BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतांत्रिक अधिकार

अधिकार किसी व्यक्ति का अपने लोगों, अपने समाज और अपनी सरकार से दावा है। हम सभी खुशी से बिना डर भय के और अपमानजनक व्यवहार से बचकर जीना चाहते हैं। इसके लिए हम दूसरों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जिससे हमें कोई नुकसान न हो, कोई कष्ट न हो।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतांत्रिक अधिकार

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतांत्रिक अधिकार

अधिकार

  • अधिकार किसी व्यक्ति का अपने लोगों, अपने समाज और अपनी सरकार से दावा है। हम सभी खुशी से बिना डर भय के और अपमानजनक व्यवहार से बचकर जीना चाहते हैं। इसके लिए हम दूसरों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जिससे हमें कोई नुकसान न हो, कोई कष्ट न हो।
  • हमारे व्यवहार से भी किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए, कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। इसलिए, अधिकार तभी संभव है जब आपका अपने बारे में किया हुआ दावा दूसरे पर भी समान रूप से लागू हो। आप ऐसे अधिकार नहीं रख सकते जो दूसरों को कष्ट दें या नुकसान पहुँचाएँ।
  • समाज जिस चीज को सही मानता है, सबके अधिकार लायक मानता है वही हमारे भी अधिकार होते हैं। इसीलिए समय और स्थान के हिसाब से अधिकारों की अवधारणा भी बदलती रहती है।
  • 200 साल पहले अगर कोई कहता कि औरतों को भी वोट देने का अधिकार होना चाहिए तो उसे अजीब माना जाता। आज सऊदी अरब में उनको वोट का अधिकार न होना ही अजीब लगता है।
  • जब समाज में मान्य कायदों को लिखत पढ़त में ला दिया जाता है तो उनको असली ताकत मिल जाती है। इसके बिना वे प्राकृतिक या नैतिक अधिकार ही रह जाते हैं। 
  • गुआंतानामो बे के कैदियों को अपने दमन का विरोध करने का, उसे गलत बताने का सिर्फ नैतिक अधिकार है। पर वे इसके भरोसे किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था के पास नहीं जा सकते जो इन्हें लागू करा दे।
  • जब कानून कुछ दावों को मान्यता देता है तो उनको लागू किया जा सकता है। फिर हम उन्हें लागू करने की माँग कर सकते हैं।
  • अगर अन्य नागरिक या सरकार इन अधिकारों का आदर नहीं करते, इनका उल्लंघन करते हैं तो हम इसे अपने अधिकारों का हनन कहते हैं । 
  • ऐसी स्थिति में कोई भी नागरिक अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है, अपने अधिकारों की रक्षा की माँग कर सकता है। इसलिए हम अगर किसी दावे को अधिकार कहते हैं तो उसमें ये तीन बुनियादी चीजें होनी चाहिए। अधिकार लोगों के तार्किक दावे हैं, इन्हें समाज से स्वीकृति और अदालतों द्वारा मान्यता मिली होती है।

भारतीय संविधान में अधिकार

  • विश्व के अधिकांश दूसरे लोकतंत्रों की तरह भारत में भी ये अधिकार संविधान में दर्ज हैं। हमारे जीवन के लिए बुनियादी रूप से जरूरी अधिकारों को विशेष दर्जा दिया गया है। इन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।
  • संविधान की प्रस्तावना सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय दिलाने की बात करती है। मौलिक अधिकार इन वायदों को व्यावहारिक रूप देते हैं। ये अधिकार भारत के संविधान की एक महत्त्वपूर्ण बुनियादी विशेषता है। भारतीय संविधान 6 मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
समानता का अधिकार
  • भारतीय संविधान कहता है कि सरकार भारत में किसी व्यक्ति को कानून के सामने समानता या कानून से संरक्षण के मामले में समानता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। इसका मतलब यह हुआ कि किसी व्यक्ति का दर्जा या पद, चाहे जो हो सब पर कानून समान रूप से लागू होता है। इसे कानून का राज भी कहते हैं।
  • कानून का राज किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद है। इसका अर्थ हुआ कि कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नहीं है। किसी राजनेता, सरकारी अधिकारी या सामान्य नागरिक में कोई अंतर नहीं किया जा सकता।
  • प्रधानमंत्री हों या दूरदराज के गाँव का कोई खेतिहर मजदूर, सब पर एक ही कानून लागू होता है। कोई भी व्यक्ति वैधानिक रूप से अपने पद या जन्म के आधार पर विशेषाधिकार या खास व्यवहार का दावा नहीं कर सकता।
  • सरकार किसी से भी उसके धर्म, जाति, समुदाय लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती। दुकान, होटल और सिनेमाघरों जैसे सार्वजनिक स्थल में किसी के प्रवेश को रोका नहीं जा सकता। इसी प्रकार सार्वजनिक कुएँ, तालाब, स्नानघाट, सड़क, खेल के मैदान और सार्वजनिक भवनों के इस्तेमाल से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता।
  • ये चीजें ऊपर से बहुत सरल लगती हैं पर जाति व्यवस्था वाले हमारे समाज में कुछ समुदायों के लोगों को सार्वजनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करने से रोका जाता है।
  • सरकारी नौकरियों पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। सरकार में किसी पद पर नियुक्ति या रोजगार के मामले में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता है। उपरोक्त आधारों पर किसी भी नागरिक को रोजगार के अयोग्य नहीं करार दिया जा सकता उसके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  • समानता का मतलब है हर किसी से उसकी जरूरत का खयाल रखते हुए समान व्यवहार करना। प्रत्येक आदमी को उसकी क्षमता के अनुसार काम करने का समान अवसर उपलब्ध कराना है।
  • कई बार अवसर की समानता सुनिश्चित करने भर के लिए ही कुछ लोगों को विशेष अवसर देना जरूरी होता है। आरक्षण यही करता है। इसी बात को साफ करने के लिए संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि इस तरह का आरक्षण समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
  • किसी तरह का भेदभाव न होने का सिद्धांत सामाजिक जीवन पर भी इसी तरह लागू होता है । संविधान सामाजिक भेदभाव के एक बहुत ही प्रबल रूप-छुआछूत का जिक्र करता है और सरकार को निर्देश देता है कि वह इसे समाप्त करे।
  • किसी भी तरह के छुआछूत को कानूनी रूप से गलत करार दिया गया है। यहाँ छुआछूत का मतलब कुछ खास जातियों के लोगों के शरीर को छूने से बचना भर नहीं है।
  • यह उन सारी सामाजिक मान्यताओं और आचरणों को भी गलत करार देता है जिसमें किसी खास जाति में जन्म लेने भर से लोगों को नीची नजर से देखा जाता है या उनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। इसीलिए संविधान ने छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित किया है।
स्वतंत्रता का अधिकार
  • स्वतंत्रता का मतलब बाधाओं का न होना है। व्यावहारिक जीवन में इसका मतलब होता है हमारे मामलों में किसी किस्म का दखल न होना-न सरकार का, न व्यक्तियों का।
  • हम समाज में रहना चाहते हैं लेकिन हम स्वतंत्रता भी चाहते हैं। हम मनचाहे ढंग से काम करना चाहते हैं। कोई हमें यह आदेश न दे कि इसे ऐसे करो, वैसे करो। भारतीय संविधान ने प्रत्येक नागरिक को कई तरह की स्वतंत्रताएँ दी हैं-
    • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
    • शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने की स्वतंत्रता,
    • संगठन और संघ बनाने की स्वतंत्रता,
    • देश में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता,
    • देश के किसी भी भाग में रहने बसने की स्वतंत्रता है, और
    • कोई भी काम करने, पेशा चुनने या पेशा करने की स्वतंत्रता ।
  • प्रत्येक नागरिक को ये स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप अपनी स्वतंत्रता का ऐसा उपयोग नहीं कर सकते जिससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन होता हो।
  • अभिव्यक्ति की आजादी हमारे लोकतंत्र की एक बुनियादी विशेषता है। अभिव्यक्ति की आजादी में बोलने, लिखने और कला के विभिन्न रूपों में स्वयं को व्यक्त करना शामिल है।
  • दूसरों से स्वतंत्र ढंग से विचार-विमर्श और संवाद करके ही हमारे विचारों और व्यक्तित्व का विकास होता है। संभव है कि कई सौ लोग एक ही तरह से सोचते हों, तब भी आपको अलग राय रखने और व्यक्त करने की आजादी है।
  • सरकार की किसी नीति से या किसी संगठन की गतिविधियों से असहमति रख सकते हैं। अपने मां-बाप, दोस्तों या रिश्तेदार से बातचीत करते हुए आप सरकार की किसी नीति या किसी संगठन की गतिविधियों की आलोचना करने को स्वतंत्र हैं।
  • अपने विचारों को परचा छापकर या अखबारों - पत्रिकाओं में लेख लिखकर भी व्यक्त कर सकते हैं। यह काम चित्र बनाकर, कविता या गीत लिखकर भी कर सकते हैं, लेकिन इस स्वतंत्रता का उपयोग करके किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ हिंसा को नहीं भड़का सकते। आप इस स्वतंत्रता का उपयोग करके लोगों को सरकार के खिलाफ बगावत के लिए नहीं उकसा सकते।
  • किसी के खिलाफ झूठी बातें कहने या उसकी प्रतिष्ठा गिराने वाली बातें प्रचारित करने में इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
  • नागरिकों को किसी मुद्दे पर जमा होने, बैठक करने, प्रदर्शन करने, जुलूस निकालने का अधिकार है। यह सब किसी समस्या पर चर्चा करने, विचारों का आदान-प्रदान करने, किसी उद्देश्य के लिए जनमत तैयार करने या किसी चुनाव में किसी उम्मीदवार या पार्टी के लिए वोट मांगने के लिए कर सकते हैं। 
  • ऐसी बैठकें शांतिपूर्ण होनी चाहिए। इससे सार्वजनिक अव्यवस्था या समाज में अशांति नहीं फैलनी चाहिए। इन बैठकों और गतिविधियों में भाग लेने वालों को अपने पास हथियार नहीं रखने चाहिए।
  • नागरिकों को संगठन बनाने की भी स्वतंत्रता है। जैसे किसी कारखाने के मजदूर अपने हितों की रक्षा के लिए मजदूर संघ बना सकते हैं। किसी शहर के कुछ लोग भ्रष्टाचार या प्रदूषण के खिलाफ अभियान चलाने के लिए संगठन बना सकते हैं।
  • किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाने की स्वतंत्रता है। हम भारत के किसी भी हिस्से में रह और बस सकते हैं। जैसे असम का कोई व्यक्ति हैदराबाद में व्यवसाय करना चाहता है। संभव है कि उसने इस शहर को देखा भी न हो या यहाँ उसका कोई संपर्क न हो।
  • भारत का नागरिक होने के कारण उसे ऐसा करने का अधिकार है। इसी अधिकार के चलते लाखों लोग गाँवों से निकल कर शहरों में और देश के गरीब इलाकों से निकल कर समृद्ध इलाकों में आकर काम करते हैं, बस जाते हैं।
  • संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता कानून द्व रा स्थापित व्यवस्थाओं को छोड़कर। इसका मतलब यह है कि जब तक अदालत किसी व्यक्ति को मौत की सजा नहीं सुनाती, उसे मारा नहीं जा सकता।
शोषण के खिलाफ अधिकार
  • स्वतंत्रता और बराबरी का अधिकार मिल जाने के बाद स्वाभाविक है कि नागरिक को यह अधिकार भी हो कि कोई उसका शोषण न कर सके। भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसे भी संविधान में लिखित रूप से दर्ज करने का फैसला किया ताकि कमजोर वर्गों का शोषण न हो सके।
  • संविधान ने खास तौर से तीन बुराइयों का जिक्र किया है और इन्हें गैर-कानूनी घोषित किया है।
    • पहला, संविधान मनुष्य जाति के अवैध व्यापार का निषेध करता है। आम तौर पर ऐसे धंधे का शिकार महिलाएँ होती हैं जिनका अनैतिक कामों के लिए शोषण होता है।
    • दूसरा, भारतीय संविधान किसी किस्म के बेगार या ज़बरन काम लेने का निषेध करता है। बेगार प्रथा में मजदूरों को अपने मालिक के लिए मुफ्त या बहुत थोड़े से अनाज इत्यादि के लिए जबरन काम करना पड़ता है। जब यही काम मजदूर को जीवन भर करना पड़ जाता है तो उसे बंधुआ मजदूरी कहते हैं।
    • तीसरा, भारतीय संविधान बाल मजदूरी का भी निषेध करता है। किसी कारखाने- खदान या रेलवे और बंदरगाह जैसे खतरनाक काम में कोई भी 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे से काम नहीं करा सकता।
    • इसी को आधार बनाकर बाल मजदूरी रोकने के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। इसमें बीड़ी बनाने, पटाखे बनाने, दियासलाई बनाने, प्रिंटिंग और रंगरोगन जैसे कामों में बाल मजदूरी रोकने के कानून शामिल हैं।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • स्वतंत्रता के अधिकार में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है और इस मामले में भी हमारे संविधान निर्माता विशेष रूप से चौकस थे। उन्होंने इस स्वतंत्रता को स्पष्ट रूप से अलग दर्ज किया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। विश्व के अन्य देशों के समान भारत के अधिकांश लोग अलग-अलग धर्म को मानते हैं।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों के प्रति शासन का समभाव रखना शामिल है। धर्म के मामले में शासन को सभी धर्मों से उदासीन और निरपेक्ष होना चाहिए। प्रत्येक को अपना धर्म मानने, उस पर आचरण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है।
  • प्रत्येक धार्मिक समूह या पंथ को अपने धार्मिक कामकाज का प्रबंधन करने की आजादी है, लेकिन अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार का मतलब किसी को झांसा देकर, फरेब करके, लालच देकर उससे धर्म परिवर्तन कराना नहीं है।
  • निस्सक व्य को अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन करने की आजादा अपना धर्म मान और उसके अनुसार आचरण का यह अर्थ भी नहीं है कि व्यक्ति अपने मन के अनुसार जो चाहे सो करे। जैसे, कोई आदमी देवता या कथित अदृश्य शक्तियों को संतुष्ट करने के लिए नर बलि या पशु बलि नहीं दे सकता।
  • औरतों को कमतर मानने या औरतों की आजादी का हनन करने वाले धार्मिक रीतिरिवाजों पर आचरण करने की अनुमति नहीं है। जैसे, कोई जबरदस्ती किसी विधवा का मुंडन नहीं करा सकता या उसे सिर्फ सफेद कपड़े पहनने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
  • धर्मनिरपेक्ष शासन का मतलब किसी एक धर्म का पक्ष लेना या उसे विशेषाधिकार देना भी नहीं है। ना ही ऐसा शासन किसी व्यक्ति को उसकी धार्मिक मान्यताओं के कारण सजा दे सकता है या उसके साथ भेदभाव कर सकता है। 
  • सरकारी शैक्षिक संस्थानों में किसी किस्म का धार्मिक निर्देश नहीं होना चाहिए। अगर किसी शैक्षिक संस्थान का संचालन कोई निजी संस्था करती है तो वहाँ के किसी भी व्यक्ति को प्रार्थना में हिस्सा लेने या किसी धार्मिक निर्देश का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
  • प्रत्येक संविधान निर्माता अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लिखित गारंटी को लेकर सचेत थे। लोकतंत्र की कार्यपद्धति अपने आप बहुसंख्यकों को ज्यादा ताकत दे देती है।
  • अल्पसंख्यकों को ही भाषा, संस्कृति और धर्म के विशेष संरक्षण की जरूरत होती है। अन्यथा वे बहुसंख्यकों की भाषा, धर्म और संस्कृति के प्रभाव में पिछड़ते चले जाएँगे। इसी के चलते • संविधान अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को स्पष्ट करता है:
    • नागरिकों में विशिष्ट भाषा या संस्कृति वाले किसी भी समूह को अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने का अधिकार है।
    • किसी भी सरकारी या सरकारी अनुदान पाने वाले शैक्षिक संस्थान में किसी नागरिक को धर्म या भाषा के आधार पर दाखिला लेने से नहीं रोका जा सकता। 
    • सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद का शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है।
अधिकार कैसे मिल सकते हैं?
  • यद्यपि अधिकार गारंटी की तरह हैं तब भी ये हमारे किसी काम के नहीं हैं, अगर इन गारंटियों को मानने और लागू करने वाला न हो। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिए इन्हें लागू किया जा सकता है।
  • उपर्युक्त अधिकारों को लागू कराने की माँग करने का अधिकार है, हमारे पास उन्हें लागू कराने के उपाय हैं। इसे संवैधानिक उपचार का अधिकार कहा जाता है। यह भी एक मौलिक अधिकार है।
  • यह अधिकार अन्य अधिकारों को प्रभावी बनाता है। संभव है कि कई बार हमारे अधिकारों का उल्लंघन कोई और नागरिक या कोई संस्था या फिर स्वयं सरकार ही कर रही हो।
  • अगर मौलिक अधिकारों का मामला हो तो हम सीधे सर्वोच्च न्यायालय या किसी राज्य के उच्च न्यायालय में जा सकते हैं। इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने संवैधानिक उपचार के अधिकार को हमारे संविधान की आत्मा और हृदय कहा था।
  • मौलिक अधिकार विधायिका, कार्यपालिका और सरकार द्वारा गठित किसी भी अन्य प्राधिकारी की गतिविधियों तथा फैसलों से ऊपर हैं। मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बन सकता, कोई फैसला नहीं लिया जा सकता।
  • विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी फैसले या काम से मौलिक अधिकारों का हनन हो या उनमें कमी हो तो वह फैसला या काम ही अवैध हो जाएगा।
  • केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए ऐसे कानूनों को उनकी नीतियों और फैसलों को या राष्ट्रीयकृत बैंक या बिजली बोर्ड जैसी उनके द्वारा गठित संस्थाओं की नीतियों और फैसलों को चुनौती दे सकते हैं।
  • वे भी व्यक्तियों या निजी संस्थाओं के खिलाफ मौलिक अधिकार के मामले में दुखल दे सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकार लागू कराने के मामले में निर्देश देने आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है।
  • अदालतें गड़बड़ी का शिकार होने वालों को हर्जाना दिलवा सकती हैं और गड़बड़ी करने वालों को दंडित कर सकती हैं।
  • भारत की न्यायपालिका सरकार और संसद से स्वतंत्र है। न्यायपालिका बहुत शक्तिशाली है और नागरिकों के अधिकारों के लिए जो कुछ जरूरी हो, वह करने में सक्षम है।
  • मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति न्याय पाने के लिए तुरंत अदालत में जा सकता है, लेकिन अगर मामला सामाजिक या सार्वजनिक हित का हो तो ऐसे मामलों में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को लेकर कोई भी व्यक्ति अदालत में जा सकता है। ऐसे मामलों को जनहित याचिका के माध्यम से उठाया जाता है।
अधिकारों का बढ़ता दायरा
  • संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार ही नागरिकों को मिलने वाले अधिकार हैं। मौलिक अधिकार बाकी सारे अधिकारों के स्रोत हैं। भारतीय संविधान और कानून हमें और बहुत सारे अधिकार देते हैं और साल दर साल अधिकारों का दायरा बढ़ता गया है।
  • समय-समय पर अदालतों ने ऐसे फैसले दिए हैं जिनसे अधिकारों का दायरा बढ़ा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार जैसी चीजें मौलिक अधिकारों का ही विस्तार हैं, उन्हीं से निकली हैं। स्कूली शिक्षा हर भारतीय का अधिकार बन चुकी है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है।
  • संसद ने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने वाला कानून भी पास कर दिया है। यह अधिकार विचारों और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के तहत ही है। हमें सरकारी दफ्तरों से सूचना माँगने और पाने का अधिकार है ।
  • हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार को नया विस्तार देते हुए उसमें भोजन के अधिकार को भी शामिल कर दिया है। साथ ही, अधिकारों का दायरा संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों तक ही सीमित नहीं है।
  • अधिकारों का दायरा बढ़ता जा रहा है और हर समय नए अधिकार सामने आ रहे हैं। ये लोगों के संघर्षों से हासिल हुए हैं।

लोकतंत्र में अधिकारों की जरूरत

  • लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिकारों का होना जरूरी है। लोकतंत्र में हर नागरिक को वोट देने और चुनाव लड़कर प्रतिनिधि चुने जाने का अधिकार है।
  • लोकतांत्रिक चुनाव हों इसके लिए लोगों को अपने विचारों को व्यक्त करने की, राजनैतिक पार्टी बनाने और राजनैतिक गतिविधियों की आजादी का होना जरूरी है।
  • लोकतंत्र में अधिकारों की एक खास भूमिका भी है। अधिकार बहुसंख्यकों के दमन से अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हैं। ये इस बात की व्यवस्था करते हैं कि बहुसंख्यक किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनमानी न करें।
  • अधिकार स्थितियों के बिगड़ने पर एक तरह की गारंटी जैसे हैं। अगर कुछ नागरिक दूसरों के अधिकारों को हड़पना चाहें तो स्थिति बिगड़ सकती है।
  • यह स्थिति आम तौर पर तब आती है जब बहुमत के लोग अल्पमत में आ गए लोगों पर प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। लेकिन कई बार चुनी हुई सरकार भी अपने ही नागरिकों के अधिकारों पर हमला करती है या संभव है, वह नागरिक के अधिकारों की रक्षा न करे।
  • इसीलिए कुछ अधिकारों को सरकार से भी ऊँचा दर्जा दिए जाने की जरूरत है ताकि सरकार भी उनका उल्लंघन न कर सके। अधिकांश लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में नागरिकों के अधिकार संविधान में लिखित रूप में दर्ज होते हैं।
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