविवाह बड़ी आम बात थी. कुरान में एक मुसलमान को एक समय में चार स्त्रियाँ रखने की छूट दी गई है. शाही हरमों और राजाओं के रनिवासों में सैंकड़ों की संख्या में स्त्रियाँ रखी गई थीं. इससे इस क्षेत्र में भी व्यभिचार खूब था. अकबर ने यह नियम बनाने की शुरूआत की कि एक व्यक्ति को एक ही स्त्री रखनी चाहिए.
इस युग में स्त्रियों की हीन दशा के लिए बाल-विवाह भी उत्तरदायी था. प्रायः 8 से 10 वर्ष की उम्र में लड़कियों का विवाह हो जाता था. इस कारण उन्हें शिक्षा के लिए समय नहीं मिल पाता था. उच्च राजपूत कुलों में स्त्रियों को वर चुनाव में कुछ स्वतन्त्रता थी. कर्नल टॉड ने इस प्रकार के कुछ विवाहों का वर्णन किया है, जिसमें राजकुमारियों ने अपने पतियों का चुनाव किया था.
मुगलकाल में हिन्दू समाज में विधवा विवाह की इजाजत नहीं होती थी. स्त्रियाँ प्रायः अपने पति की चिता पर जलकर सती हो जाती थीं. मुसलमान स्त्रियाँ इस मामले में स्वतन्त्र थीं. उनमें खूब विधवा विवाह होते थे. मुस्लिम स्त्रियों की आर्थिक स्थिति हिन्दू स्त्री से अधिक अच्छी थी. उन्हें अपने पति की सम्पत्ति पर कुछ अधिकार होता था.
मुगलकाल में उच्च घराने की स्त्रियाँ शिक्षा, साहित्य, नृत्य, संगीत आदि में पर्याप्त निपुण होती थीं. गुलबदन बेगम ने ‘हुमायूँनामा’ और जहाँआरा ने 'शिष्याह' और 'मुनसिल अबी' की रचना की. इस काल में कुछ स्त्रियाँ कुशल प्रशासक भी थीं; जैसे कि नूरजहाँ, अकबर की धाय माँ महाम अनगा, रानी दुर्गावती, ताराबाई आदि. मीरा, रामभद्रा बाई, मधुरवाणी जैसी महिलाएँ उच्चकोटि की कवयित्रियाँ थीं.
हिन्दू महिलाओं का चरित्र, मुस्लिम महिला के चरित्र से अच्छा था. विदेशी यात्रियों ने उनके चरित्र की भूरि-भूरिं प्रशंसा की है.
> मुगलकाल में शिक्षा
सल्तनतकाल की अपेक्षा मुगलकाल में भी शिक्षा का अत्यधिक विकास हुआ. बाबर स्वयं एक बड़ा विद्वान् एवं कवि था. उसके समय में 'सुहरतेआम' नामक एक विभाग शिक्षा संस्थाओं की उन्नति की व्यवस्था करता था. वह विद्वानों को अपने दरबार में आश्रय देता था. उसके दरबार के प्रसिद्ध विद्वानों में शेख ख्वाफी एवं बन्दामीर था.
हुमायूँ का अधिकांश समय युद्धों में व्यतीत होने के कारण वह सार्वजनिक शिक्षा पर ध्यान नहीं दे सका, लेकिन वह अपने व्यक्तिगत जीवन में पुस्तकों का बड़ा प्रेमी था. उसके पास स्वयं का पुस्तकालय था. उसे ज्योतिष एवं भूगोल का बड़ा ज्ञान था.
अकबर स्वयं पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद भी उसे शिक्षा से गहरा लगाव था. उसने एक अनुवाद विभाग की स्थापना की. अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाया. उसकी धाय माँ माहम अनगा ने आगरा में एक स्कूल की स्थापना की थी. अकबर ने स्वयं फतेहपुर सीकरी में अनेक मदरसों की स्थापना की उसने एक चित्रकला का भी विद्यालय खोला जहाँ सभी वर्गों के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे. अकबर ने अपने विद्यालयों में गणित, ज्यामिति, मेन्सुरेशन, ज्योतिष, एकाउण्टेन्सी, लोक-प्रशासन और कृषि को पढ़ाने की व्यवस्था करवाई.
जहाँगीर धनी व्यक्तियों की मृत्यु की सम्पत्ति, मठों तथा दान की सम्पत्ति शिक्षा पर लगाता था. शाहजहाँ ने भी दिल्ली में एक विशाल मकबरे की स्थापना की. उसने 'दारुलसका ' नामक उजड़े हुए मदरसे का जीर्णोद्धार करवाया शाहजहाँ का पुत्र दाराशिकोह अरबी, फारसी और संस्कृत का एक बड़ा विद्वान् था. उसने स्वयं गीता, योगवशिष्ठ, रामायण तथा उपनिषदों का अनुवाद फारसी में किया.
> मुगलकाल में शिक्षा के मुख्य रूप से दो स्तर थे - 
(1) प्रारम्भिक शिक्षा, एवं (2) उच्च शिक्षा.
(1) प्रारम्भिक शिक्षा— मुगलकाल में जनता स्वयं अपने बच्चों की शिक्षा का ध्यान रखती थी तथा इनके लिए नीति शिक्षण संस्थाएँ थीं. प्रत्येक ग्राम में मस्जिद एवं मन्दिर में शिक्षा की व्यवस्था थी. हिन्दू लोग अपने बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ 5 वर्ष में तथा मुसलमान लोग अपने बच्चों की शिक्षा उनके 4 वर्ष 4 माह और 4 दिन के हो जाने के बाद प्रारम्भ करते थे. मुसलमान लोग अपने बालकों की शिक्षा के प्रति अधिक ध्यान नहीं देते थे. हालांकि प्रत्येक मस्जिद में एक मकतब होता था. इस काल में तख्ती पर लिखा जाता था. मुसलमानों के बच्चे कुरान की आयतें पढ़ते थे, जबकि हिन्दू बच्चे रामायण, महाभारत तथा प्रारम्भिक गणित पढ़ते थे. पहाड़े रटा करते थे. सुलेख लिखते थे. कक्षाएँ सुबह और शाम को लगती थीं. बीच में मध्याह्न अवकाश होता था. इस काल में बच्चों से फीस नहीं ली जाती थी तथा विद्यादान महादान समझा जाता था. धनी व्यक्ति शिक्षा के लिए धन की सहायता देते थे.
अकबर के समय प्राथमिक शिक्षा का संगठन किया गया. इस समय पाठ्य-पुस्तकों का निश्चित प्रबन्ध किया गया. उसके आदेशानुसार प्रत्येक बालक पहले वर्णमाला पढ़ें. उसका उच्चारण और आकार सीखें, पुनः संयुक्त अक्षर लिखें. एक हफ्ते के अभ्यास के बाद वह कुछ गद्य और पद्य सीखें. पुनः ईश्वर की प्रशंसा में कुछ पंक्तियाँ याद करें. कुछ नैतिक वाक्य याद करें. बालक को चाहिए कि वह स्वतन्त्र रूप से प्रयास करे तथा अध्यापक उसकी केवल सहायता करे.
इसके बाद बालक को अक्षर ज्ञान, शब्दार्थ, पद्य रचना, कविता, गणित, इतिहास, कृषि, ज्यामितीय, शरीर-विज्ञान, गृह-विज्ञान आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी.
(2) उच्च शिक्षा – मुगलकाल में उच्च शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाता था. काशी और नदिया उच्च शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे. इस काल में संस्कृत, व्याकरण, साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र इत्यादि विषयों की शिक्षा दी जाती थी. शिक्षा के अन्य केन्द्रों में आगरा, दिल्ली, जौनपुर, फतेहपुर सीकरी, लाहौर, स्यालकोट आदि थे. इनके अतिरिक्त मिथिला, तिरहुत, प्रयाग, हरिद्वार, अयोध्या आदि थे.
विद्यार्थियों को उनकी योग्यता के अनुसार शिक्षा दी जाती थी. 'लॉ' ने लिखा है, जो विद्यार्थी 'मोजान’ पढ़ते थे उन्हें एक आना रोज, जो 'मुंशाब' पढ़ते थे उन्हें दो आना रोज और जो 'शरहेवाकया' पढ़ते थे उन्हें आठ आना रोज मिलता था. प्रान्तीय दीवानों को आदेश था कि वे छात्रों को वजीफा दें.
मुगलकाल में आज की तरह परीक्षा पद्धति नहीं थी और न ही किसी प्रकार के प्रमाण पत्र दिये जाते थे. डॉ. यूसुफ हुसैन ने लिखा है—
विद्यार्थी निम्न कक्षा से उच्च कक्षा में केवल अध्यापक की इच्छा से ही जाते थे और अध्यापक उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व की परख करते थे. 'फाजिल' की डिग्री उन विद्यार्थियों को दी जाती थी, जो दर्शन और तर्क विद्या में पारंगत हो जाते थे. जो लोग Theology में विद्वान् थे, उन्हें 'आलिम' की डिग्री दी जाती थी और साहित्य में पारंगत विद्यार्थियों को 'काबिल' कहा जाता था.
> मुगलकाल में साहित्य
मुगलकाल में फारसी, हिन्दी, तुर्की, पंजाबी आदि सभी भाषाओं में साहित्य लिखा गया. मुगल सम्राटों ने सभी प्रकार के विद्वानों को अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया. समय के विद्वानों ने ऐतिहासिक ग्रन्थों, अनुवाद एवं सुन्दर काव्य की अनेक रचनाएँ रचीं. इस
(1) फारसी साहित्य का विकास – मुगलकाल में फारसी साहित्य का सर्वाधिक विकास हुआ. मुगल सम्राट बाबर स्वयं तुर्की एवं फारसी का प्रकाण्ड विद्वान् था, उसने अपनी आत्मकथा 'तजुक-ए-बाबरी' तुर्की भाषा में लिखी जो इस भाषा का उच्चकोटि का साहित्यिक ग्रन्थ माना जाता था. उसने तुर्की भाषा में कविता की नई शैली 'मुबाइयाँ' लिखीं.
मुगल सम्राट हुमायूँ भी साहित्य और विद्या का बड़ा प्रेमी था, लेकिन उसके समय की परिस्थितियों ने उसे साहित्य सृजन के लिए समय ही नहीं दिया. उसके पुत्र अकबर के समय में फारसी भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना के साथसाथ अनेक दूसरी भाषाओं के महत्वपूर्ण ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया.
अकबर के समय में लिखे ग्रन्थों में मुल्ला दाऊद ने ‘तारीख-ए-अल्फी', अबुल फजल ने 'अकबर-नामा', व ‘आइन-ए-अकबरी’, निजामुद्दीन अहमद ने 'तबकात-एअकबरी’ फैजी का ‘अकबरनामा', अब्दुल बकी का 'असीर ए-रहीमी' और बदायूँनी का 'मुन्तखब- उत्-तवारीख' विशेष प्रसिद्ध है.
इस काल में अब्दुल कादिर बदायूँनी ने रामायण का, फैजी ने लीलावती का, सरहिन्द ने अथर्ववेद का अनुवाद फारसी में किया. इस समय कई विद्वानों ने मिलकर महाभारत का अनुवाद 'रज्जनामा' के नाम से किया. अब्दुर्रहीम खानखाना ने तजुके बाबरी का अनुवाद तुर्की से फारसी में बाबरनामा के नाम से किया. इस प्रकार के अनुवाद के पीछे अकबर का मुख्य उद्देश्य यह था कि देश के विद्वानों को सर्वमान्य साहित्य उपलब्ध हो सके.
जहाँगीर के समय में भी फारसी साहित्य की उन्नति जारी रही और उसने स्वयं अपनी आत्मकथा 'तजुकेजहाँगीरी’ लिखी, जो भावों की स्वच्छता, गति और स्पष्टता के लिए प्रसिद्ध है. इसके समय के अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘इकबालनामा-ए-जहाँगीरी', 'मअस्सिरे जहाँगीरी’, ‘जब्बदुत तवारीख' आदि हैं, इसके समय में अनुवाद का कार्य लगभग बन्द-सा हो गया.
शाहजहाँ के समय में फारसी भाषा में उच्चकोटि के ग्रन्थ लिखे गये, जिनमें अब्दुल हमीद लाहौरी ने ‘पादशाहनामा’, अमीन काजवीनी ने दूसरा 'पादशाहनामा' और इनायत खाँ ने 'शाहजहाँनामा' लिखे. शाहजहाँ के पुत्र दारा ने ‘उपनिषदों, गीता एवं योगवशिष्ठ' का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया.
औरंगजेब ने साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान नहीं किया. इसके बावजूद भी उसके समय में मिर्जा मुहम्मद काजिम ने ‘आलमगीरनामा’, मुहम्मद खाफी ने 'मअस्सिरे आलमगीरी', भीमसेन ने ‘नुश्का-ए-दिलकुशा', ईश्वरदास नागर ने 'फतुहाते आलमगीरी' तथा सुजानराय ने 'खुलासा- उत- तवारीख' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की. खाफी खाँ हासिम खाँ ने 'मुन्तखब-उल-लुबाब' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की गुप्त रूप से रचना की. औरंगजेब के समय में मुस्लिम कानून की पुस्तक 'फतवा-ए-आलमगीरी' नामक ग्रन्थ की रचना उसकी देख-रेख में की गई.
मुगलकाल में स्त्रियों ने भी अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की, जिसमें हुमायूँ की बहन गुनबदन बेगम ने ‘हुमायूँनामा’ लिखा व औरंगजेब की पुत्री जेबुन्निशा ने 'दीवान-ए-मखफी' लिखा.
औरंगजेब के बाद मुहम्मदशाह (1719-48) के समय तक फारसी भाषा को संरक्षण मिलता रहा, लेकिन बाद में उर्दू को संरक्षण दिया जाने लगा.
(2) हिन्दी साहित्य – हिन्दी साहित्य का विकास मुगलकाल में मुख्य रूप से अकबर के समय से ही प्रारम्भ हुआ. अकबर से पूर्व मलिक मुहम्मद जायसी ने 'पद्मावत' और 'मृगावत' की रचना की. अकबर के समय में सूर, तुलसी, रसखान, अब्दुर्रहीम आदि ने उच्चकोटि के हिन्दी साहित्य की रचना की. इस समय में लिखे गये ग्रन्थों में रामचरितमानस, सूरसागर, रहीम सतसई, प्रेमवाटिका आदि विशेष उल्लेखनीय हैं. बीरबल, भगवानदास, नरहरि, हरिदास आदि ने भी अनेक सुन्दर रचनाएँ लिखीं.
जहाँगीर व शाहजहाँ के समय में भी हिन्दी साहित्य का खूब विकास हुआ. इस समय में सुन्दर कविराज ने 'सुन्दर शृंगार' और सेनापति ने 'कवित्त रत्नाकर' नामक सुन्दर हिन्दी काव्य ग्रन्थों की रचना की. शिरोमणि मिश्र, बनारसीदास, भूषण, देव, मतिराम आदि प्रसिद्ध कवियों ने भी हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं द्वारा समृद्ध किया.
औरंगजेब ने हिन्दी साहित्य को तनिक भी संरक्षण प्रदान नहीं किया. अतः हिन्दी कवि मुगल दरबार को छोड़कर इधरउधर हिन्दू राजाओं की शरण में चले गये. 
(3) उर्दू साहित्य – मुगलकाल में फारसी और हिन्दी के मेल से उर्दू का विकास हुआ. अमीर खुसरो इस भाषा का प्रथम कवि था, लेकिन इस भाषा को शाही संरक्षण 18वीं सदी के प्रारम्भ तक नहीं मिला, लेकिन मुगल बादशाह मुहम्मदशाह (1719–48) ने इस भाषा को अपना संरक्षण प्रदान किया. इस हेतु उसने दक्षिण के कवि 'वली' को उत्तर भारत में बुलाया. इसके बाद से उर्दू की लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हुई और वह मुस्लिम विद्वानों और मुस्लिम कवियों की भाषा बन गई.
(4) संस्कृत, पंजाबी व अन्य क्षेत्रीय साहित्य का विकास – मुगलकाल में अकबर ऐसा प्रथम सुल्तान था, जिसने संस्कृत भाषा को राजकीय संरक्षण प्रदान किया. इस समय में संस्कृत-फारसी कोष 'फारसी प्रकाश' की रचना की गई. जहाँगीर ने अकबर की परम्परा को आगे बढ़ाया तथा शाहजहाँ के समय जगन्नाथ पण्डित ने 'रसगंगाधर' और 'गंगालहरी' नामक उत्तम संस्कृत काव्य-ग्रन्थों की रचना की. इसके समय में ज्योतिष एवं खगोल विद्या पर भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये.
औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों के समय में संस्कृत भाषा के विद्वानों के लिए मुगल दरबार में कोई स्थान नहीं रहा.
हिन्दी व संस्कृत के अतिरिक्त पंजाबी एवं अन्य देशी भाषाओं का विकास भी इस काल में हुआ. गुरु अर्जुनदेव ने 'आदिग्रन्थ' का संग्रह मुगल सम्राट जहाँगीर के समय में किया. भाई गुरुदास ने कुछ उच्चकोटि के पंजाबी लेख लिखे. मुस्लिम कवियों और सूफी सन्तों द्वारा भी पंजाबी में साहित्य लिखकर इस भाषा को समृद्ध बनाने का प्रयास किया गया.
इस काल में चारण एवं अन्य कवियों ने राजस्थानी भाषा में उच्चकोटि के साहित्य की रचना की. इनके द्वारा अनेक वीरगाथाएँ लिखी गईं, जिनमें 'खुमाण रासो', 'हम्मीर रासो’, राणा रासो’, ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात' व 'बीसलदेव रासो', आदि प्रसिद्ध हैं.
इस काल में बंगला साहित्य व वैष्णव सम्प्रदाय के धार्मिक साहित्य का भी विकास हुआ. महाभारत एवं रामायण का बंगला भाषा में अनुवाद मुगलकाल में ही हुआ.
> मुगलकाल : संगीत
मुगलकाल में औरंगजेब को छोड़कर सभी बादशाहों ने संगीत एवं नृत्य को अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया. बाबर स्वयं संगीत का संरक्षक और जानकार था. उसने अनेक गीतों की रचना की. इसी प्रकार उसका पुत्र हुमायूँ भी संगीत में अत्यधिक रुचि लेता था. उसके समय में उसके दरबार में बच्चू नामक संगीतकार रहता था.
अकबर संगीत कला का प्रसिद्ध संरक्षक था. उसके दरबार में ईरानी, कश्मीरी व हिन्दू सभी धर्मों के संगीतज्ञ रहते थे. उसके दरबार के प्रसिद्ध गायक तानसेन एवं बैजू बाबरा थे. तानसेन के विषय में अबुल फजल ने लिखा है कि उसके जैसा गायक हजार वर्षों से नहीं हुआ.
अकबर के काल में एक अन्य प्रसिद्ध गायक बाज बहादुर था तथा वह अपनी संगीत कला का अकेला उदाहरण था. उसके दरबार में 36 उच्चकोटि के संगीतज्ञ थे. उसके संगीतज्ञ टोलियों में बँटे हुए थे और अलग-अलग टोली प्रतिदिन अपना गाना सुनाकर बादशाह को प्रसन्न करने का काम करते थे. अकबर स्वयं संगीत का जानकार था और नक्कारा बजाने में अत्यधिक प्रवीण था. उसके समय में संगीत के संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया और नवीन रागों का सृजन किया गया.
अकबर की देखा-देखी उसके दरबारी संगीतज्ञों को संरक्षण प्रदान करते थे, इनमें अबुल फलज, रहीम, मानसिंह, भगवानदास आदि प्रमुख थे. बैरम खाँ ने रामदास और हरिदास को संरक्षण प्रदान किया.
जहाँगीर भी संगीत में रुचि लेता था. उसके शासनकाल के प्रसिद्ध संगीतज्ञों में मीरदाद, खुर्रम दाद मखान और छतर खाँ सुविख्यात संगीतज्ञ थे.
शाहजहाँ भी संगीत का महान् संरक्षक था. उसके दरबार में रामदास, महापात्र, लाल खाँ, गुण समुद्र और जगन्नाथ जैसे सुविख्यात गायक रहते थे. इसके दरबार में सुखदेव सितार वादक और सूरसेन प्रसिद्ध बीन वादक थे. शाहजहाँ नित्य स्त्रियों से भी गाना सुनता था. उसने स्वयं कुछ हिन्दी गीतों की रचना की. शाहजहाँ की मृत्यु के बाद संगीत कला का विकास रुक गया. औरंगजेब स्वयं संगीत का जानकार होते हुए भी वह संगीत से घृणा करता था और उसने संगीत पर प्रतिबन्ध लगा दिया.
औरंगजेब के बाद मुहम्मदशाह रंगीला ने संगीत को प्रोत्साहित किया और इसने संगीत को नया जीवनदान दिया. उसके समय में अदारंग और सदारंग प्रसिद्ध खयाल गायक थे. शौरी मियाँ ने टप्पा गायन का प्रचार किया और इस समय हिन्दू और ईरानी शैलियों और ध्वनियों का निर्माण हुआ. इसी समय में संगीत का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रागत्व नवबोध' श्रीनिवास ने लिखा. धीरे-धीरे मध्यम शिक्षित वर्ग में संगीत की लोकप्रियता कम हो गई और इसे भोगविलास की वस्तु समझा जाने लगा.
> मुगल चित्रकला : सामग्री व तकनीकी : टिप्पणी
निर्मित होती थी. इस काल में अनेकों प्रकार के कागज मुगल कला के चित्रों की अधिकांश सामग्री हाथ से जैसे— रेशमी, दौलताबादी, कार्डी, हिन्दी, स्यालकोटी और मुगली आदि प्रचलित थे. 'मुगली' कागज इस काल में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था. इनके अतिरिक्त 'ईरानी' और 'इस्पहानी' नामक दो विदेशी कागज भी खूब प्रसिद्ध थे. कागज बनाने के लिए बाँस, जूट, कपास और सन का प्रयोग किया जाता था. कागजों का रंग बिलकुल सफेद न होकर कुछ मटमैला-सा होता था.
इस काल में कूँची या ब्रुश, बकरी, गिलहरी तथा ऊँट इत्यादि पशुओं के बालों के बनाये जाते थे. रंग चित्रकार स्वयं अपनी विधियों से तैयार करते थे. रंग फूल, पत्तियों और खनिज पदार्थों से बनते थे. पीला रंग मुल्तानी मिट्टी या ढाक के फूलों से बनता था. काला रंग सरसों के तेल में कपूर की बत्ती को जलाकर बनाया जाता था. बैंगनी रंग हरभुजी और काले रंग को मिलाकर बनाया जाता था. इस काल के मुगल चित्रों में 14 रंगों का प्रयोग किया गया है.
दो या दो से अधिक कागजों को चिपकाकर मोटा कर लिया जाता था तथा उसका धरातल घोंटकर चिकना बना लिया जाता था और इस पर चित्र बनाने के लिए सीमा रेखा गेरू से और अन्तिम काले रंग से बनाई जाती थी. चित्रांकन ट्रेसिंग द्वारा होता था. इस काल में तैल चित्रों का भी प्रचलन था, लेकिन वह कम पसन्द किये जाते थे.
> हुमायूँ के समय चित्रकला
बाबर का पुत्र हुमायूँ भी चित्रकला का प्रेमी था और उसे इस कला का ज्ञान अपने पूर्वजों से हुआ था.
हुमायूँ जब फारस में था तब उसे शिराज के निवासी, शीरी कलम अब्बदुस्समद, जोकि प्रख्यात चित्रकार था, से परिचय हुआ और जब हुमायूँ ने काबुल पर 1546–47 ई. में अधिकार कर लिया तब अब्बदुस्समद और उसका पुत्र मीर सैयद अली हुमायूँ के संरक्षण में आ गये.
हुमायूँ का चित्रकला के प्रति प्रेम उसका युद्ध के समय भी सचित्र पुस्तकों को अपने साथ रखने से भी पता चलता है, लेकिन उसके समय तक मुगल दरबार की अपनी कोई अलग चित्रकला शैली नहीं थी. उसके समय में हुमायूँ द्वारा ‘दास्ताने-अमीरे-हम्जा' को चित्रित करने का कार्य चित्रकारों को सौंपा गया था.
अब्बदुस्समद और मीर सैयद अली के हुमायूँ के साथ भारत आने पर इन चित्रकारों का सम्पर्क भारतीय चित्रकारों से होने पर एक नई शैली ने जन्म लिया जो मुगल शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई.
> अकबर के काल में चित्रकला का विकास
मुगल सम्राट अकबर के काल में चित्रकला की अभूतपूर्व उन्नति हुई. उसके शासक बनने के कुछ ही समय बाद चित्रकला के प्रेम से प्रेरित होकर चित्र बनवाने प्रारम्भ कर दिये और यह क्रम उसके पूरे जीवन-भर चालू रहा. उसके समय में भारतीय और ईरानी चित्रकार एक-दूसरे के सम्पर्क में आने लगे, जिससे दोनों शैलियाँ मिलकर आपस में एक हो गईं और इसका विदेशीपन समाप्त हो गया और अब यह कला पूर्णतया भारतीय हो गई. अकबर के समय में अब्दुस्समद, मीर सैयद अली, दसवंत, बसावन, जमशेद, फर्रूख बेग, कैशो, लाल, मुकन्द, माधो, खेमकरन, जगन एवं महेश आदि प्रख्यात चित्रकार थे. इस प्रकार अकबर के समय में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों के चित्रकार थे. हिन्दू चित्रकारों के विषय में अबुल फजल लिखता है कि, “हिन्दू चित्रकारों के चित्र हम लोगों की भावनाओं से कहीं ऊँचे होते हैं और सारे संसार में ऐसे बहुत कम चित्रकार हैं, जो उनके समकक्ष हों.' 
अकबर के समय में चित्रकला को प्रोत्साहन देने के कारण अनेक उत्कृष्ट कृतियों को तैयार किया गया. फारसी की गद्य एवं पद्य रचनाओं को चित्रित किया गया और इससे चित्रों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई. अतः अकबर के समय के चित्रों को हम चार निम्नलिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं –
(i) फारसी कथाओं के चित्र.
(ii) भारतीय कथाओं के चित्र.
(iii) ऐतिहासिक चित्र.
(iv) व्यक्ति चित्र.
उपर्युक्त चारों प्रकार के चित्रों में व्यापक स्तर पर समानता है. अकबर के समय में निम्नलिखित ग्रन्थ प्रमुखता से चित्रित किये गये -
(1) दास्तान-ए-अमीर-हम्जा—यह ग्रन्थ हुमायूँ के समय चित्रित होना प्रारम्भ हुआ था, जोकि अकबर के समय में पूर्ण हुआ. इसमें कुल 1400 चित्रों को बनाया गया था, जिसमें से अब हमें केवल 100 चित्र ही प्राप्त होते हैं.
(2) तारीखे - खानदाने-तैमूरिया - इसमें तैमूरिया वंश के आरम्भ से अकबर के शासनकाल के 22वें वर्ष तक का इतिहास है. इसको दसवंत ने तैयार किया था.
(3) रज्मनामा ( महाभारत ).
(4) रामायण.
(5) बाकयात-ए-बाबरी.
(6) अकबरनामा 
(7) अनवार-ए-सुहैली.
इन प्रमुख ग्रन्थों के अतिरिक्त इस काल में पंचतन्त्र, तारीख - ए - रशीदी, दरबनामा, खमसा निजामी, बहिरस्तान जामी आदि को चित्रित करवाया गया.
> अकबर शैली की विशेषताएँ
अकबर के शासनकाल में मुगल शैली ईरानी, कश्मीरी, राजस्थानी आदि की विशेषताओं को मिलाकर बड़े ही सुन्दर रूप में प्रकट होती है. इस शैली में कुछ ईरानीपन होने के बावजूद भी यह पूर्णतः भारतीय बन गई है. इस शैली में चुहचुहाते व चमकते रंग, बुते हुए रंग एवं सफेद रंग का अधिकतर प्रयोग किया गया है. इसमें एक चश्म चेहरों को प्रधानता से बनाया गया है.
अकबर ने चित्रकारों को प्रोत्साहन देने हेतु एक अलग से स्कूल भी खोला, जिसका प्रधान अब्दुस्समद को बनाया गया. उसे 'शीरी कलम' (मधुर लेखनी) की उपाधि भी प्रदान की गई. बादशाह स्वयं इस विभाग का निरीक्षण करता था और प्रोत्साहन देता था. वास्तव में उसका यह प्रयास 'सुलहकुल' के सिद्धान्त के अनुरूप था, तभी तो इसमें सभी वर्गों के विद्यार्थी सीखने आते थे.
> 'जहाँगीर के समय में मुगल चित्रकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी " : विवेचना
जहाँगीर का शासनकाल मुगल चित्रकला के स्वर्णकाल के रूप में जाना जाता है. उसके समय में चित्रकला की विशेष उन्नति हुई.
जहाँगीर को बचपन से ही चित्रकला के प्रति प्रेम था. उसकी कुमारावस्था में 'अकारिजा' नामक एक ईरानी चित्रकार था और उसी का पुत्र अबुल हसन जहाँगीर का प्रिय चित्रकार था. जहाँगीर के द्वारा अपनी आत्मकथा में भी सर्वत्र चित्रों की प्रशंसा की गई है. उसकी आत्मकथा के जिल्द पर अबुल हसन द्वारा उसके राज्याभिषेक का चित्र बहुत ही मोहक बना है. इस उपलक्ष्य में जहाँगीर ने अबुल हसन को 'नादिर उज-जमन' की उपाधि प्रदान की.
जहाँगीर के समय बिशनदास नामक प्रख्यात चित्रकार उसके दरबार में रहता था. उसके विषय में जहाँगीर ने लिखा है कि, “शबीह लगाने में उसका कोई सानी नहीं रखता. जहाँगीर ने विशनदास को फारस के शाह के चित्र को बनाने के लिए उसे फारस भेजा.
जहाँगीर के समय बने एक प्रसिद्ध चित्र में एक साधु अपनी कुटी के आगे धुन में मस्त है, जनता उनके सामने दर्शन के लिए एकत्र है. उनके ऊपर नीम का एक हरा-भरा पेड़ है तथा छतों पर कौआ का एक जोड़ा बैठा है. यह चित्र बड़ा ही सजीव है तथा वर्तमान में बोस्तम संग्रहालय में है.
जहाँगीर के समय में स्त्रियाँ भी चित्र बनाती थीं. भारत कला भवन में जहाँगीर के समय का एक ऐसा चित्र है, जिसमें एक महिला चित्रकार शबीह लगा रही है.
जहाँगीर के समय में आगारजा, मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद, मनोहर, माधव, तुलसी, गोवर्धन आदि प्रसिद्ध चित्रकार थे.
> जहाँगीर शैली की विशेषताएँ
जहाँगीर के समय में मुगल शैली ने एक नवीन रूप धारण किया और उसमें नवीनता आ गई. बारीकी और तैयारी में वह अकबर के समय से आगे निकल गई. इस काल में शिकार के दृश्यों का चित्रांकन भव्य रूप से किया गया है. इस काल में बने चित्रों में पशु-पक्षियों के चित्रों में कमाल का स्वभाव दिखाया गया है.
जहाँगीर को फूल-पत्ती के चित्र बनवाने में विशेष रुचि रही. प्रकृति के विभिन्न रूपों का इतना सफल और स्वाभाविक चित्रण इस शैली के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं मिलता है. रेखांकन और रंग समायोजन की दृष्टि से उस्ताद मंसूर द्वारा बनाए गए चित्र अपूर्व हैं.
हाशियों के निर्माण का अधिक विकसित रूप जहाँगीर के समय में देखने को मिलता है. हाशियों में फलों, लताओं, बेलों और पौधों आदि का अलंकारिक प्रयोग किया गया है. उनके बीच-बीच में कहीं-कहीं तितलियाँ, चिड़ियाँ और अन्य प्रकार के पशु-पक्षी डाल दिए गए हैं. इन हाशियों की विशेषता यह है कि ये चित्रों से मेल खाते हुए बनाये गए हैं तथा प्रायः इनमें सोने की राख का छिड़काव किया गया है. इन चित्रों में घनत्व एवं उभार का समावेश बड़ी मात्रा में किया गया है. प्रकाश तथा छाया का प्रभाव भी इनमें देखा जा सकता है. इन सभी कारणों की वजह से जहाँगीरकालीन चित्रकला को मुगल चित्रकला का चरम रूप कहा जाता है. उसने स्वयं अपनी आत्मकथा में अपने चित्रकला के प्रेम को प्रकट करते हुए लिखा है कि, “यदि एक चित्र को कई चेहरों और प्रत्येक चेहरा अलग-अलग चित्रकार का बनाया हुआ हो, तो मैं यह जान सकता हूँ कि, कौनसा चेहरा किसने बनाया है और यदि चेहरे में आँखें किसी ने एवं भौहें किसी और की बनाई हुई हों, तो भी मैं पहचान लूँगा कि बनाने वाले कौन हैं."
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, जहाँगीर स्वयं चित्रकला का एक बड़ा पारखी व्यक्ति था और उसके दरबार में अनेकों प्रख्यात चित्रकारों को संरक्षण मिला जिन्होंने अपने समय की परम्परा के अनुसार, उत्कृष्ट कोटि के चित्र बनाए.
> शाहजहाँ के समय की चित्रकला
शाहजहाँ अकबर एवं जहाँगीर की तरह चित्रकला का प्रेमी नहीं था, फिर भी उसके समय में चित्रकला को दरबारी संरक्षण मिलता रहा.
जहाँगीर के समय के मनोहर और बिशनदास के अतिरिक्त अनूप, चतुरमणि, होनहार, बालचन्द, विचित्र, मीर हासिम आदि उल्लेखनीय चित्रकार थे. शाहजहाँ का पुत्र दारा भी चित्रकला का बड़ा संरक्षक था.
शाहजहाँ के समय 'बादशाहनामा' को चित्रित करवाया गया. इसके कई सौ चित्रों में से अब केवल एक चित्र ही प्राप्य है, जिसमें शाहजहाँ डल झील को पार कर रहा है. इसमें झील का चित्रांकन बड़ा ही मनोहारी बन पड़ा है.
इस काल में अनेक यवन सुन्दरियों के चित्र भी मिलते हैं. रंगमहल और विलासिता के चित्र भी मिलते हैं. नायिकाभेद के चित्रों के प्रमुख चित्रकार बिहारी और केशव थे.
दरबारी जीवन के चित्रों में भी अनेक उल्लेखनीय चित्र हैं. एक चित्र में कांधार के सूबेदार अली मर्दान के आगमन का दृश्य है. चित्र की अग्रभूमि में शाही घोड़ों की पंक्तियाँ खड़ी हैं. मध्य में सूबेदार, जिनके पीछे अनेक अमीर और सहायक खड़े हैं, मुगल ढंग का 'मुजरा' अदा कर रहे हैं. सबसे ऊपर शाही नौबतखाने का दृश्य है, इसमें 30 व्यक्ति भाग ले रहे हैं.
जहाँगीर के काल के दरबारी अदब-कायदे का प्रयोग शाहजहाँ के काल में और भी बढ़ गया था, इससे चित्रों में कृत्रिमता और जड़ता आ गई है, यद्यपि इस काल में हस्तमुद्राओं का यथार्थ अंकन हुआ पर उनमें जीवन का अभाव है. चित्रों में ऐसा कुछ नहीं जिससे कि वे बोल उठें.
शाहजहाँ के समय में हाशिये की चित्रण कला में भी उन्नति होती रही और ये हाशिये मूल चित्र में इतने उभरकर आए हैं कि, इनसे चित्र की कलाहीनता और भी स्पष्ट हो जाती है. रंग-संयोजन अधिक अच्छा नहीं है, अक्सर चटकीले रंगों का प्रयोग अधिक किया गया है.
> औरंगजेब के समय की चित्रकला
औरंगजेब को चित्रकला से घृणा थी. अतः उसने चित्रकारों को कोई प्रश्रय नहीं दिया फिर भी उसके समय में कुछ चित्र बने जिसमें ‘शाहजहाँ का जनाजा' और ग्वालियर के किले में बन्द उसके कुटुम्बियों के चित्र सर्वात्रिक प्रसिद्ध हैं, औरंगजेब के स्वयं के भी चित्र बड़ी संख्या में उसके समय में बने, फिर भी कहा जा सकता है कि उसके शासनकाल में चित्रकला पर प्रतिबन्ध होने से उसका पतन हो गया.
> मुगल और राजपूत चित्रकला की शैली में अन्तर
मुगल युग में चित्रकला, यद्यपि मूलतः ईरानी थी, वस्तुतः ईरानी तथा हिन्दू विचारों का संयुक्त परिणाम थी तथा मुगल और राजपूत दो विचारधाराओं के रूप में विकसित हुई. राजपूत तथा मुगल शैली में निम्नलिखित मुख्य अन्तर हैं—
1. मुगल चित्रकला वस्तुतः दरबारी चित्रकला है, जबकि राजपूत कला में सामान्यजन का चित्रण किया गया है. इस शैली में चित्रकार जनता एवं हिन्दू राजाओं के चित्र बनाते थे.
2. मुगल शैली के चित्रकार बादशाह की इच्छानुसार उनसे इनाम पाने के लालच में चित्र बनाते थे अर्थात् इनकी तूलिका स्वतन्त्र नहीं थी, जबकि राजपूत शैली के चित्र स्वतन्त्र रूप से बनाए जाते थे. उनके चित्रों में स्वच्छन्दता और स्वतन्त्र कल्पना की अभिव्यक्ति अधिक है.
3. मुगल शैली में भड़कीले एवं चटकदार रंगों का प्रयोग अधिकतर किया जाता था. ये रंग दरबारी वैभव के प्रतीक थे, किन्तु राजपूत शैली में ऐसे रंगों का प्रयोग अत्यन्त सीमित है. ये प्राचीन भारत की कलाशैलियों अजन्ता, एलोरा आदि पर आधारित हैं.
4. राजपूत शैली के चित्रों में दृश्यों के चित्रण में विविधता का प्रयोग अधिक किया गया है. इनमें अनेक प्रकार के प्राकृतिक एवं जीवन-सम्बन्धी अनेक विभिन्न दृश्य अंकित हैं, जबकि मुगल शैली में केवल बादशाह और उनके दरबार से सम्बन्धित चित्रों का अंकन किया गया है.
5. धार्मिक ते-रिवाजों की दृष्टि से भी इन दोनों शैलियों में पर्याप्त अन्तर है.
6. राजपूत शैली की कला में हमें अनेक विषयों के दर्शन होते हैं; जैसे— ग्रामीण जीवन, सामाजिक रीति-रिवाज, धार्मिक और पौराणिक कथाओं का अंकन आदि है, जबकि मुगल शैली में युद्ध, विजय एवं दरबार से जुड़े हुए चित्रों की ही प्रधानता है.
7. विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, मुगल शैली एवं राजपूत शैली के चित्र अकबर एवं जहाँगीर के समय आपस में इतने घुल-मिल गए थे कि उनकी स्वतन्त्र पहचान करना कठिन है. राजपूत नायक-नायिकाएँ फारसी बालाओं की भाँति ही हरे पेड़ों के नीचे बैठे दिखाए गए हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि, जब मुगल शैली के चित्रकारों को शाही संरक्षण नहीं मिला तब वे हिन्दू राजाओं के दरबारों में चले गए और उनके द्वारा बनाए गए चित्रों पर मुगल शैली का ही स्पष्ट प्रभाव पड़ा.
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