BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | कृषि
कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्त्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | कृषि
- कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्त्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है।
- खाद्यान्नों के अतिरिक्त यह विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल भी पैदा करती है। इसके अतिरिक्त, कुछ उत्पादों जैसे चाय, कॉफी, मसाले इत्यादि का भी निर्यात किया जाता है।
कृषि की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और उत्पादन योगदान
- कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी रही है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि के योगदान का अनुपात 1951 से लगातार घटने के उपरांत भी यह 2010-11 में देश की लगभग 52 प्रतिशत जनसंख्या के लिए रोजगार और आजीविका का साधन थी।
- कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में घटता अंश गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि कृषि में किसी भी प्रकार की गिरावट और प्रगतिरोध अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में गिरावट लाएँगे जो समाज के लिए व्यापक निहितार्थ है।
- कृषि के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने इसके आधुनिकीकरण के लिए भरसक प्रयास किए हैं।
- भारतीय कृषि में सुधार के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, पशु चिकित्सा सेवाएँ और पशु प्रजनन केंद्र की स्थापना, बागवानी विकास, मौसम विज्ञान और मौसम के पूर्वानुमान के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास को वरीयता दी गई ।
- विगत वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है परंतु इससे देश में पर्याप्त मात्रा में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। कृषि में विकास दर कम हो रही है जो कि एक चिंताजनक स्थिति है।
- वर्तमान में भारतीय किसान को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से एक बड़ी चुनौती का सामना कृषि सेक्टर में विशेष रूप से करना पड़ रहा है और हमारी सरकार कृषि सेक्टर में विशेष रूप से सिंचाई, ऊर्जा, ग्रामीण सड़कों, मंडियों और यंत्रीकरण में सार्वजनिक पूँजी के निवेश को कम करती जा रही है।
- रासायनिक उर्वरकों पर सहायिकी कम करने से उत्पादन लागत बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों पर आयात कर घटाने से भी देश में कृषि पर हानिकारक प्रभाव पड़ा है। किसान कृषि में पूँजी निवेश कम कर रहे हैं जिसके कारण कृषि में रोजगार घट रहे हैं।
- भोजन एक आधारभूत आवश्यकता है और देश के प्रत्येक नागरिक को न्यूनतम पोषण युक्त भोजन मिलना चाहिए।
- यदि हमारी जनसंख्या के किसी भाग को यह उपलब्ध नहीं होता तो वह खंड खाद्य सुरक्षा से वंचित है। हमारे देश के कुछ प्रदेशों, विशेषत: आर्थिक दृष्टि से कम विकसित राज्यों, जहाँ अधिक निर्धनता व्याप्त है, वहाँ उन लोगों का अनुपात अधिक है जिन्हें खाद्य सुरक्षा प्राप्त नहीं है।
- देश के सुदूर क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं और अनिश्चित खाद्य आपूर्ति की अधिक संभावना होती है।
- समाज के सभी वर्गों को खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए हमारी सरकार ने सावधानीपूर्वक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली की रचना की है।
- इसके दो घटक हैं; (क) बफर स्टॉक (ख) सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक कार्यक्रम है। जो ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यक वस्तुएँ सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती है।
- भारत की खाद्य सुरक्षा नीति का प्राथमिक उद्देश्य सामान्य लोगों में को खरीद सकने योग्य कीमतों पर खाद्यान्नों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है।
- इस नीति का केन्द्र कृषि उत्पादन में वृद्धि और भंडारों को बनाए रखने के लिए चावल और गेहूँ की अधिक प्राप्ति के लिए समर्थन मूल्य को निर्धारित करना है।
- खाद्यान्नों की अधिक प्राप्ति और भंडारण की व्यवस्था फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) करती है। जबकि इसके वितरण को सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुनिश्चित करती है।
- भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर किसानों से खाद्यान्न प्राप्त करती है। सरकार उर्वरक, ऊर्जा और जल जैसे कृषि निवेशों पर सहायिकी (Subsidies) उपलब्ध कराती थी।
- जल और उर्वरकों के अधिक और अविवेकपूर्ण प्रयोग से जलाक्रांतता, लवणता और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी की समस्याएँ पैदा हो गई हैं।
- उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य निवेशों में सहायिकी और एफ सीआई द्वारा शर्तिया खरीद ने शस्य प्रारूप को असंतुलित दिया है। जो न्यूनतम समर्थन मूल्य उन्हें मिलता है उसके लिए गेहूँ और चावल की अधिक फसलें उगाई जा रही हैं। पंजाब और हरियाणा इसके अग्रणी उदाहरण है।
- उपभोक्ताओं को दो वर्गों में बाँट दिया गया है - गरीबी रेखा से नीचे (Below Poverty Line BPL) और गरीबी रेखा से ऊपर (Above Poverty Line - APL) और प्रत्येक वर्ग के लिए कीमतें अलग-अलग हैं। परंतु यह वर्गीकरण पूर्ण नहीं है क्योंकि इससे अनेक हकदार गरीब लोग बीपीएल वर्ग से बाहर हो गए हैं।
- कई एपीएल श्रेणी के लोग एक फसल खराब होने से ही बीपीएल श्रेणी में आ जाते हैं और प्रशासकीय दृष्टि से ऐसे परिवर्तनों को समायोजित करना कठिन हो जाता है।
- यदि सरकार उपयुक्त कृषि अवसंरचना ऋणों की सुविधा उपलब्ध कराती है और नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देती है तो प्रत्येक जिला और ब्लॉक को खाद्यान्नों के पैदावार में आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।
- केवल गेहूँ और चावल पर ध्यान देने की अपेक्षा उस क्षेत्र में उगने वाली खाद्य फसलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिसमें वृद्धि की बेहतर संभावनाएँ हों ।
- सिंचाई सुविधाओं और विद्युत उपलब्ध करवाने जैसे आवश्यक अवसंरचना को बढ़ावा देने से कृषि में निजी पूँजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
- सतत् पोषणीय आधार पर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि और अनाजों के व्यापार को बंधन से मुक्ति से भारी मात्रा में रोजगार पैदा होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी भी घटेगी।
- धीरे-धीरे खाद्य फसलों की कृषि का स्थान फलों, सब्जियों, तिलहनों और औद्योगिक फसलों की कृषि लेती जा रही है। इससे अनाजों और दालों के अंतर्गत निवल बोया गया क्षेत्र कम होता जा रहा है।
- भारत की बढ़ती जनसंख्या के साथ घटता खाद्य उत्पादन देश की भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर प्रश्न चिह्न लगाता है। भूमि के आवासन (Housing) इत्यादि जैसे गैर-कृषि भू-उपयोगों और कृषि के बीच बढ़ती भूमि की प्रतिस्पर्धा के कारण बोए गए निवल क्षेत्र में कमी आई है।
- भूमि की उत्पादकता ने घटती प्रवृतित्त दर्शानी आरम्भ कर दी है। उर्वरक, पीड़कनाशी और कीटनाशी, जिन्होंने कभी नाटकीय परिणाम प्रस्तुत किए थे, को अब मिट्टी के निम्नीकरण का दोषी माना जा रहा है।
- जल की कालिक कमी के कारण सिंचित क्षेत्र में कमी आई है। असक्षम जल प्रबंधन से जलाक्रांतता और लवणता की समस्याएँ खड़ी हो गई हैं ।
- इसका एक मुख्य कारण भूमि निम्नीकरण है। किसानों को मुफ्त बिजली उपलब्ध करवाने के कारण जल-सघन फसलें उगाने के लिए कुछ क्षेत्र के किसानों को सिंचाई के लिए अधिकाधिक भूमिगत जल को पंपों के द्वारा निकालने का प्रोत्साहन मिला।
- कम वर्षा वाले क्षेत्रों जैसे पंजाब में चावल तथा महाराष्ट्र में गन्ने की खेती इसके उदाहरण हैं। इससे भूमिगत जलभृत (Aquifer) में जल का भंडारण कम होता जा रहा है।
- परिणामस्वरूप कई कुएँ और नलकूप सूख गए हैं। इससे सीमांत और छोटे किसान कृषि छोड़ने पर मजबूर हो गए हैं।
- बड़े किसानों को उनके गहरे नलकूपों से अभी भी पानी उपलब्ध है परंतु बहुत से दूसरे किसान जल की कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं। अपर्याप्त भंडारण सुविधाएँ और बाजार के अभाव से भी किसान हतोत्साहित होते हैं।
- इस प्रकार किसान उत्पादन और बाजार की अनियमितता से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। उनको दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है। एक तो उन्हें कृषि लागतों जैसे उच्च पैदावार वाले बीजों, उर्वरकों इत्यादि के लिए अधिक दाम देने पड़ते हैं वहीं दूसरी ओर खरीद मूल्य बढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
- किसानों की पैदावार एक साथ मंडी में पहुँचती है जिसके कारण खरीद मूल्य कम मिलता है परंतु उन्हें मजबूरी में अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं। इसलिए, छोटे किसानों की सुरक्षा बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है।
- वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है। उपनिवेश काल में भी यही स्थिति मौजूद थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोपीय व्यापारी भारत आए तो उस समय भी भारतीय मसाले विश्व के विभिन्न देशों में निर्यात किए जाते थे और दक्षिण भारत में किसानों को इन फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। आज भी गर्म मसाले भारत से निर्यात किए जाने वाली मुख्य वस्तुओं में शामिल हैं।
- ब्रिटिश काल में अंग्रेज व्यापारी भारत के कपास क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए और भारतीय कपास को ब्रिटेन में सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में निर्यात किया गया।
- मैनचेस्टर और लिवरपूल में सूती वस्त्र उद्योग भारत में पैदा होने वाली उत्तम किस्म की कपास की उपलब्धता पर फली - फूली ।
- 1917 में बिहार में हुए चम्पारण आंदोलन की शुरुआत इसीलिए हुई क्योंकि इस क्षेत्र के किसानों पर नील की खेती करने के लिए दबाव डाला गया था।
- नील ब्रिटेन के सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चा माल था। ये किसान इसलिए भड़के क्योंकि उन्हें अपने उपभोग के लिए अनाज उगाने से मना कर दिया गया था।
- 1990 के बाद, वैश्वीकरण के तहत भारतीय किसानों को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
- चावल, कपास, रबड़, चाय, कॉफी, जूट और मसालों का मुख्य उत्पादक होने के बावजूद भारतीय कृषि विश्व के विकसित देशों से स्पर्धा करने में असमर्थ है क्योंकि उन देशों में कृषि को अत्यधिक सहायिकी दी जाती है।
- आज भारतीय कृषि दोराहे पर है। भारतीय कृषि को सक्षम और लाभदायक बनाना है तो सीमांत और छोटे किसानों की स्थिति सुधारने पर जोर देना होगा।
- हरित क्रांति ने लंबा-चौड़ा वायदा किया परंतु आज यह कई विवादों से घिरी है। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि हरित क्रांति के दौरान रसायनों के अधिक प्रयोग, जलभृतों के सूखने और जैव विविधता विलुप्त होने के कारण भूमि का निम्नीकरण हुआ है।
- वास्तव में कार्बनिक (organic) कृषि का आज अधिक प्रचलन है क्योंकि यह उर्वरकों तथा कीटनाशकों जैसे कारखानों में निर्मित रसायनों के बिना की जाती है। इसीलिए पर्यावरण पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
- कुछ अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण घटते आकार के जोतों पर यदि खाद्यान्नों की खेती ही होती रही तो भारतीय किसानों का भविष्य अंधकारमय है।
- भारत में लगभग 60 करोड़ लोग लगभग 25 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर निर्भर हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति के हिस्से में औसतन आधा हैक्टेयर से भी कम कृषि भूमि आती है।
- भारतीय किसानों को शस्यावर्तन करना चाहिए और खाद्यान्नों के स्थान पर कीमती फसलें उगानी चाहिए।
- इससे आमदनी अधिक होगी और इसके साथ पर्यावरण निम्नीकरण में कमी आएगी।
- फलों, औषधीय पौधों, बायो-डीजल फसलों (जट्रोफा और जोजोबा), फूलों और सब्जियों को उगाने के लिए चावल या गन्ने से बहुत कम सिंचाई की आवश्यकता है।
- भारत में जलवायु विविधता का विभिन्न प्रकार की कीमती फसलें उगाकर उपयोग किया जा सकता है।
- कृषि हमारे देश की प्राचीन आर्थिक क्रिया है। पिछले हजारों वर्षों के दौरान भौतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के अनुसार खेती करने की विधियों में सार्थक परिवर्तन हुआ है |
- जीवन निर्वाह खेती से लेकर वाणिज्य खेती तक कृषि के अनेक प्रकार हैं। वर्तमान समय में भारत के विभिन्न भागों में निम्नलिखित प्रकार के कृषि तंत्र अपनाए गए हैं।
- इस प्रकार की कृषि भारत के कुछ भागों में अभी भी की जाती है। प्रारंभिक जीवन निर्वाह कृषि भूमि के छोटे टुकड़ों पर आदिम कृषि औजारों जैसे लकड़ी के हल, डाओ (dao) और खुदाई करने वाली छड़ी तथा परिवार अथवा समुदाय श्रम की मदद से की जाती है।
- इस प्रकार की कृषि प्रायः मानसून, मृदा की प्राकृतिक उर्वरता और फसल उगाने के लिए अन्य पर्यावरणीय परिस्थितियों की उपयुक्तता पर निर्भर करती है।
- यह 'कर्तन वहन प्रणाली' (slash and burn) कृषि है। किसान जमीन के टुकड़े साफ करके उन पर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज व अन्य खाद्य फसलें उगाते हैं।
- जब मृदा की उर्वरता कम हो जाती है तो किसान उस भूमि के टुकड़े से स्थानांतरित हो जाते हैं और कृषि के लिए भूमि का दूसरा टुकड़ा साफ करते हैं।
- कृषि के इस प्रकार के स्थानांतरण से प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा मिट्टी की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है। चूँकि किसान उर्वरक अथवा अन्य आधुनिक तकनीकों का प्रयोग नहीं करते, इसीलिए इस प्रकार की कृषि में उत्पादकता कम होती है।
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गहन जीविका कृषि
- इस प्रकार की कृषि उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ भूमि पर जनसंख्या का दबाव अधिक होता है।
- यह श्रम-गहन खेती है जहाँ अधिक उत्पादन के लिए अधिक मात्रा में जैव- रासायनिक निवेशों और सिंचाई का प्रयोग किया जाता है।
- भूस्वामित्व में विरासत के अधिकार के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी जोतों का आकार छोटा और लाभप्रद होता जा रहा है और किसान वैकल्पिक रोजगार न होने के कारण सीमित भूमि से अधिकतम पैदावार लेने की कोशिश करते हैं। अतः कृषि भूमि पर बहुत अधिक दबाव है।
- इस प्रकार की कृषि के मुख्य लक्षण आधुनिक निवेशों जैसे अधिक पैदावार देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उच्च पैदावार प्राप्त करना है।
- कृषि के वाणिज्यीकरण का स्तर विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए हरियाणा और पंजाब में चावल वाणिज्य की एक फसल है परंतु ओडिशा में यह एक जीविका फसल है।
- रोपण कृषि भी एक प्रकार की वाणिज्यिक खेती है। इस प्रकार की खेती में लंबे-चौड़े क्षेत्र में एकल फसल बोई जाती है।
- रोपण कृषि, उद्योग और कृषि के बीच एक अंतरापृष्ठ (interface) है। रोपण कृषि व्यापक क्षेत्र में की जाती है जो अत्यधिक पूँजी और श्रमिकों की सहायता से की जाती है।
- इससे प्राप्त सारा उत्पादन उद्योग में कच्चे माल के रूप प्रयोग होता है।
- भारत में चाय, कॉफी, रबड़, गन्ना, केला इत्यादि महत्त्वपूर्ण रोपण फसले है। असम और उत्तरी बंगाल में चाय, कर्नाटक में कॉफी वहाँ की मुख्य रोपण फसलें हैं।
- चूँकि रोपण कृषि में उत्पादन बिक्री के लिए होता है इसलिए इसके विकास में परिवहन और संचार साधन से संबंधित उद्योग और बाजार महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
- देश में कृषि पद्धतियों और शस्य प्रारूपों में प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए, देश में बोई जाने वाली फसलों में अनेक प्रकार के खाद्यान्न और रेशे वाली फसलें, सब्जियाँ, फल, मसाले इत्यादि शामिल हैं।
- भारत में तीन शस्य ऋतुएँ हैं, जो इस प्रकार हैं- रबी, खरीफ और जायद ।
- रबी फसलों को शीत ऋतु में अक्टूबर से दिसंबर के मध्य बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में अप्रैल से जून के मध्य काटा जाता है।
- गेहूँ, जौ, मटर, चना और सरसों कुछ मुख्य रबी फसलें हैं। यद्यपि ये फसलें देश के विस्तृत भाग में बोई जाती हैं उत्तर और उत्तरी पश्चिमी राज्य जैसे - पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश गेहूँ और अन्य रबी फसलों के उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण राज्य हैं ।
- शीत ऋतु में शीतोष्ण पश्चिमी विक्षोभों से होने वाली वर्षा इन फसलों के अधिक उत्पादन में सहायक होती है।
- पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ भागों में हरित क्रांति की सफलता भी उपर्युक्त रबी फसलों की वृद्धि में एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
- खरीफ फसलें देश के विभिन्न क्षेत्रों में मानसून के आगमन के साथ बोई जाती हैं और सितंबर-अक्टूबर में काट ली जाती हैं।
- इस ऋतु में बोई जाने वाली मुख्य फसलों में चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, तर (अरहर), मूंग, उड़द, कपास, जूट, मूंगफली और सोयाबीन शामिल हैं।
- चावल की खेती मुख्य रूप से असम, पश्चिमी बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र विशेषकर कोंकण तटीय क्षेत्रों, उत्तर प्रदेश और बिहार में की जाती है।
- पिछले कुछ वर्षों में चावल पंजाब और हरियाणा में बोई जाने वाली महत्त्वपूर्ण फसल बन गई है।
- असम, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा में धान की तीन फसलें ऑस, अमन और बोरो बोई जाती हैं।
- रबी और खरीफ फसल ऋतुओं के बीच ग्रीष्म ऋतु में बोई जाने वाली फसल को जायद कहा जाता है।
- जायद ऋतु में मुख्यतः तरबूज, खरबूजे, खीरे, सब्जियों और चारे की फसलों की खेती की जाती है। गन्ने की फसल को तैयार होने में लगभग एक वर्ष लगता है।
- मुख्य फसलें मिट्टी, जलवायु और कृषि पद्धति में अंतर के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की खाद्य और अखाद्य फसलें उगाई जाती हैं।
- भारत में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें चावल, गेहूँ, मोटे अनाज, दालें, चाय, कॉफी, गन्ना, तिलहन, कपास और जूट इत्यादि हैं।
- भारत में अधिकांश लोगों का खाद्यान्न चावल है। हमारा देश चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है।
- यह एक खरीफ की फसल है जिसे उगाने के लिए उच्च तापमान (25 सेल्सियस से ऊपर ) और अधिक आर्द्रता (100 सेमी. से अधिक वर्षा ) की आवश्यकता होती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे सिंचाई करके उगाया जाता है।
- चावल उत्तर और उत्तर पूर्वी मैदानों, तटीय क्षेत्रों और डेल्टाई प्रदेशों में उगाया जाता है।
- नहरों के जाल और नलकूपों की सघनता के कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ कम वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल की फसल उगाना संभव हो पाया है।
- गेहूँ भारत की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। जो देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भागों में पैदा की जाती है।
- रबी की फसल को उगाने के लिए शीत ऋतु और पकने के समय खिली धूप की आवश्यकता होती है। इसे उगाने के लिए समान रूप से वितरित 50 से 75 सेमी. वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है ।
- देश में गेहूँ उगाने वाले दो मुख्य क्षेत्र हैं - उत्तर-पश्चिम में गंगा-सतलुज का मैदान और दक्कन का काली मिट्टी वाला प्रदेश।
- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ भाग गेहूँ पैदा करने वाले मुख्य राज्य हैं।
- ज्वार, बाजरा और रागी भारत में उगाए जाने वाले मुख्य मोटे अनाज हैं। यद्यपि इन्हें मोटा अनाज कहा जाता है परंतु इनमें पोषक तत्त्वों की मात्रा अत्यधिक होती है।
- उदाहरणतया, रागी में प्रचुर मात्रा में लोहा, कैल्शियम, सूक्ष्म पोषक और भूसी मिलती है।
- क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से ज्वार देश की तीसरी महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। यह फसल वर्षा पर निर्भर होती है।
- अधिकतर आर्द्र क्षेत्रों में उगाए जाने के कारण इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। 2016-17 में इसके प्रमुख उत्पादक राज्य राजस्थान महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश थे।
- यह बलुआ और उथली काली मिट्टी पर उगाया जाता है। सन् 2016-17 में गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा इसके मुख्य उत्पादक राज्य थे।
- रागी शुष्क प्रदेशों की फसल है और यह लाल, काली, बलुआ, दोमट और उथली काली मिट्टी पर अच्छी तरह उगायी जाती है।
- रागी के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, झारखंड और अरुणाचल प्रदेश हैं।
- यह एक ऐसी फसल है जो खाद्यान्न व चारा दोनों रूप में प्रयोग होती है। यह एक खरीफ फसल है।
- यह 210° सेल्सियस से 279° सेल्सियस तापमान में और पुरानी जलोढ़ मिट्टी पर अच्छी प्रकार से उगायी जाती है।
- बिहार जैसे कुछ राज्यों में मक्का रबी की ऋतु में भी उगाई जाती है। आधुनिक प्रौद्योगिक निवेशों जैसे उच्च पैदावार देने वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई के उपयोग मक्का का उत्पादन बढ़ा है।
- कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश मक्का के मुख्य उत्पादक राज्य है।
- भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा उपभोक्ता देश है। शाकाहारी खाने में दालें सबसे अधिक प्रोटीनदायक होती हैं। तूर (अरहर), उड़द, मूंग, मसूर, मटर और चना भारत की मुख्य दलहनी फसलें हैं।
- दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है और इन्हें शुष्क परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है।
- फलीदार फसलें होने के नाते अरहर को छोड़कर अन्य सभी दालें वायु से नाइट्रोजन लेकर भूमि की उर्वरता को बनाए रखती है।
- अतः इन फसलों को आमतौर पर अन्य फसलों के आवर्तन (rotating) में बोया जाता है। भारत में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक दाल के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
खाद्यान्नों के अलावा अन्य खाद्य फसलें
- गन्ना एक उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय फसल है। यह फसल 219 सेल्सियस से 270 सेल्सियस तापमान और 75 सेमी. से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाली उष्ण और आर्द्र जलवायु में बोयी जाती है।
- कम वर्षा वाले प्रदेशों में सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसे अनेक मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा इसके लिए बुआई से लेकर कटाई तक काफी शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है।
- ब्राजील के बाद भारत गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह चीनी , गुड़, खांडसारी और शीरा बनाने के काम आता है।
- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, पंजाब और हरियाणा गन्ना के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
- 2016-17 में भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा बड़ा तिलहन उत्पादक देश था। सन् 2016-17 में तोरिया के उत्पादन में भारत का विश्व में कनाडा और चीन के बाद तीसरा स्थान था।
- देश में कुल बोए गए क्षेत्र के 12 प्रतिशत भाग पर कई तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं। मूंगफली, सरसों, नारियल, तिल, सोयाबीन, अरंडी, बिनौला, अलसी और सूरजमुखी भारत उगाई जाने वाली मुख्य तिलहन फसलें हैं।
- इनमें से अधिकतर खाद्य है और खाना बनाने में प्रयोग किए जाते हैं। परंतु इनमें से कुछ तेल के बीजों को साबुन, प्रसाधन (श्रृंगार का सामान) और उबटन उद्योग में कच्चे माल के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
- मूंगफली खरीफ की फसल है तथा देश में मुख्य तिलहनों के कुल उत्पादन का आधा भाग इसी फसल से प्राप्त होता है।
- गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र मूंगफली के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
- अलसी और सरसों रबी की फसलें हैं। तिल उत्तरी भारत में खरीफ की फसल है और दक्षिणी भारत में रबी की।
- अरंडी, खरीफ और रबी दोनों ही फसल ऋतुओं में बोया जाता है।
- चाय की खेती रोपण कृषि का एक उदाहरण है। यह एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ की फसल है जिसे शुरुआत में अंग्रेज भारत में लाए थे।
- आज अधिकतर चाय बागानों के मालिक भारतीय हैं। चाय का पौधा उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु, ह्यूमस और जीवांश युक्त गहरी मिट्टी तथा सुगम जल निकास वाले ढलवाँ क्षेत्रों में भलीभाँति उगाया जाता है।
- चाय की झाड़ियों को उगाने के लिए वर्ष भर कोष्ण, नम और पालारहित जलवायु की आवश्यकता होती है। वर्ष भर समान रूप से होने वाली वर्षा की बौछारें इसकी कोमल पत्तियों के विकास में सहायक होती हैं।
- चाय एक श्रम-सघन उद्योग है। इसके लिए प्रचुर मात्रा में सस्ता और कुशल श्रम चाहिए। इसकी ताजगी बनाए रखने के लिए चाय की पत्तियाँ बागान में ही संसाधित की जाती है।
- चाय के मुख्य उत्पादक क्षेत्रों में असम, पश्चिमी बंगाल में दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों की पहाड़ियाँ, तमिलनाडु और केरल हैं।
- इनके अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, मेघालय, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा आदि राज्यों में भी चाय उगाई जाती है। सन् 2014 के बाद से अब तक भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश था।
- सन् 2016-17 में भारत ने विश्व की लगभग 4.0 प्रतिशत कॉफी का उत्पादन किया और भारत का विश्व में छठा स्थान है।
- भारतीय कॉफी अपनी गुणवत्ता के लिए विश्वविख्यात है। हमारे देश में अरेबिका किस्म की कॉफी पैदा की जाती है जो आरम्भ में यमन से लाई गई थी।
- इस किस्म की कॉफी की विश्व भर में अधिक माँग है। इसकी कृषि की शुरूआत 'बाबा बूदन पहाड़ियों' से हुई और आज भी इसकी खेती नीलगिरि की पहाड़ियों के आस पास कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में की जाती है।
- सन् 2014 के बाद से अब तक भारत का विश्व में फलों और सब्जियों के उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान था। यह स्थान अभी भी यथावत बना है। यह भारत उष्ण और शीतोष्ण कटिबंधीय दोनों ही प्रकार के फलों का उत्पादक है।
- भारतीय फलों जिनमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल के आम नागपुर और चेरापूँजी (मेघालय) के संतरे, केरल, मिजोरम, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु के केले, उत्तर प्रदेश और बिहार की लीची, मेघालय के अनन्नास, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के अंगूर तथा हिमाचल प्रदेश और जम्मू व कश्मीर सेब, नाशपाती, खूबानी और अखरोट की विश्वभर में बहुत माँग है।
- > भारत विश्व की लगभग 13 प्रतिशत सब्जियों का उत्पादन करता है। भारत का मटर फूलगोभी, प्याज, बंदगोभी, टमाटर, बैंगन और आलू उत्पादन में प्रमुख स्थान है।
- रबड़ भूमध्यरेखीय क्षेत्र की फसल है परंतु विशेष परिस्थितियों में उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों में भी उगाई जाती है।
- इसको 200 सेमी. से अधिक वर्षा और 25° सेल्सियस से अधिक तापमान वाली नम और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।
- रबड़ एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है जो उद्योगों में प्रयुक्त होता है।
- इसे मुख्य रूप से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, अंडमान निकोबार द्वीप समूह और मेघालय में गारो पहाड़ियों में उगाया जाता है।
- विश्व में प्राकृतिक रबड़ के उत्पादन में 8.2 प्रतिशत हिस्से के साथ भारत का विश्व में चौथा स्थान था।
- कपास, जूट, सन और प्राकृतिक रेशम भारत में उगाई जाने वाली चार मुख्य रेशेदार फसलें हैं।
- इनमें से पहली तीन मिट्टी में फसल उगाने से प्राप्त होती हैं और चौथा रेशम के कीड़े के कोकून से प्राप्त होता है जो मलबरी पेड़ की हरी पत्तियों पर पलता है ।
- रेशम उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों का पालन 'रेशम उत्पादन' (Sericulture) कहलाता है।
- भारत को कपास के पौधे का मूल स्थान माना जाता है। सूती कपडा उद्योग में कपास एक मुख्य कच्चा माल है।
- कपास उत्पादन में भारत का विश्व में द्वितीय स्थान है। दक्कन पठार के शुष्कतर भागों में काली मिट्टी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
- इस फसल को उगाने के लिए उच्च तापमान, हल्की वर्षा या सिंचाई, 210 दिन पाला रहित और खिली धूप की आवश्यकता होती है। यह खरीफ की फसल है और इसे पककर तैयार होने में 6 से 8 महीने लगते हैं।
- महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश कपास के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
- जूट को सुनहरा रेशा कहा जाता है। जूट की फसल बाढ़ के मैदानों में जलनिकास वाली उर्वरक मिट्टी में उगाई जाती है।
- जहाँ हर वर्ष बाढ़ से आई नई मिट्टी जमा होती रहती है। इसकी वृद्धि के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है।
- पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिशा तथा मेघालय जूट के मुख्य उत्पादक राज्य है।
- इसका प्रयोग बोरियाँ, चटाई, रस्सी, तंतु व धागे, गलीचे और दूसरी दस्तकारी की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है।
- इसकी उच्च लागत के कारण और कृत्रिम रेशों और पैकिंग सामग्री, विशेषकर नाइलोन की कीमत कम होने के कारण, बाजार में इसकी माँग कम हो रही है।
- भारत में कृषि हजारों वर्षों से की जा रही है। परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थागत परिवर्तन के अभाव में लगातार भूमि संसाधन के प्रयोग से कृषि का विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा इसकी गति मंद हो जाती है।
- सिंचाई के साधनों का विकास होने के उपरांत भी देश के एक बहुत बड़े भाग में अभी भी किसान खेती-बाड़ी के लिए मानसून और भूमि की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भर हैं।
- बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। 60 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को आजीविका प्रदान करने वाली कृषि में कुछ गंभीर तकनीकी एवं संस्थागत सुधार लाने की आवश्यकता है।
- स्वतंत्रता के पश्चात् देश में संस्थागत सुधार करने के लिए जोतों की चकबंदी, सहकारिता तथा जमींदारी आदि समाप्त करने को प्राथमिकता गयी।
- प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार मुख्य लक्ष्य था। भूमि पर पुश्तैनी अधिकार के कारण यह टुकड़ों में बँटती जा रही थी जिसकी चकबंदी करना अनिवार्य था।
- भूमि सुधार के कानून तो बने परंतु इनको लागू करने में ढील की गई। 1960 और 1970 के दशक में भारत सरकार ने कई प्रकार के कृषि सुधारों की शुरुआत की।
- पैकंज टेक्नोलॉजी पर आधारित हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति (ऑपरेशन फ्लड) जैसी कृषि सुधार के लिए कुछ रणनीतियाँ आरंभ की गई थी। परंतु इसके कारण विकास कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया।
- इसलिए 1980 तथा 1990 के दशकों में व्यापक भूमि विकास कार्यक्रम शुरू किया गया जो संस्थागत और तकनीकी सुधारों पर आधारित था।
- इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदमों में सूखा, बाढ़, चक्रवात, आग तथा बीमारी के लिए फसल बीमा के प्रावधान और किसानों को कम दर पर ऋण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ग्रामीण बैंकों, सहकारी समितियों और बैंकों की स्थापना सम्मिलित थे।
- किसानों के लाभ के लिए भारत सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना (पीएआईएस) भी शुरू की।
- इसके अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर किसानों के लिए मौसम की जानकारी के बुलेटिन और कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।
- किसानों को बिचौलियों और दलालों के शोषण से बचाने के लिए न्यूनतम सहायता मूल्य और कुछ महत्त्वपूर्ण फसलों के लाभदायक खरीद मूल्यों की सरकार घोषणा करती है।
भूदान- ग्रामदान
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