BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | समकालीन विश्व में लोकतंत्र

लोकतंत्र का फैलाव बहुत सरलता से और एक जैसे रूप में नहीं हुआ है। विभिन्न देशों में इसने काफी सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं। आज भी लोकतंत्र की स्थिरता और उसके टिकाऊपन को लेकर संदेह बना रहता है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | समकालीन विश्व में लोकतंत्र

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | समकालीन विश्व में लोकतंत्र

संविधान निर्माण

  • लोकतंत्र में शासक लोग मनमानी करने के लिए आजाद नहीं हैं। कुछ बुनियादी नियम है जिनका पालन नागरिकों और सरकार, दोनों को करना होता है। ऐसे सभी नियमों का सम्मिलित रूप संविधान कहलाता है।
  • देश का सर्वोच्च कानून होने की हैसियत से संविधान नागरिकों के अधिकार, सरकार की शक्ति और उसके कामकाज के तौरतरीकों का निर्धारण करता है।
नए संविधान की ओर
  • 26 अप्रैल, 1994 की मध्य रात्रि को दक्षिण अफ्रीका गणराज्य का नया झंडा लहराया और यह दुनिया का एक नया लोकतांत्रिक देश बन गया। रंगभेद वाली शासन व्यवस्था समाप्त हुई और सभी नस्ल के लोगों की मिलीजुली सरकार के गठन का रास्ता खुला।
  • नए लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका के उदय के साथ ही अश्वेत नेताओं ने अश्वेत समाज से आग्रह किया कि सत्ता में रहते हुए गोरे लोगों ने जो जुल्म किए थे उन्हें वे भूल जाएँ और गोरों को माफ कर दें।
  • सभी नस्लों तथा स्त्री-पुरुष की समानता, लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर आधारित नए दक्षिण अफ्रीका का निर्माण करें। एक पार्टी ने दमन और नृशंस हत्याओं के जोर पर शासन किया था और दूसरी पार्टी ने आजादी की लड़ाई की अगुवाई की थी।
  • नए संविधान के निर्माण के लिए दोनों ही साथ-साथ बैठीं। दो वर्षों की चर्चा और बहस के बाद उन्होंने जो संविधान बनाया वैसा अच्छा संविधान दुनिया में कभी नहीं बना था।
  • इस संविधान में नागरिकों को जितने व्यापक अधिकार दिए गए हैं उतने दुनिया के किसी संविधान ने नहीं दिए हैं। साथ ही उन्होंने यह फैसला भी किया कि मुश्किल मामलों के समाधान की कोशिशों में किसी को भी अलग नहीं किया जाएगा और न ही किसी को बुरा या दुष्ट मानकर बर्ताव किया जाएगा।
  • दक्षिण अफ्रीकी संविधान की प्रस्तावना ही इस भावना को बहुत खूबसूरत ढंग से व्यक्त करती है। दक्षिण अफ्रीकी संविधान से दुनिया भर के लोकतांत्रिक लोग प्रेरणा लेते हैं। अभी हाल तक जिस देश की दुनिया भर में अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए निंदा की जाती थी, आज उसे लोकतंत्र के मॉडल के रूप में देखा जाता है।
  • यह काम दक्षिण अफ्रीकी लोगों द्वारा साथ रहने, साथ काम करने के दृढ़ निश्चय और पुराने कड़वे अनुभवों को आगे के इंद्रधनुषी समाज बनाने में एक सबक के रूप में प्रयोग करने की समझदारी दिखाने के कारण संभव हुआ।
संविधान" शब्द की उत्पत्ति
  • संविधान को अंग्रेजी में Constitution कहते हैं। मूलत: इसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द “कॉन्स्टीट्यूटस" (Constitutes) से हुई है, जिसका अर्थ “शासन करने के लिए सिद्धांत" होता है।
  • संविधान एक मौलिक दस्तावेज है, इसे मूल तौर पर हम देश की आधारभूत तथा सर्वोच्च विधि कह सकते हैं। इन विधियों के द्वारा राज्य के तीन प्रमुख अंगों यथा- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को विभिन्न शक्तियाँ प्रदान किया जाता है।
  • किसी भी समूह को अनुशासन तथा सर्वसम्मत रूप में विकास करने के लिए सार्वजनिक रूप से कुछ आधारभूत नियमों की आवश्यकता पड़ती है जो समूह के सभी सदस्यों को बुनियादी तौर पर पता हो ताकि आपस में एक मूल समझ तथा समन्वय कायम रह सके। इसी समझ और समन्वय को लागू करने का कार्य संविधान करता है।
  • संविधान समाज में शक्ति के मूल वितरण को स्पष्ट करता है और निर्णय तथा संशोधन करने की शक्ति को भी स्पष्ट करता है। इसके साथ ही यह सरकार के सृजन तथा उसके द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों का भी रास्ता तय करता है।
  • इसके अलावा संविधान एक मजबूत ढाँचा प्रदान करता है जिसके द्वारा सरकार कुछ सृजनात्मक कार्य कर सके तथा समाज की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं को न्यायपूर्ण तरीके से फलीभूत कर सके। इसे हम “न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए कुंजी" कह सकते हैं।
  • कोई भी संविधान किसी राष्ट्र विशेष की आधारभूत पहचान का कार्य करता है। इसके ही द्वारा किसी राष्ट्र विशेष का नागरिक अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं, लक्ष्य और विभिन्न स्वतंत्रताओं का उपयोग करता है। संविधान हमें एक नैतिक पहचान भी देता है जिसके द्वारा हम अपने कर्त्तव्य, अधिकार तथा सीमाओं के बारे में जान पाते हैं।
संवैधानिक राज्य से तात्पर्य है
  • कानून का शासन।
  • संविधान के माध्यम से शासकों के अनियंत्रित शक्ति पर नियंत्रण यानी सीमित शासन।
  • शक्ति का विभाजन ।
  • जनता के मौलिक अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करना।
संविधान का उद्देश्य
  • सरकार के प्रमुख अंगों का सृजन करना । उदाहरण:विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका आदि ।
  • सरकार के अंगों की शक्तियों, कर्त्तव्यों तथा दायित्वों का निर्धारण करना।
  • सरकार के सभी अंगों के बीच संबंधों को स्पष्ट करना ।
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों एवं मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लेख करना ।
  • सरकार के विभिन्न तंत्रों के बीच शक्ति विभाजन करना।

संविधान क्यों

  • नए लोकतंत्र में दमन करने वाले और दमन सहने वाले, दोनों ही साथ- साथ समान हैसियत से रहने की योजना बना रहे थे। दोनों के लिए ही एक-दूसरे पर भरोसा कर पाना आसान नहीं था। उनके अंदर अपने- अपने किस्म के डर थे। वे अपने हितों की रखवाली भी चाहते थे।
  • बहुसंख्यक अश्वेत इस बात पर चौकस थे कि लोकतंत्र में बहुमत के शासन वाले मूल सिद्धांत से कोई समझौता न हो। उन्हें बहुत सारे सामाजिक और आर्थिक अधिकार चाहिए थे | अल्पसंख्यक गोरों को अपनी संपत्ति और अपने विशेषाधिकारों की चिंता थी।
  • गोरे लोग बहुमत के शासन का सिद्धांत और एक व्यक्ति एक वोट को मान गए। वे गरीब लोगों और मजदूरों के कुछ बुनियादी . अधिकारों पर भी सहमत हुए।
  • भविष्य में शासकों का चुनाव कैसे होगा, इसके बारे में नियम तय होकर लिखित रूप में आ जाते हैं। चुनी हुई सरकार क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या नहीं कर सकती यह भी लिखित रूप में मौजूद होना है। इन्हीं लिखित नियमों में नागरिकों के अधिकार भी होते हैं। पर ये नियम तभी काम करेंगे जब जीतकर आने वाले लोग इन्हें आसानी से और मनमाने ढंग से नहीं बदलें।
  • दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने इन्हीं चीजों का इंतजाम किया। वे कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत हुए। वे इस बात पर भी सहमत हुए कि ये नियम सबसे ऊपर होंगे और कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती। इन्हीं बुनियादी नियमों के लिखित रूप को संविधान कहते हैं ।
  • संविधान रचना सिर्फ दक्षिण अफ्रीका की ही खासियत नहीं है। हर देश में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं ।
  • लोकतांत्रिक शासन प्रणाली हो या न हो पर दुनिया के सभी देशों को ऐसे बुनियादी नियमों की जरूरत होती है। यह बात सिर्फ सरकारों पर ही लागू नहीं होती । संविधान लिखित नियमों की ऐसी किताब है जिसे किसी देश में रहने वाले सभी लोग सामूहिक रूप से मानते हैं।
  • संविधान सर्वोच्च कानून है जिससे किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों (जिन्हें नागरिक कहा जाता है) के बीच के आपसी संबंध तय होने के साथ-साथ लोगों और सरकार के बीच के संबंध भी तय होते हैं। संविधान अनेक काम करता है जिनमें ये प्रमुख हैं: 
    • पहला यह साथ रह रहे विभिन्न तरह के लोगों के बीच जरूरी भरोसा और सहयोग विकसित करता है।
    • दूसरा यह स्पष्ट करता है कि सरकार का गठन कैसे होगा और किसे फैसले लेने का अधिकार होगा।
    • तीसरा यह सरकार के अधिकारों की सीमा तय करता है और हमें बताता है कि नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और
    • चौथा, यह अच्छे समाज के गठन के लिए लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त करता है।
  • जिन देशों में संविधान है, वे सभी लोकतांत्रिक शासन वाले हों यह जरूरी नहीं है। लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन है वहाँ संविधान का होना जरूरी है। ब्रिटेन के खिलाफ आजादी की लड़ाई के बाद अमेरिकी लोगों ने अपने लिए संविधान का निर्माण किया।
  • फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांसीसी लोगों ने एक लोकतांत्रिक संविधान को मान्यता दी। इसके बाद से यह चलन हो गया कि हर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में एक लिखित संविधान हो ।
भारतीय संविधान का निर्माण
  • दक्षिण अफ्रीका की ही तरह भारत का संविधान भी बहुत कठिन परिस्थितियों के बीच बना। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश के लिए संविधान बनाना आसान काम नहीं था ।
  • विभाजन से जुड़ी हिंसा में सीमा के दोनों तरफ कम-से-कम दस लाख लोग मारे जा चुके थे। एक बड़ी समस्या और भी थी।
  • अंग्रेजों ने देसी रियासतों के शासकों को यह आजादी दे दी थी कि वे भारत या पाकिस्तान जिसमें इच्छा हो अपनी रियासत का विलय कर दें या स्वतंत्र रहें। इन रियासतों का विलय मुश्किल और अनिश्चय भरा काम था। जब संविधान लिखा जा रहा था
  • तब देश का भविष्य इतना सुरक्षित और चैन भरा नहीं लगता था जितना आज है संविधान निर्माताओं को देश के वर्तमान और भविष्य की चिंता थी।
संविधान निर्माण का रास्ता
  • सारी मुश्किलों के बावजूद भारतीय संविधान निर्माताओं को एक बड़ा लाभ था। दक्षिण अफ्रीका में जिस तरह संविधान निर्माण के दौर में ही सारी बातों पर सहमति बनानी पड़ी वैसी स्थिति उस समय के भारत में नहीं थी।
  • भारत में आजादी की लड़ाई के दौरान ही लोकतंत्र समेत अधिकांश बुनियादी बातों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का काम हो चुका था। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन सिर्फ एक विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष भर नहीं था। यह न केवल अपने समाज को फिर से जगाने का. वरन् अपने समाज और राजनीति को बदलने और नए सिरे से गढ़ने का आंदोलन भी था।
  • आजादी के बाद भारत को किस रास्ते पर चलना चाहिए इसे लेकर आजादी के संघर्ष के दौरान भी तीखे मतभेद थे। ऐसे कुछ मतभेद अब तक भी बने हुए हैं। पर कुछ बुनियादी विचारों पर लगभग सभी लोगों की सहमति कायम हो चुकी थी।
  • 1928 में ही मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के आठ अन्य नेताओं ने भारत का एक संविधान लिखा था। 1931 में कराची में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह रूपरेखा रखी गई थी कि आजाद भारत का संविधान कैसा होगा ।
  • दोनों दस्तावेजों में स्वतंत्र भारत के संविधान में सार्वभौम वयस्क मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई थी। संविधान की रचना करने के लिए बैठने से पहले ही कुछ बुनियादी मूल्यों पर सभी नेताओं की सहमति बन चुकी थी।
  • औपनिवेशिक शासन की राजनैतिक संस्थाओं को जानने-समझने से भी नई राजनैतिक संस्थाओं का स्वरूप तय करने में मदद मिली। अंग्रेजी हुकूमत ने बहुत कम लोगों को वोट का अधिकार दिया था।
  • इसके आधार पर अंग्रेजों ने जिस विधायिका का गठन किया था वह बहुत कमजोर थी। 1937 के बाद पूरे ब्रिटिश शासन वाले भारत में प्रादेशिक असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए थे। इनमें बनी सरकारें पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थीं।
  • विधानसभाओं में जाने और काम करने का अनुभव तब बहुत लाभदायक हुआ क्योंकि इन्हीं भारतीय लोगों को अपनी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ बनानी थीं और चलाना था।
  • भारतीय संविधान में कई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को पुरानी •व्यवस्था से लगभग जस का तस अपना लिया गया जैसे कि 1935 का भारत सरकार कानून।
  • आजादी के बाद भारत के स्वरूप को लेकर वर्षों पहले से चले चिंतन और बहसों ने भी काफी लाभ पहुंचाया। हमारे नेताओं में इतना आत्मविश्वास आ गया था कि उन्हें बाहर के विचार और अनुभवों को अपनी जरूरत के अनुसार अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई।
  • नेता फ्रांसीसी क्रांति के आदर्शों, ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र के कामकाज और अमेरिका के अधिकारों की सूची से काफी प्रभावित थे। रूस में हुई समाजवादी क्रांति ने भी अनेक भारतीयों को प्रभावित किया और वे सामाजिक और आर्थिक समता पर आधारित व्यवस्था बनाने की कल्पना करने लगे थे।
  • वे दूसरों की सिर्फ नकल नहीं कर रहे थे। हर कदम पर वे यह सवाल जरूर पूछते थे कि क्या ये चीजें भारत के लिए उपयुक्त होंगी। इन सभी चीजों ने हमारे संविधान के निर्माण में मदद की।
संविधान सभा
  • चुने गए जनप्रतिनिधियों की जो सभा संविधान नामक विशाल दस्तावेज को लिखने का काम करती है उसे संविधान सभा कहते हैं। भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे।
  • संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर, 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों- भारत और पाकिस्तान में बँट गया।
  • संविधान सभा भी दो हिस्सों में बँट गई भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा । संविधान सिर्फ संविधान सभा के सदस्यों के विचारों को ही व्यक्त नहीं करता है। यह अपने समय की व्यापक सहमतियों को व्यक्त करता है।
  • दुनिया के कई देशों में संविधान को फिर से लिखना पड़ा क्योंकि संविधान में दर्ज बुनियादी बातों पर ही वहाँ के सभी सामाजिक समूहों या राजनैतिक दलों की सहमति नहीं थी।
  • कई देशों में संविधान है पर वह कागज का टुकड़ा या किसी भी अन्य किताब की तरह का दस्तावेज भर है। कोई भी उस पर आचरण नहीं करता। पर हमारे संविधान का अनुभव एकदम अलग है।
  • पिछली आधी सदी से ज्यादा की अवधि में अनेक सामाजिक समूहों ने संविधान के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए। किसी भी बड़े सामाजिक समूह या राजनैतिक दल ने खुद संविधान की वैधता पर सवाल नहीं उठाया। यह हमारे संविधान की एक असाधारण उपलब्धि है।
  • संविधान को मानने का दूसरा कारण यह है कि संविधान सभा भी भारत के लोगों का ही प्रतिनिधित्व कर रही थी। उस समय सार्वभौम वयस्क मताधिकार नहीं था। इसलिए संविधान सभा का चुनाव देश के लोग प्रत्यक्ष ढंग से नहीं कर सकते थे।
  • तीन वर्षों में कुल 114 दिनों की गंभीर चर्चा हुई। सभा में पेश हर प्रस्ताव, हर शब्द और वहाँ कही गई हर बात को रिकॉर्ड किया गया और संभाला गया। इन्हें कांस्टीट्यूएंट असेम्बली डिबेट्स नाम से 12 खंडों में प्रकाशित किया गया। →
संविधान सभा
  • कैबिनेट मिशन की संस्तुतियों के आधार पर भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन जुलाई, 1946 में हुआ। 9 दिसम्बर 1946 को आहूत संविधान सभा की बैठक में कांग्रेस भी सम्मिलित हुई यद्यपि वह उसकी कई धाराओं से असहमत थी।
  • संविधान सभा का पहला अधिवेशन डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में 9 दिसम्बर, 1946 को आरम्भ हुआ। सभा के सदस्यों में कांग्रेस पांच भूतपूर्व सदस्य प्रांतीय कांग्रेस समितियों के ग्यारह अध्यक्ष, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग कार्य समिति के आठ सदस्य, मुस्लिम लीग की प्रान्तीय समितियों के दो अध्यक्ष, प्रांतों के आठ मुख्यमंत्री, दस मंत्री, 155 विधान सभा सदस्य हिंदू महासभा के तीन भूतपूर्व अध्यक्ष तथा उद्योगपति, कुलपति, पत्रकार एवं लेखक थे।
  • 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष बनाये गये। 22 दिसम्बर, 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा प्रस्तुत 'उद्देश्य प्रस्ताव के साथ ही संविधान निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ।
  • साढ़े तीन वर्ष की अवधि में संविधान सभा की बैठक मात्र 161 दिन हुई। कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार गठित संविधान सभा की कई सीमाएं थी। सभा का गठन ब्रिटिश सम्राट के निर्देशानुसार गवर्नर जनरल द्वारा किया गया था।
  • इस प्रक्रिया में संविधान सभा जो संविधान बनाती उसे ब्रिटिश संसद के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाना था। इधर ब्रिटेन द्वारा भारत में स्वशासन के विकास की कल्पना स्पष्ट रूप से ब्रिटिश डोमिनियन के रूप में ही की गयी थी। लेकिन 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने पर ये सभी सीमायें स्वतः समाप्त हो गयी।
  • भारत और पाकिस्तान के दो राष्ट्रों में विभाजित हो जाने के कारण भारतीय संविधान सभा की संरचना को पुनः गठित करना पड़ा।
  • प्रथमतः इसकी सदस्य संख्या में कमी की गयी क्योंकि सिंध, बलूचिस्तान, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बंगाल, पंजाब तथा असम के सिलहट जिले के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रह गये।
  • पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब के प्रांतों में नये निर्वाचन हुए। संविधान सभा की बैठक जब पुनः 31 अक्टूबर, 1947 को आहूत की गयी तो सदन की सदस्यता घटकर 299 (पूर्व में 389 ) ही रह गयी। इनमें से 284 सदस्य ही 26 नवम्बर, 1949 को उपस्थिति थे। जिन्होंने अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए।
  • संविधान निर्माण प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारूप समिति' द्वारा किया गया जिसकी स्थापना 29 अगस्त, 1947 को की गयी प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीम राव अम्बेडकर थे।
  • प्रस्तावों को शामिल करते हुए भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे फरवरी, 1948 में प्रकाशित किया गया। संविधान के प्रारूप पर संविधान सभा द्वारा विचार करने की प्रक्रिया 17 अक्टूबर 1949 को पूर्ण हुई।
  • तृतीय वाचन हेतु संविधान सभा की बैठक 14 नवम्बर, 1949 को आरम्भ हुई और यह वाचन 26 नवम्बर, 1949 को समाप्त हुआ।
  • सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसी तिथि को संविधान पर हस्ताक्षर करके उसे पारित घोषित कर दिया। लेकिन कोई भी संविधान केवल अपनी संविधान सभा के बूते नहीं बनता। 
  • भारत की संविधान सभा इतनी विविधतापूर्ण थी कि वह सामान्य ढंग से काम ही नहीं कर सकती थी यदि उसके पीछे उन सिद्धांतों पर आम सहमति न होती जिन्हें संविधान में रखा जाना था। 
  • इन सिद्धांतों पर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सहमति बनी। एक तरह से संविधान सभा केवल उन सिद्धांतों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आंदोलन से विरासत में प्राप्त किए थे।
  • इस तरह संविधान सभा द्वारा संविधान बना दिया गया। जिसे 26 नवंबर, 1949 को अंगीकृत किया गया। 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से इस संविधान को लागू किया गया।
  • यह संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता और दूर दृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को ऐसा संविधान दे सके जिसमें जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों और सर्वोच्च आकांक्षाओं को स्थान दिया गया था।
  • यद्यपि कि भारतीय संविधान में समय, स्थान एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक गतिशीलता को समायोजित करने हेतु 100 से अधिक संशोधन भी किए गए और अन्य संशोधन अपनी संसदीय संवैधानिक प्रक्रिया की कतार में भी है।

भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य

  • भेदभाव और गैर-बराबरी मुक्त भारत का सपना डॉ. अंबेडकर के मन में भी था जिन्होंने संविधान निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
  • असमानता कैसे दूर की जा सकती है इस बारे में उनके विचार आप में से कुछ को भारतीय संविधान निर्माताओं की सूची में एक बड़ा नाम न होने पर हैरानी हुई होगी यानि महात्मा गांधी का नाम। वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे। संविधान सभा के अनेक सदस्य उनके विचारों के अनुयायी थे।
  • 1931 में अपनी पत्रिका यंग इंडिया में उन्होंने संविधान से अपनी अपेक्षा के बारे में लिखा था दूसरों से अलग थे। अक्सर गांधी और उनके नजरिए की कटु आलोचना की। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी चिंताओं को बहुत स्पष्ट ढंग से रखा था।
संविधान का दर्शन
  • जिन मूल्यों ने स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा दी और उसे दिशा-निर्देश दिए तथा जो इस क्रम में जाँच परख लिए गए वे ही भारतीय लोकतंत्र का आधार बने। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इन्हें शामिल किया गया। भारतीय संविधान की सारी धाराएँ इन्हीं के अनुरूप बनी हैं।
  • संविधान की शुरुआत बुनियादी मूल्यों की एक छोटी-सी उद्देश्यिका के साथ होती है। इसे संविधान की प्रस्तावना या उद्देशिका कहते हैं।
  • अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से प्रेरणा लेकर समकालीन दुनिया के अधिकांश देश अपने संविधान की शुरुआत एक प्रस्तावना के साथ करते हैं।
    • संविधान की प्रस्तावना लोकतंत्र पर एक खूबसूरत कविता - सी लगती है। इसमें वह दर्शन शामिल है जिस पर पूरे संविधान का निर्माण हुआ है।
    • यह दर्शन सरकार के किसी भी कानून और फैसले के मूल्यांकन और परीक्षण का मानक तय करता है - इसके सहारे परखा जा सकता है कि कौन कानून, कौन फैसला अच्छा या बुरा है। इसमें भारतीय संविधान की आत्मा बसती है।

लोकतंत्र का फैलाव बहुत सरलता से और एक जैसे रूप में नहीं हुआ है। विभिन्न देशों में इसने काफी सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं। आज भी लोकतंत्र की स्थिरता और उसके टिकाऊपन को लेकर संदेह बना रहता है।

लोकतंत्र के विस्तार के विभिन्न चरण

  • आधुनिक लोकतंत्र की कहानी कम-से-कम दो सदी पहले शुरु हुई। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के इस जनविद्रोह ने फ्रांस में टिकाऊ और पक्के लोकतंत्र की स्थापना नहीं की थी।
  • 19वीं सदी में फ्रांस में बार-बार लोकतंत्र को उखाड़ फेंका गया और बार-बार इसे बहाल किया गया, लेकिन फ्रांसीसी क्रांति ने पूरे यूरोप में जगह-जगह पर लोकतंत्र के लिए संघर्षों की प्रेरणा दी।
  • ब्रिटेन में लोकतंत्र की तरफ कदम उठाने की शुरूआत फ्रांसीसी क्रांति से काफी पहले ही हो गई थी, लेकिन वहाँ प्रगति की रफ्तार काफी कम थी।
  • 18वीं और 19वीं सदी में हुए राजनैतिक घटनाक्रमों ने राजशाही 'और सामंत वर्ग की शक्ति में कमी कर दी थी। फ्रांसीसी क्रांति के आसपास ही उत्तर अमेरिका में स्थित ब्रिटिश उपनिवेशों ने 1776 में खुद को आजाद घोषित कर दिया था।
  • 1787 में इन उपनिवेशों ने साथ मिलकर संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन किया। 1787 में एक लोकतांत्रिक संविधान को मंजूर किया, लेकिन इस व्यवस्था में भी मतदान का अधिकार पुरूषों तक सीमित था।
  • 19वीं सदी में लोकतंत्र के लिए होने वाले संघर्ष अकसर राजनैतिक समानता, आजादी और न्याय जैसे मूल्यों को लेकर ही होते थे। एक मुख्य माँग यह रही कि सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार हो ।
  • यूरोप के जो देश तब लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाते जा रहे थे वे भी सभी लोगों को वोट देने की अनुमति नहीं देते थे। कुछ देशों में केवल उन्हीं लोगों को वोट का अधिकार था, जिनके पास सम्पत्ति थी। अकसर महिलाओं को तो वोट का अधिकार मिलता ही नहीं था। संयुक्त राज्य अमेरिका में पूरे देश में अश्वेतों को 1965 तक मतदान का अधिकार नहीं था।
  • लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाले लोग सभी वयस्कों औरत या मर्द, अमीर या गरीब, श्वेत या अश्वेत - को मतदान का अधिकार देने की माँग कर रहे थे। इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार या सार्वभौम मताधिकार कहा जाता है। यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के यही देश आधुनिक लोकतंत्र का पहला समूह बनाते हैं। उपनिवेशवाद का अंत काफी लंबे समय तक एशिया और अफ्रीका के अधिकांश देश यूरोपीय राष्ट्रों के उपनिवेश बने रहे।
  • परतंत्र देशों के लोगों को आजादी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। यह लड़ाई अपने औपनिवेशिक शासकों से आजादी की ही नहीं थी, इसमें अपना नेता खुद चुनने की इच्छा भी शामिल थी।
  • भारत ने औपनिवेशिक से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय संघर्ष किया। इनमें से अनेक देशों ने दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था अपना ली। भारत ने 1947 में आजादी हासिल की और एक गुलाम देश से लोकतांत्रिक देश बनने की राह पर चल पड़ा। उपनिवेश रहे अधिकांश दूसरे देशों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
हाल का दौर
  • 1989-90 के दौर में पोलैंड और अनेक दूसरे देश सोवियत नियंत्रण के बाहर हो गए। उन्होंने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई। 1991 में सोवियत संघ खुद भी बिखर गया। सोवियत संघ में कुल 15 गणराज्य थे। ये सभी स्वतंत्र देशों के रूप में सामने आए। इनमें से अधिकांश ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही अपनाई।
  • पूर्वी यूरोप पर से सोवियत नियंत्रण की समाप्ति और सोवियत संघ के टूटने का दुनिया के राजनैतिक नक्शे पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इस समय भारत के पड़ोस में भी काफी बड़े बदलाव हुए।
संयुक्त राष्ट्र संघ
  • संयुक्त राष्ट्र के सभी 192 सदस्य देशों को संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक-एक वोट मिला हुआ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक सदस्य देश के प्रतिनिधियों द्वारा चुने गए अध्यक्ष की अगुवाई में हर साल चलती है।
  • महासभा का स्वरूप काफी कुछ संसद की तरह है जिसमें सभी तरह की चर्चाएँ होती हैं। विभिन्न देशों के बीच टकराव की स्थिति में महासभा कोई कार्रवाई नहीं कर सकती।
  • संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ऐसे महत्त्वपूर्ण फैसले लेती है। इसके कुल पंद्रह सदस्य होते हैं। परिषद् के पाँच स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन । बाकी दस सदस्यों का चुनाव आम सभा दो वर्ष के लिए करती है। पर असली ताकत पाँच स्थायी सदस्यों के हाथ में ही होती है। स्थायी सदस्यों को वीटो अधिकार मिला है। अगर कोई भी स्थायी सदस्य देश इस अधिकार का प्रयोग करता है तो सुरक्षा परिषद् उसकी मर्जी के खिलाफ फैसला नहीं कर सकती।
  • संयुक्त राष्ट्र को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की माँग करने वाले लोगों और देशों की संख्या बढ़ती जा रही है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष दुनिया के किसी भी देश को उधार और ऋण देने वाली सबसे बड़ी संस्था है। इसके सभी 190 सदस्य देशों को समान मताधिकार प्राप्त नहीं है। कोई देश इस कोष में जितने धन का योगदान करता है उसी अनुपात में उसके वोट का वजन भी तय होता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के करीब आधे वोटों पर सिर्फ त (अमेरिका, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, सऊदी अरब, चीन और रूस) का अधिकार है। 166 सदस्य इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन के फैसलों को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं। विश्व बैंक में भी वोटिंग की ऐसी ही प्रणाली है।
  • राष्ट्रीय सरकारों के लोकतांत्रिक होने न होने के लिए हम जिस सरल कसौटी का प्रयोग करते हैं, अधिकांश वैश्विक संस्थाएँ उस पर खरी नहीं उतरतीं । विभिन्न राष्ट्र तो पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक हो रहे हैं पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के लोकतांत्रिक चरित्र में कमी आती जा रही है।
  • 20 साल पहले दुनिया में दो महाशक्तियाँ थीं - अमेरिका और सोवियत संघ | इन दो महाशक्तियों और उनके पीछे रहने वाले देशों के समूहों की प्रतिद्वंद्विता और टकराव से इन सभी वैश्विक संगठनों का शक्ति संतुलन ज्यादा बेहतर रहा करता था।
  • सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति लगता है। यह अमेरिकी प्रभुत्व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कामकाज को प्रभावित करता है।
  • पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के लोग अपनी सरकारों की मदद के बिना एक-दूसरे के ज्यादा संपर्क में आए हैं। उन्होंने युद्ध और दुनिया पर कुछ देशों या व्यापारिक कंपनियों के प्रभुत्व के खिलाफ वैश्विक संगठन बनाए हैं।
  • किसी भी देश में लोकतंत्र जिस तरह लोगों के संघर्षों और पहल से मजबूत हुआ है वैसे ही वैश्विक मामलों में यह पहल भी लोगों के संघर्षों से ही आगे बढ़ी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में 1 जनवरी, 1942 को ब्रिटेन, सोवियत संघ, चीन तथा अन्य 26 मित्र राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें यह निर्णय हुआ कि ये राष्ट्र सम्मिलित होकर धुरी राष्ट्रों का सामना करेंगे।
  • इस संगठन को 'संयुक्त राष्ट्र' अथवा 'यूनाइटेड नेशन्स' का नाम अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट द्वारा प्रदान किया गया।
  • 30 अक्टूबर, 1943 को संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा सोवियत संघ की सरकारों ने अपने-अपने विदेश मंत्रियों के माध्यम से एक संयुक्त घोषणा की।
  • इस घोषणा में कहा गया कि “जितनी जल्दी संभव हो सके, एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की जाए। यह संगठन सभी शांतिप्रिय राष्ट्रों की सम्प्रभुता पर आधारित होगा। ऐसे सभी छोटे-बड़े राज्य इसके सदस्य बन सकेंगे। इसका उद्देश्य होगा अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा कायम रखना।''
  • संयुक्त राष्ट्र की रूपरेखा का निर्माण करने के लिए बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन 21 अगस्त, 1944 को वाशिंगटन में आयोजित किया गया जो 7 अक्टूबर, 1944 तक चला।
  • इस सम्मेलन में यह स्वीकार कर लिया गया कि संयुक्त राष्ट्र का कार्यक्षेत्र केवल अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने तक ही सीमित न रखा जाए बल्कि उसका कार्य आर्थिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना भी होना चाहिए।
  • इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों- महासभा, सुरक्षा परिषद्, सचिवालय एवं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के संबंध में निर्णय लिया गया।
  • इस सम्मेलन के प्रस्तावों में महासभा एवं सुरक्षा परिषद् की कार्य-प्रणाली पर तो सहमति हो गई, परन्तु सुरक्षा परिषद् | में मतदान प्रणाली के संबंध में सोवियत संघ एवं पश्चिमी शक्तियों के मध्य मतभेद बने ही रहे।
  • सोवियत संघ के क्रीमिया प्रदेश के याल्टा नगर में 4 फरवरी, 1944 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, सोवियत राष्ट्रपति स्टालिन तथा अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट का एक शिखर सम्मेलन प्रारम्भ हुआ।
  • सुरक्षा परिषद् में मतदान प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण निर्णय याल्टा सम्मेलन में लिए गए। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में 1 जून, 1945 को जब संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ तो इसके सदस्यों की संख्या 50 हो चुकी थी। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लेने वाला भारत भी संयुक्त राष्ट्र के मूल सदस्यों में गिना जाता है।
  • सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व ए, रामास्वामी मुदालियर के द्वारा किया गया था। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र' के घोषणा पत्र को अंतिम रूप दिया गया।
  • अधिकार पत्र पर 50 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा 26 जून, 1945 को हस्ताक्षर किए गए, पोलैण्ड का प्रतिनिधित्व अधिवेशन में नहीं हुआ था। उसने बाद में इस पर हस्ताक्षर किए और 51 मूल सदस्यों में सम्मिलित हो गया। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में एक नया अधिकार पत्र (Charter) स्वीकार किया गया जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर कहा जाता है।
  • चार्टर के अनुच्छेद 110 में यह कहा गया था कि सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्राँस, अमेरिका, चीन गणराज्य तथा शेष अधिकांश राज्यों की सरकारों द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के उपरान्त चार्टर लागू माना जाएगा।
  • 24 अक्टूबर, 1945 तक को संयुक्त राष्ट्र का प्रादुर्भाव हुआ।
  • इसके सदस्य देशों की वर्तमान संख्या 193 है।
  • संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय न्यूयॉर्क में है। इस मुख्यालय में महासभा भवन (1951 में स्थापित), महासम्मेलन भवन तथा पुस्तकालय भवन स्थित हैं। संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में संयुक्त राष्ट्र का एक पोस्ट ऑफिस भी कार्यरत है, जो संयुक्त राष्ट्र के ही टिकट का प्रयोग करता है।
  • 24 अक्टूबर को प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

लोकतंत्र

परिभाषा

  • लोकतंत्र शासन का एक ऐसा रूप है जिसमें शासकों का चुनाव लोग करते हैं। यह एक उपयोगी शुरुआत है। यह परिभाषा बहुत स्पष्ट ढंग से लोकतांत्रिक और गैर-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में अंतर कर देती है। म्यांमार के सैनिक शासकों का चुनाव लोगों ने नहीं किया है।
  • जिन लोगों का सेना पर नियंत्रण था वे देश के शासक बन गए। शासक के फैसलों में लोगों की कोई भागीदारी नहीं है, लेकिन यह सरल परिभाषा पूर्ण या पर्याप्त नहीं है। इससे हमें यह समझ में आता है कि लोकतंत्र का मतलब लोगों का शासन है।
  • इस परिभाषा का प्रयोग यदि हमने बिना सोचे-समझे किया तो फिर उन सभी सरकारों को लोकतांत्रिक कहना पड़ेगा जो चुनाव करवाती हैं और फिर हम सही नतीजे पर नहीं पहुँच पाएँगे।
लोकतंत्र की विशेषताएँ
  • लोकतंत्र शासन का एक रूप है जिसमें जनता शासकों का चुनाव करती है। इससे अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं:
    • किसी सरकार को लोकतांत्रिक कहे जाने के लिए उसके किन अधिकारियों का चुना हुआ होना आवश्यक है।
प्रमुख फैसले निर्वाचित नेताओं के हाथ
  • पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ ने अक्तूबर 1999 में सैनिक तख्तापलट की अगुवाई की। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका और खुद को देश का मुख्य कार्यकारी घोषित किया।
  • बाद में खुद को राष्ट्रपति घोषित किया और बाद में एक जनमत संग्रह कराके अपना कार्यकाल पाँच साल के लिए बढ़वा लिया।
  • पाकिस्तानी मीडिया, मानवाधिकार संगठनों और लोकतंत्र के लिए काम करने वालों ने आरोप लगाया कि जनमत संग्रह एक धोखाधड़ी है और इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियाँ की गई हैं।
  • अगस्त में लीगल फ्रेमवर्क आर्डर के जरिए पाकिस्तान के संविधान को बदल डाला। इस आर्डर के अनुसार राष्ट्रपति, राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों को भंग कर सकता है।
  • मंत्रिपरिषद् के कामकाज पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की निगरानी रहती है जिसके ज्यादातर सदस्य फौजी अधिकारी हैं।
  • इस कानून के पास हो जाने के बाद राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए। इस प्रकार पाकिस्तान में चुनाव भी हुए, चुने हुए प्रतिनिधियों को कुछ अधिकार भी मिले, लेकिन सर्वोच्च सत्ता सेना के अधिकारियों और जनरल मुशर्रफ के पास है। जनरल मुशर्रफ के शासन वाले पाकिस्तान को लोकतंत्र न कहने के अनेक ठोस कारण हैं।
  • लोगों ने राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव किया है, लेकिन चुने हुए प्रतिनिधि वास्तविक शासक नहीं हैं। वे अंतिम फैसला नहीं कर सकते।
  • अंतिम फैसला सेना के अधिकारियों और जनरल मुशर्रफ के हाथ में है जो जनता द्वारा नहीं चुने गए हैं। ऐसा तानाशाही और राजशाही वाली अनेक शासन व्यवस्थाओं में होता है। वहाँ औपचारिक रूप से चुनी हुई संसद और सरकार तो होती है पर असली सत्ता उन लोगों के हाथ में होती है जिन्हें जनता नहीं चुनती ।
  • ऐसे मामलों में असली ताकत विदेशी शक्तियों के हाथ में रहती है न कि चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में। इसे लोगों का शासन नहीं कहा जा सकता। इससे हम लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की पहली विशेषता पर पहुँचते हैं। लोकतंत्र में अंतिम निर्णय लेने की शक्ति लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के पास ही होनी चाहिए। 
एक व्यक्ति एक वोट- एक मोल
  • जिस तरह लोकतंत्र के लिए होने वाला संघर्ष सार्वभौम वयस्क मताधिकार के साथ जुड़ा था। इस सिद्धांत को लगभग पूरी दुनिया में मान लिया गया है।
  • किसी व्यक्ति को मतदान के समान अधिकार से वंचित करने के उदाहरण भी कम नहीं हैं। सऊदी अरब में औरतों को वोट देने का अधिकार नहीं है। 
  • एस्टोनिया ने अपने यहाँ नागरिकता के नियम कुछ इस तरह से बनाए हैं कि रूसी अल्पसंख्यक समाज के लोगों को मतदान का अधिकार हासिल करने में मुश्किल होती है।
  • फिजी की चुनाव प्रणाली में वहाँ के मूल वासियों के वोट का महत्त्व भारतीय मूल के फिजी नागरिक के वोट से ज्यादा है।
  • लोकतंत्र राजनैतिक समानता के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रकार हम लोकतंत्र की तीसरी विशेषता को जान लेते हैं: लोकतंत्र में हर वयस्क नागरिक का एक वोट होना चाहिए और हर वोट का एक समान मूल्य होना चाहिए।
लोकतंत्र के विपक्ष में तर्क
  • लोकतंत्र के खिलाफ वे अधिकांश तर्क सामने आए जिन्हें हम आम तौर पर सुनते हैं। ये तर्क कुछ इस प्रकार के होते हैं:-
    • लोकतंत्र में नेता बदलते रहते हैं। इससे अस्थिरता पैदा होती है।
    • लोकतंत्र का मतलब सिर्फ राजनैतिक लड़ाई और सत्ता का खेल है। यहाँ नैतिकता की कोई जगह नहीं होती।
    • लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतने सारे लोगों से बहस और चर्चा करनी पड़ती है कि हर फैसले में देरी होती है। 
    • चुने हुए नेताओं को लोगों के हितों का पता ही नहीं होता। इसके चलते खराब फैसले होते हैं।
    • लोकतंत्र में चुनावी लड़ाई महत्त्वपूर्ण और खर्चीली होती है, इसीलिए इसमें भ्रष्टाचार होता है।
    • सामान्य लोगों को पता नहीं होता कि उनके लिए क्या चीज अच्छी है और क्या चीज बुरी; इसलिए उन्हें किसी चीज का फैसला नहीं करना चाहिए।
  • निश्चित रूप से लोकतंत्र सभी समस्याओं को खत्म करने वाली जादू की छड़ी नहीं है। लोकतंत्र ने हमारे देश में या दुनिया के अन्य हिस्सों में भी गरीबी नहीं मिटाई है।
  • सरकार के स्वरूप के तौर पर लोकतंत्र सिर्फ इसी बुनियादी चीज को देखता है कि लोग अपने बारे में खुद फैसले करें। इन फैसलों में लोगों को भागीदार बनाने से फैसलों में देरी होती है। यह भी सही है कि लोकतंत्र में जल्दी-जल्दी नेतृत्व परिवर्तन होता है। कई बार बड़े फैसलों और सरकार की कार्यकुशलता पर भी इसका बुरा असर होता है।
  • इन तर्कों से यह लगता है कि हम लोकतंत्र का जो रूप हैं वह सरकार का आदर्श स्वरूप नहीं हो सकता है। वास्तविक जीवन में हमारे सामने यह सवाल नहीं होता।
लोकतंत्र के पक्ष में तर्क
  • चीन में 1958-61 के दौरान पड़ा अकाल विश्व इतिहास का अब तक ज्ञात सबसे भयावह अकाल था। इसमें करीब तीन करोड़ लोग भूख से मरे। उस समय भारत की आर्थिक स्थिति चीन से बहुत अच्छी नहीं थी। फिर भी भारत में चीन के समान अकाल और भुखमरी की स्थिति नहीं आई।
  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ऐसा दोनों देशों की सरकारी नीतियों के अंतर के कारण हुआ। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने से भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा के मामले में जिस तरह से काम किया है वैसा करने की जरूरत चीनी सकार ने महसूस नहीं की।
  • अर्थशास्त्रियों का यह भी कहना है कि किसी भी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में कभी भी बड़ा अकाल और बड़ी संख्या में भुखमरी नहीं हुई है।
  • यदि चीन में बहुदलीय चुनावी व्यवस्था होती, विपक्षी दल होता और सरकार की आलोचना कर सकने वाली स्वतंत्र मीडिया होती तो इतने सारे लोग भूख से नहीं मर सकते थे। यह उदाहरण लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति बताने वाली विशेषताओं में से एक को बहुत स्पष्ट ढंग से सामने लाता है।
  • लोगों की जरूरत के अनुरूप आचरण करने के मामले में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली किसी भी अन्य प्रणाली से बेहतर है।
  • गैर-लोकतांत्रिक सरकार लोगों की जरूरतों पर ध्यान दे भी सकती है और नहीं भी, और यह सब सरकार चलाने वालों की मर्जी पर निर्भर करेगा।
  • अगर शासकों को कुछ करने की जरूरत नहीं लगती तो उनको लोगों की इच्छा के अनुरूप काम करने की जरूरत नहीं है। पर लोकतंत्र में यह जरूरी है कि शासन करने वाले आम लोगों की जरूरतों पर तत्काल ध्यान दें। लोकतांत्रिक शासन पद्धति दूसरों से बेहतर है क्योंकि यह शासन का अधिक जवाबदेही वाला स्वरूप है।
  • गैर - लोकतांत्रिक सरकारों की तुलना में लोकतांत्रिक सरकारों के बेहतर फैसले करने का एक अन्य कारण भी है।
  • लोकतंत्र का आधार व्यापक चर्चा और बहसें हैं। लोकतांत्रिक फैसले में हरदम ज्यादा लोग शामिल होते हैं, चर्चा करके फैसले होते हैं, बैठकें होती हैं। अगर किसी एक मसले पर अनेक लोगों की सोच लगी हो तो उसमें गलतियों की गुंजाइश कम से कम हो जाती है।
  • इसमें कुछ ज्यादा समय जरूर लगता है लेकिन महत्त्वपूर्ण मामलों पर थोड़ा समय लेकर फैसले करने के अपने लाभ भी हैं। इससे ज्यादा उग्र या गैर-जिम्मेवार फैसले लेने की संभावना घटती है। इस प्रकार लोकतंत्र बेहतर निर्णय लेने की संभावना बढ़ाता है।
  • लोकतंत्र मतभेदों और टकरावों को संभालने का तरीका उपलब्ध कराता है। किसी भी समाज में लोगों के हितों और विचारों में अंतर होगा।
  • भारत की तरह भारी सामाजिक विविधता वाले देश में इस तरह का अंतर और भी ज्यादा होता है। अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं, विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं, उनकी धार्मिक मान्यताएँ अलग-अलग हैं और जातियाँ भी अलग-अलग।
  • दुनिया को ये सभी अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं और उनकी पसंद में भी अंतर है। एक समूह की पसंद और दूसरे समूह की पसंद में टकराव भी होता है।
  • इसे ताकत के बल पर सुलझाया जा सकता है। जिस समूह के पास ज्यादा ताकत होगी वह दूसरे को दबा देगा और कमजोर समूह को इसे मानना होगा, लेकिन इससे नाराजगी और असंतोष पैदा होगा। ऐसी स्थिति में विभिन्न समूह ज्यादा समय तक साथ नहीं रह सकते।
  • लोकतंत्र इस समस्या का एकमात्र शांतिपूर्ण समाधान उपलब्ध कराता है। लोकतंत्र में कोई भी स्थायी विजेता नहीं होता और कोई स्थायी रूप से पराजित नहीं होता। विभिन्न समूह एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह सकते हैं। भारत की तरह विविधता वाले देश को लोकतंत्र ही एकजुट बनाए हुए ।
  • बेहतर सरकार और सामाजिक जीवन पर प्रभाव के हिसाब से ये तीन तर्क लोकतंत्र को काफी मजबूत साबित करते हैं। लेकिन लोकतंत्र के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क उससे बनने वाली सरकार के कामकाज से जुड़ा नहीं है।
  • यह तर्क लोकतंत्र और नागरिकों के रिश्ते का है- लोकतंत्र में नागरिकों की जो हैसियत होती है वह किसी और व्यवस्था में नहीं होती। अगर इस व्यवस्था में बेहतर फैसले लेने और उत्तरदायी सरकार चलाने की काम न भी हो तब भी यह दूसरों से बेहतर है ।
  • लोकतंत्र नागरिकों का सम्मान बढ़ाता है। लोकतंत्र राजनीतिक समानता के सिद्धांत पर आधारित है, यहाँ सबसे गरीब और अनपढ़ को भी वही दर्जा प्राप्त है जो अमीर और पढ़े-लिखे लोगों को है।
  • लोग किसी शासक की प्रजा न होकर खुद अपने शासक हैं। अगर वे गलतियाँ करते हैं तब भी वे खुद इसके लिए जवाबदेह होते हैं।
  • लोकतंत्र के पक्ष में आखिरी तर्क यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था दूसरों से बेहतर है क्योंकि इसमें हमें अपनी गलती ठीक करने का अवसर भी मिलता है।
लोकतंत्र का वृहतर अर्थ
  • लोकतंत्र की इस प्रकार की व्याख्या हमें उन न्यूनतम विशेषताओं या गुणों की पहचान कराती है जो लोकतंत्र की जरूरत है। हमारे समय में लोकतंत्र का सबसे आम रूप है प्रतिनिधित्व वाला लोकतंत्र ।
  • हम जिन देशों में लोकतंत्र होने की बात करते हैं वहाँ सभी लोग शासन नहीं चलाते। सभी लोगों की तरफ से बहुमत को फैसले लेने का अधिकार होता है और यह बहुमत भी स्वयं शासन नहीं चलाता। बहुमत का शासन भी चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता है।
  • यह जरूरी हो जाता है क्योंकि:
    • आधुनिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में इतने अधिक लोग होते हैं कि हर बात लिए सबको साथ बैठाकर सामूहिक फैसला कर पाना संभव ही नहीं हो सकता।
    • अगर यह संभव हो तब भी हर एक नागरिक के पास हर फैसले में भाग लेने का समय, इच्छा या योग्यता और कौशल नहीं होता।
  • हमें लोकतंत्र की स्पष्ट लेकिन न्यूनतम जरूरी समझ मिलती है। इस स्पष्टता से हमें लोकतांत्रिक और अलोकतांत्रिक सरकारों में अंतर करने में मदद मिलती है। लेकिन इससे हमें एक सामान्य लोकतंत्र और एक अच्छे लोकतंत्र के बीच अंतर करने की क्षमता नहीं मिल जाती। इससे हम लोकतंत्र को सरकार से परं जाकर नहीं समझ पाते। इसके लिए हमें लोकतंत्र के वृहत्तर अर्थ को समझना होगा।
  • कई बार हम लोकतंत्र का प्रयोग सरकार से अलग संगठनों के लिए करते हैं। लोकतंत्र शब्द का प्रयोग फैसले लेने के उसके बुनियादी तरीके को उजागर करता है।
  • लोकतांत्रिक फैसले का मतलब होता है, उस फैसले से प्रभावित होने वाले सभी लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद और उनकी स्वीकृति से फैसले लेना यानि जो बहुत शक्तिशाली न हो उसका भी किसी फैसले में उतना ही महत्त्व होना जितना किसी बहुत शक्तिशाली का।
  • इस प्रकार लोकतंत्र एक ऐसा सिद्धांत है जिसका प्रयोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। कई बार हम लोकतंत्र शब्द का प्रयोग किसी मौजूदा सरकार के लिए नहीं करके कुछ आदर्शों के लिए करते हैं। इन्हें पाने का प्रयास सभी लोकतांत्रिक शासनों को जरूर करना चाहिए:-
    • इस देश में वास्तविक लोकतंत्र तभी आएगा जब किसी को भी भूखे पेट सोने की जरूरत नहीं रहेगी।
    • लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को फैसला लेने में समान भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए वोट के समान अधिकार भर की जरूरत नहीं है।
    • हर नागरिक को इसके लिए सूचना की समान उपलब्धता, बुनियादी शिक्षा, बुनियादी संसाधन और पक्की निष्ठा होनी चाहिए।
  • अगर इन आदर्श पैमानों के आधार पर आज की शासन व्यवस्थाओं को परखें तो लगेगा कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। फिर भी आदर्श के रूप में लोकतंत्र की हमारी समझदारी हमें बार-बार यह याद दिलाती है कि हम लोकतंत्र को इतना महत्त्व क्यों देते हैं। इससे हमें मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को परखने और उनकी कमजोरियों की पहचान करने में मदद मिलती है। इससे हमें न्यूनतम या कामचलाऊ लोकतंत्र और अच्छे लोकतंत्र के बीच का अंतर समझने में मदद मिलती है।
  • समानता के आधार पर चर्चा और विचार-विमर्श के बुनियादी सिद्धांत को माना जाए तो लोकतांत्रिक ढंग का फैसला भी कई तरह का हो सकता है। आज की दुनिया में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सबसे आम रूप है लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाना।
  • किसी भी देश में आदर्श लोकतंत्र नहीं है। एक आदर्श लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक होनी चाहिए। हर लोकतंत्र को इस आदर्श को पाने का प्रयास करना चाहिए। यह स्थिति एक बार में और एक साथ सभी के लिए हासिल नहीं की जा सकती।
  • इसके लिए लोकतांत्रिक फैसले लेने की प्रक्रिया को बचाए रखने और मजबूत करते जाने की जरूरत होती है। नागरिक के तौर पर हम जो भी काम करते हैं वह भी हमारे देश के लोकतंत्र को अच्छा या खराब बनाने में मदद करता है।
  • यहीं लोकतंत्र की ताकत है और यही कमजोरी भी। देश का भविष्य शासकों के कामकाज से भी ज्यादा नागरिकों के कामकाज पर निर्भर करता है। यही चीज लोकतंत्र को अन्य शासन व्यवस्थाओं अलग करती है।
  • राजशाही, तानाशाही या एक दल के शासन जैसी अन्य व्यवस्थाओं में सभी नागरिकों को राजनीति में हिस्सेदारी करने की जरूरत नहीं रहती।
  • दरअसल, अधिकांश गैर लोकतांत्रिक सरकारें चाहती ही नहीं कि लोग राजनीति में हिस्सा लें, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था सभी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है।
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