BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | सत्ता की साझेदारी
सत्ता के बँटवारे के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए जा सकते हैं। पहला, सत्ता का बँटवारा ठीक है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | सत्ता की साझेदारी
- सत्ता के बँटवारे के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए जा सकते हैं। पहला, सत्ता का बँटवारा ठीक है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है।
- सामाजिक टकराव आगे बढ़कर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है।
- बहुसंख्यकों का आतंक सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी बर्बादी का कारण बन जाता है।
- सत्ता का बँटवारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक है - इसके पक्ष में एक और बात कही जा सकती है सत्ता की साझेदारी दरअसल लोकतंत्र की आत्मा है।
- लोकतंत्र का मतलब ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए। इसलिए, वैध सरकार वही है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं।
- राजनीतिक सत्ता का बँटवारा नहीं किया जा सकता- इसी धारणा के विरुद्ध सत्ता की साझेदारी का विचार सामने आया था। लंबे समय से यही मान्यता चली आ रही थी कि सरकार की सारी शक्तियाँ एक व्यक्ति या किसी खास स्थान पर रहने वाले व्यक्ति समूह के हाथ में रहनी चाहिए।
- यदि फ़ैसले लेने की शक्ति बिखर गई तो तुरंत फ़ैसले लेना और उन्हें लागू करना संभव नहीं होगा, लेकिन, लोकतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्ति का स्रोत है। इसमें लोग स्व-शासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं ।
- एक अच्छे लोकतांत्रिक शासन में समाज के विभिन्न समूहों और उनके विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है, और सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में सबकी बातें शामिल होती हैं, इसलिए उसी नाकतांत्रिक शासन को अच्छा माना जाता है जिसमें ज़्यादा से ज्यादा नागरिकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदार बनाया जाए।
- सत्ता की साझेदारी के रूप आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं।
- शासन के विभिन्न अंग जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा रहता है। इसे हम • सत्ता का क्षैतिज वितरण कहेंगे क्योंकि इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं।
- ऐसे बँटवारे से यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित उपयोग नहीं कर सकता। हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है। इससे विभिन्न संस्थाओं के बीच सत्ता का संतुलन बनता है।
- हमारे देश में कार्यपालिका सत्ता का उपयोग करती ज़रूर है पर यह संसद के अधीन कार्य करती है; न्यायपालिका की नियुक्ति कार्यपालिका करती है पर न्यायपालिका ही कार्यपालिका पर और विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर अंकुश रखती है। इस व्यवस्था को 'नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था' भी कहते हैं।
- पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार हो और फिर प्रांत या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकार रहे। ऐसी सामान्य सरकार को अक्सर संघ या केंद्र सरकार कहते हैं, प्रांतीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारों को हर जगह अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।
- कई देशों में प्रांतीय या क्षेत्रीय सरकारें नहीं हैं। लेकिन हमारी तरह, जिन देशों में ऐसी व्यवस्था है, वहाँ के संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा किस तरह होगा।
- राज्य सरकारों से नीचे के स्तर की सरकारों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था हो सकती है। नगरपालिका और पंचायतें ऐसी ही इकाइयाँ हैं। उच्चतर और निम्नतर स्तर की सरकारों के बीच सत्ता के ऐसे बँटवारे को उर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है।
- सत्ता का बँटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों मसलन भाषायी और धार्मिक समूहों के बीच भी हो सकता है। कुछ देशों के संविधान और कानून में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमज़ोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी दी जाए।
- प्रचलित आरक्षित चुनाव क्षेत्र वाली व्यवस्था विधायिका और प्रशासन में अलग-अलग सामाजिक समूहों को हिस्सेदारी देने के लिए की जाती है ताकि लोग खुद को शासन से अलग न समझने लगें। अल्पसंख्यक समुदायों को भी इसी तरीके से सत्ता में उचित हिस्सेदारी दी जाती है।
- सत्ता के बँटवारे का एक रूप हम विभिन्न प्रकार के दबाव-समूह और आंदोलनों द्वारा शासन को प्रभावित और नियंत्रित करने के तरीके में भी लक्ष्य कर सकते हैं। लोकतंत्र में लोगों के सामने सत्ता के दावेदारों के बीच चुनाव का विकल्प ज़रूर रहना चाहिए।
- समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह विकल्प विभिन्न पार्टियों के रूप में उपलब्ध होता है। पार्टियाँ सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं।
- पार्टियों की यह आपसी प्रतिद्वंद्विता ही इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि सत्ता एक व्यक्ति या समूह के हाथ में न रहे।
- सरकार की विभिन्न समितियों में सीधी भागीदारी करके या नीतियों पर अपने सदस्य-वर्ग के लाभ के लिए दबाव बनाकर ये समूह भी सत्ता में भागीदारी करते हैं।
संघवाद का अर्थ |
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संघवाद
- संघीय व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारें होती हैं। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके जिम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। फिर, राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनंदिन कामकाज को देखती हैं।
- सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना काम करती हैं। इस अर्थ में संघीय शासन व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था से ठीक उलट है।
- एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयाँ उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केंद्रीय सरकार प्रांतीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है।
- संघीय व्यवस्था में केंद्रीय सरकार राज्य सरकार को कुछ खास करने का आदेश नहीं दे सकती। राज्य सरकारों के पास अपनी शक्तियाँ होती हैं और इसके लिए वह केंद्रीय सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं। ये दोनों ही सरकारें अपने-अपने स्तर पर लोगों को जवाबदेह होती हैं। संघीय व्यवस्था की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं:-
- यहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है।
- अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और प्रशासन का उनका अपना-अपना अधिकार क्षेत्र होता है ।
- विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं इसलिए संविधान सरकार के हर स्तर के अस्तित्व और प्राधिकार की गारंटी और सुरक्षा देता है।
- संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं।
- अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।
- वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं।
- इस प्रकार संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं : देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे बढ़ावा देना तथा इसके साथ ही क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना। इस कारण संघीय व्यवस्था के गठन और कामकाज के लिए दो चीजें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न स्तरों की सरकारों के बीच सत्ता के बँटवारे के नियमों पर सहमति होनी चाहिए और इनका एक-दूसरे पर भरोसा होना चाहिए कि वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों को मानेंगे। आदर्श संघीय व्यवस्था में ये दोनों पक्ष होते हैं: आपसी भरोसा और साथ रहने पर सहमति ।
- केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा हर संघीय सरकार में अलग-अलग किस्म का होता है। यह बात इस चीज़ निर्भर करती है कि संघ की स्थापना किन ऐतिहासिक संदर्भों में हुई।
- संघीय शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती हैं। पहला तरीका है दो या अधिक स्वतंत्र राष्ट्रों को साथ लाकर एक बड़ी इकाई गठित करने का।
- दोनों स्वतंत्र राष्ट्र अपनी संप्रभुता को साथ करते हैं, अपनी अलग-अलग पहचान को भी बनाए रखते हैं और अपनी सुरक्षा तथा खुशहाली बढ़ाने का रास्ता अख्तियार करते हैं। साथ आकर संघ बनाने के उदाहरण हैं- संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रेलिया आदि।
- संघीय शासन व्यवस्था के गठन का दूसरा तरीका है बड़े देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन करना और फिर राज्य और राष्ट्रीय सरकार के बीच सत्ता का बँटवारा कर देना। भारत, बेल्जियम और स्पेन इसके उदाहरण हैं। इस दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में राज्यों के बदले केंद्र सरकार ज्यादा ताकतवर होती है। अक्सर इस व्यवस्था में विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं पर विशेष स्थिति में किसी-किसी प्रांत को विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं।
संघवाद की परिभाषा |
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नए राज्यों में संघवाद
- नव- स्वतंत्र राज्यों में संघवाद का परंपरागत सिद्धांत बदलता हुआ नजर आ रहा है। भारत तथा मलाया इसके उदाहरण हैं जो शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता का प्रावधान करते हैं तथा सहयोगी संघवाद के विस्तृत यंत्र हैं।
- इन उभरते संघवादों के राजनीतिक समाजों में अधिक विविधता पाई जाती है। अतः संघ की संस्थाएं समाज की संघीय प्रकृति को प्रतिबिंबित करती हैं।
- इसके साथ-साथ व्यापक सामाजिक सुधारों की आवश्यकता तथा त्वरित आर्थिक वृद्धि की आवश्यकता ने इन राज्यों को व्यापक आर्थिक नियोजन की दिशा की ओर बढ़ाया। नियोजन तथा संघ के बीच किसी प्रकार का गठबंधन संघ के लिए आपदा ही लाता है।
- योजना केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है जिससे संघवाद बचना चाहता है। इसके अलावा कुछ उभरत में एकदलीय व्यवस्था की वरीयता ने संविधानिक ढांचे सदले से मौजूद केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है।
- ये राजनीतिक शक्तियां इन देशों में केंद्रीकृत संघवाद को लाई तथा वे देश धीरे- धीरे अपने आप को इसके अनुकूल बना रहे हैं।
- भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति के लिए पहली और एक कठिन परीक्षा थी। भारत ने सन् 1947 में लोकतंत्र की राह पर अपनी जीवन यात्रा शुरू की।
- नए राज्यों को बनाने के लिए 1950 के दशक में भारत के कई पुराने राज्यों की सीमाएँ बदलीं। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि एक भाषा बोलने वाले लोग एक राज्य में आ जाएँ।
- इसके बाद कुछ अन्य राज्यों का गठन भाषा के आधार पर नहीं बल्कि संस्कृति, भूगोल अथवा जातीयताओं (एथनीसिटी) की विभिन्नता को रेखांकित करने और उन्हें आदर देने के लिए भी किया गया।
- इनमें नगालैंड, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं। जब एक भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की बात उठी तो कई राष्ट्रीय नेताओं को डर था कि इससे देश टूट जाएगा।
- केंद्र सरकार ने इसी के चलते राज्यों का पुनर्गठन कुछ समय के लिए टाल दिया था पर हमारा अनुभव बताता है कि भाषावार राज्य बनाने से देश ज़्यादा एकीकृत और मज़बूत हुआ। इससे प्रशासन भी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुविधाजनक हो गया है।
- भारत के संघीय ढाँचे की दूसरी परीक्षा भाषा- नीति को लेकर हुई। हमारे संविधान में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया। हिंदी को राजभाषा माना गया पर हिंदी सिर्फ़ 40 फ़ीसदी (लगभग) भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाय किए गए।
- संविधान में हिंदी के अलावा अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है। केंद्र सरकार के किसी पद का उम्मीदवार इनमें से किसी भी भाषा में परीक्षा दे सकता है बशर्ते उम्मीदवार इसको विकल्प के रूप में चुने। राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है।
- श्रीलंका के ठीक विपरीत हमारे देश के नेताओं ने हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के मामले में बहुत सावधानी भरा व्यवहार किया।
- संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए। तमिलनाडु में तो इस माँग ने उग्र रूप भी ले लिया था। केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया।
- राजभाषा के रूप में हिंदी • बढ़ावा देने की भारत सरकार की नीति बनी हुई है पर बढ़ावा देने का मतलब यह नहीं कि केंद्र सरकार उन राज्यों पर भी हिंदी को थोप सकती है जहाँ लोग कोई और भाषा बोलते हैं।
- केंद्र-राज्य संबंधों में लगातार आए बदलाव का यह उदाहरण बताता है कि व्यवहार में संघवाद किस तरह मज़बूत हुआ है। सत्ता की साझेदारी की संवैधानिक व्यवस्था वास्तविकता में कैसा रूप लेगी यह ज़्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि शासक दल और नेता किस तरह इस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं।
- जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की। उन दिनों केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी। यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल था।
- सत्ता में साझेदारी और राज्य सरकारों की स्वायत्तता का आदर करने की नई संस्कृति पनपी। इस प्रवृत्ति को सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े फ़ैसले से भी बल मिला। इस फ़ैसले के कारण राज्य सरकार को मनमाने ढंग से भंग करना केंद्र सरकार के लिए मुश्किल हो गया।
- संघीय सरकारें दो या अधिक स्तरों वाली होती हैं। भारत में दो स्तरों वाली सरकार की चर्चा की है पर भारत जैसे विशाल देश में सिर्फ दो स्तर की शासन व्यवस्था से ही बढ़िया शासन नहीं चल सकता।
- भारत के प्रांत यूरोप के स्वतंत्र देशों से भी बड़े हैं। जनसंख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश रूस से बड़ा है। महाराष्ट्र लगभग जर्मनी के बराबर है।
- भारत के अनेक राज्य खुद भी अंदरूनी तौर पर विविधताओं से भरे हैं। इस प्रकार इन राज्यों में भी सत्ता को बाँटने की ज़रूरत है।
- भारत में संघीय सत्ता की साझेदारी तीन स्तरों पर करने की ज़रूरत है जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय सरकारों का हो और यह प्रांतीय स्तर की सरकार के नीचे हो ।
- भारत में सत्ता के विकेंद्रीकरण के पीछे यही तर्क दिया गया। इसके फलस्वरूप तीन स्तरों की सरकार का संघीय ढाँचा सामने आया जिसमें तीसरे स्तर को स्थानीय शासन कहा जाता है।
- जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियां लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं। विकेंद्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच यह है कि अनेक मुद्दों और समस्याओं का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है।
- लोगों को अपने इलाके की समस्याओं की बेहतर समझ होती है। लोगों को इस बात की भी अच्छी जानकारी होती है कि पैसा कहाँ खर्च किया जाए और चीज़ों का अधिक कुशलता से उपयोग किस तरह किया जा सकता है।
- इसके अलावा स्थानीय स्तर पर लोगों को फ़ैसलों में सीधे भागीदार बनाना भी संभव हो जाता है। इससे लोकतांत्रिक भागीदारी की आदत पड़ती है।
- स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व-शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है। विकेंद्रीकरण. की ज़रूरत हमारे संविधान में भी स्वीकार की गई। इसके बाद से गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की कई कोशिशें हुई हैं।
- सभी राज्यों में गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई थी। पर इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में रखा गया था।
- स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास न तो अपना कोई अधिकार था न संसाधन | इस प्रकार प्रभावी ढंग से सत्ता का विकेंद्रीकरण नाम मात्र का हुआ था।
- वास्तविक विकेंद्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम 1992 में उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को ज़्यादा शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया।
- स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है। निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनूसचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं। कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
- प्रत्येक राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है। राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है।
- सत्ता में भागीदारी की प्रकृति हर राज्य में अलग-अलग है। गाँवों के स्तर पर मौजूद स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायती राज के नाम से जाना जाता है।
- प्रत्येक गाँव में, (और कुछ राज्यों में ग्राम-समूह की) एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद् है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है।
- अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहा जाता है। इनका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फैसला लेने वाली संस्था है। पंचायतों का काम ग्राम सभा की देखरेख में चलता है।
- गाँव के सभी मतदाता इसके सदस्य होते हैं। इसे ग्राम पंचायत का बज़ट पास करने और इसके कामकाज की समीक्षा के लिए साल में कम से कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।
- स्थानीय शासन का ढाँचा ज़िला स्तर तक का है। कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखंड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं।
- किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद् का गठन होता है। जिला परिषद के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है।
- जिला परिषद् में उस जिले से लोक सभा और विधान सभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर की संस्थाओं के 'कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं।
- जिला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है। इस प्रकार स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती हैं। शहरों में नगर पालिका होती है। बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है।
- नगरपालिका और नगरनिगम, दोनों का कामकाज निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। नगरनिगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं ।
- स्थानीय सरकारों की यह नयी व्यवस्था दुनिया में लोकतंत्र का अब तक का सबसे बड़ा प्रयोग है। नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों के लिए करीब 36 लाख लोगों का चुनाव होता है। यह संख्या ही अपने आप में दुनिया के कई देशों की कुल आबादी से ज्यादा है।
- स्थानीय सरकारों को संवैधानिक दर्जा दिए जाने से भारत में लोकतंत्र की जड़ें और मज़बूत हुई हैं। इसने महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के साथ ही हमारे लोकतंत्र में उनकी आवाज़ को मज़बूत किया है। इन सबके बावजूद अभी भी अनेक परेशानियाँ कायम हैं।
- पंचायतों के चुनाव तो नियमित रूप से होते हैं और लोग बड़े उत्साह से इनमें हिस्सा भी लेते हैं लेकिन ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होतीं। अधिकांश राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार नहीं दिए हैं। इस प्रकार हम स्वशासन की आदर्श स्थिति से काफ़ी दूर हैं।
भारत में संघीय व्यवस्था
- भारतीय संविधान ने भारत को राज्यों का संघ घोषित किया। इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ है ।
- संघीय व्यवस्था की सभी बातें भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर लागू होती हैं । संविधान ने मैलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था-संघ सरकार और राज्य सरकारें ।
- केंद्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था। बाद में पंचायतों और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया।
- किसी भी संघीय व्यवस्था की तरह भारत में भी तीनों स्तर की शासन व्यवस्थाओं के अपने अलग-अलग अधिकार क्षेत्र हैं। संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बाँटा गया है। ये तीन सूचियाँ इस प्रकार हैं:
- संघ सूची में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले बैंकिंग, संचार और मुद्रा जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय हैं। पूरे देश के लिए इन मामलों में एक तरह की नीतियों की जरूरत है। इसी कारण इन विषयों को संघ सूची में रखा गया है। संघ सूची में वर्णित विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को है।
- राज्य सूची में पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय हैं। राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में सिर्फ़ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।
- समवर्ती सूची में शिक्षा, वन, मजदूर संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं जो केंद्र के साथ राज्य सरकारों की साझी दिलचस्पी में आते हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों और केंद्र सरकार, दोनों को ही है। लेकिन जब दोनों के कानूनों में टकराव हो तो केंद्र सरकार द्व द्वारा बनाया कानून ही मान्य होता है।
- ऐसे क्षेत्र जो अपने आकार के चलते स्वतंत्र प्रांत नहीं बन सकते। इन्हें किसी मौजूदा प्रांत में विलीन करना भी संभव नहीं है। चंडीगढ़ या लक्षद्वीप अथवा देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके इसी कोटि में आते हैं और इन्हें केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है। इन क्षेत्रों को राज्यों वाले अधिकार नहीं हैं। इन इलाकों का शासन चलाने का विशेष अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त है।
- केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का यह बँटवारा हमारे संविधान की बुनियादी बात है। अधिकारों के इस बँटवारे में बदलाव करना आसान नहीं है। अकेले संसद इस व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती।
- ऐसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंजूर किया जाना होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं से उसे मंजूर करवाना होता है।
- संवैधानिक प्रावधानों और कानूनों के क्रियान्वयन की देख-रेख में न्यायपालिका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शक्तियों के बँटवारे के संबंध में कोई विवाद होने की हालत में फ़ैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है।
- सरकार चलाने और अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह करने के लिए ज़रूरी राजस्व की उगाही के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने और संसाधन जमा करने के अधिकार हैं।
- संघीय व्यवस्था के कारगर कामकाज के लिए संवैधानिक प्रावधान ज़रूरी हैं पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। अगर भारत में संघीय शासन व्यवस्था कारगर हुई है तो इसका कारण सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों भर का होना नहीं है ।
- भावना, भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का मुख्य श्रेय यहाँ की लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को जाता है। इसी संघवाद की , विविधता का आदर और संग-साथ रहने की इच्छा का हमारे देश के साझा आदर्श के रूप में स्थापित होना सुनिश्चित हुआ।
संघवाद का ऐतिहासिक संदर्भ |
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यदि किसी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र तथा राज्य दोनों अपनी स्थिति और शक्ति संविधान से प्राप्त करते हैं ना कि किसी केंद्रीय कानून द्वारा तथा वे अपने-अपने क्षेत्रों में पर्याप्त स्वायत्ता का प्रयोग करते हैं तो वह संघवाद का लक्षण होगा। |
संघवाद के प्रकार
- संघीय राजनीतिक व्यवस्था वह है जिसमें एक सामान्य सरकार की स्थापना दो या अधिक सरकारों के समूह से होती है तथा इसमें उनकी शक्तियां पर्याप्त रूप में सुरक्षित तथा संरक्षित होती हैं।
- यह निश्चित तौर पर आधुनिक संघों की परिभाषा है। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्ति को साझा करता है। इसमें स्वशासन तथा साझा - शासन की व्यवस्था होती है। इसके अंतर्गत संघ, परिसंघ तथा इसी प्रकार के अन्य राजनीतिक तथा संगठनात्मक संबंध शामिल हैं।
- सामान्यतः संघीय व्यवस्था में परिसंघों को संघों से भिन्न रूप में देखा जाता है। इसमें साझा शासन की संस्थाएं घटक सरकारों पर निर्भर होती हैं इसलिए केवल एक अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा राजकोषीय आधार होता है।
- संघीय सरकार में नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन चलाया जाता है। इसके विपरीत परिसंघ में साझा संस्थाओं और शासन के सदस्य राज्य में प्रत्यक्ष संबंध होता है। इसके ऐतिहासिक उदाहरणों में स्विट्जरलैंड (1291- 1847) तथा अमेरिका (1776- 1789 ) मिलते हैं।
- संघीय प्रणाली वह व्यवस्था है जिसमें साझा हितों की प्राप्ति के लिए घटक इकाईयों की एकजुटता की मंशा तथा अन्य उद्देश्यों के लिए स्व-शासन की इच्छा की गहरी जड़ें होती हैं।
- सरकारों के बीच संघीय शक्तियों की विभेदता सभी संघीय व्यवस्थाओं का एक प्रमुख लक्षण है। यद्यपि संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं परंतु दोनों में अंतर है।
- संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है। यद्यपि संघ की एकात्मक व्यवस्था से पृथक करने के सामान्य लक्षणों में शक्ति की सीमा सरकार के विभिन्न स्तरों पर दी जाने वाली जिम्मेदारी एवं संसाधन आते हैं।
- बहुल सूचकांक जो गैर-बराबर हैं उनमें विधायी तथा प्रशासनिक क्षेत्राधिकारों का बंटवारा वित्तीय संस्थानों की अवस्थिति गैर-सरकारी संस्थाओं का विकेंद्रीकरण संवैधानिक सीमा तथा संघीय सरकार में घटक सरकारों का निर्णय- निर्माण की सहभागिता का स्तर आदि आते हैं।
- एक बार स्थापित होने के पश्चात् संघीय व्यवस्थाएं स्थिर ढांचा नहीं रहती हैं वे गतिशील और विकसित इकाईयाँ हैं। यह बात अमेरिका तथा कनाडा की संघीय व्यवस्था के इतिहास से अनेक लेखकों द्वारा स्पष्ट की गई है।
- सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा जातीय कारकों की पारस्परिक क्रिया ने राजनीतिक प्रक्रिया व संस्थानात्मक ढांचे को बचाया कुछ संघों ने विकेंद्रीकरण की प्रकृति को उत्पन्न किया।
- एक दूसरी रिपोर्ट 4 फरवरी, 1979 को 'कमिंग टू टर्म्स' शीर्षक से आई जिसमें कनाडाई एकता पर बनी टास्क फोर्स परिसंघ तथा संघ के विभिन्न लक्षणों को प्रकाशमान करती है तथा कनाडा को संघ की श्रेणी में रखती है। इस रिपोर्ट में सात तत्त्व सम्मिलित हैं :
- दो स्तर की सरकारों का अस्तित्व जो अपने अधिकार संविधान के अंतर्गत लेती हैं तथा उनमें से प्रत्येक; समान नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन करती हैं।
- केंद्र सरकार पूरे संघ के निर्वाचकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी जाती है विधान द्वारा अपनी सत्ता का प्रयोग करती है तथा पूरे देश पर कर लगाती है।
- क्षेत्रीय सरकार क्षेत्र द्वारा चुनी जाती है तथा कानून व करों के द्वारा प्रत्यक्ष भूमिका निभाती है।
- दो स्तर की सरकारों के मध्य विधायी तथा कार्यकारी अधिकारों तथा राजस्व के स्रोतों का बंटवारा।
- एक लिखित संविधान जो एकतरफा संशोधित नहीं हो सकता।
- शक्तियों के बंटवारे से संबंधित विवादों के नियमन के लिए मध्यस्थ ।
- सरकारों के मध्य बातचीत के लिए युक्तियां।
- एक संघ के चार लक्षण होते हैं- एक लिखित संविधान, दोहरी राज व्यवस्था, शक्तियों का विभाजन और एक स्वतंत्र निष्पक्ष न्याय व्यवस्था ।
- भारत में एक लिखित संविधान है। यह सर्वोच्च कानून है तथा केंद्र तथा राज्य दोनों पर लागू होता है। दूसरा यहां दोहरी राज व्यवस्था है क्योंकि यहां दो स्तर पर सरकार पाई जाती है।
- एक केंद्र या संघ सरकार और दूसरी राज्य सरकारें जो संविधान के अनुच्छेदों से बंधी हुई है और दोनों में से कोई भी इनकी अवहेलना नहीं कर सकता।
- संघ छोटे तथा कमजोर राज्यों को एक अवसर देता है। छोटे राज्य स्वतंत्र रूप से अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते। वे विकास कार्यों के लिए पर्याप्त संसाधनों को आबंटित नहीं कर सकते और न ही अन्य राज्यों के साथ राजनयिक संबंध बना सकते हैं।
- बड़े और शक्तिशाली राज्यों के मध्य छोटे राज्यों का अस्तित्व अस्थिर होता है। छोटे राज्य अपनी पहचान की धारणा के साथ अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक समस्याओं को सुलझाने का लाभ उठाते हैं।
- एक संघ में लोग एक सशक्त राष्ट्र निर्माण के साथ स्थानीय स्वायत्तता के समन्वय के अवसर पाते हैं !
- ई.बी. शूज के अनुसार, 'संघवाद के पक्ष में मुख्य तर्क है कि स्थानीय स्वायत्तता की संवैधानिक गारंटी अति- केंद्रीकरण के रास्ते में संतुलित प्रभावी गतिरोध है । '
- संघवाद के अंतर्गत स्थानीय समस्याएं स्थानीय प्रयासों से सुलझ जाती हैं। शक्तियों के बंटवारे के कारण एक क्षेत्र के लोग अपनी समस्या को जानने का अवसर पाते हैं और उसे अच्छे तरीके से सुलझाते हैं।
- इस प्रकार यह उन देशों के लिए उपयोगी है जहां बड़ी संख्या में नस्लीय सांस्कृतिक और भाषायी विभिन्नताएं होती हैं। यह राष्ट्रीय एकता तथा स्थानीय स्वतंत्रता को मिलाता है।
- संघवाद जहां जरूरत होती है वहां विधायी तथा प्रशासनिक नीतियों में एकरूपता को संभव बनाता है और जहां मांग होती है वहां विविधता लाता है।
- परिसंघ संप्रभु राज्यों का एक संघ है जो सामान्य सुरक्षा व अन्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त होते हैं। उनके पास एक कार्यकारिणी व एक विधायिका होती है लेकिन उनकी शक्तियां सीमित हैं। यहां परिसंघ की कुछ परिभाषाओं का उल्लेख करना उचित होगा।
- हॉल के अनुसार- "एक परिसंघ एक संघ होता है जो राज्यों से भिन्न होता है तथा स्थायी तौर पर कुछ विशेष क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्रता छोड़ने को सहमत होता है । " ये सब एक सामान्य सरकार के अधीन होते हैं तथा राज्य अपने को अंतर्राष्ट्रीय एकता से अलग करते नजर आते हैं।
- ओपेनीहिम के अनुसार “एक परिसंघ अंतर्गत कुछ पूर्ण संप्रभु राज्य होते हैं जो अपने बाहरी मामलों तथा स्वतंत्रता के लिए एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय संधि से जुड़े होते हैं । "
- 1776 से 1787 तक अमेरिका एक परिसंघ था लेकिन संयुक्त राष्ट्र एक परिसंघ नहीं है। उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि कुछ संप्रभु राज्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त केंद्र की स्थापना करते हैं और अपनी इच्छा से कुछ शक्तियों को स्थानांतरित करते हैं ।
- उनका संघ अपनी इच्छा से होता है। जो संघ बनाता है उस राज्य की संप्रभुता में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न नहीं होती। वे अपनी इच्छा से संघ छोड़ सकते हैं। संघ तथा परिसंघ दोनों ही शब्द लैटिन भाषा के शब्द फोएडस से लिए गए हैं, लेकिन दोनों के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है।
- संघ उन राज्यों के नागरिकों पर कोई कर नहीं लगा सकता जो संघ का निर्माण करते हैं। घटक राज्य अपनी इच्छा तथा आवश्यकता होने पर परिसंघ में योगदान कर सकते हैं। वे निर्णयों को भी कार्यान्वित करते हैं।
- यह रिपोर्ट परिसंघ के प्रमुख लक्षणों का उदाहरण देती है: इन उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि एक परिसंघ संप्रभु राज्यों का संगठन होता है जो किसी समझौते या अंतर्राष्ट्रीय कानून या संविधान द्वारा आपस में जुड़ते हैं। इसमें वे अपने कुछ सीमित अधिकार, विशेषकर विदेशी मामले में एक केंद्रीय एजेंसी को प्रदत्त करते हैं। इसे डाइट, सभा, परिषद या कांग्रेस कह सकते हैं तथा आमतौर पर इसके अनिवार्य प्रतिनिधि सदस्य राष्ट्रों द्वारा नियुक्त होते हैं।
- यद्यपि, संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं, परंतु दोनों में अंतर है। संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है । इलैजर और ओसैग्रा संघों को गैर - विकेंद्रीकृत कहना पसंद करते हैं।
- विकेंद्रीकरण से तात्पर्य पदानुक्रम के साथ ऊपर से नीचे की ओर सत्ता के स्थानांतरण से है जबकि गैर- केंद्रीकरण संवैधानिक तौर पर सत्ता का ढांचागत बिखराव करता है जो संघ का एक आवश्यक लक्षण है।
- यद्यपि यह सामान्य लक्षण संघों को एकात्मक व्यवस्था से पृथक करता है जैसा नैथन तथा वाट्स ने कहा है। संघों के मध्य शक्ति की सीमा जिम्मेदारियों सरकार के विभिन्न स्तरों को दिए गए संसाधनों के आधार पर व्यापक विभेदताएं हैं।
- कोई भी मात्रात्मक सूचकांक प्रभावी क्षेत्रीय गैर-केंद्रीकरण को तथा उसमें निहित निर्णय लेने की स्वायत्तता को व्यापक रूप से माप नहीं सकता। किसी भी संघ में दो स्तर की सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का बंटवारा दो कारणों से महत्त्वपूर्ण है।
- पहला, ये संसाधन सरकारों को दी गई विधायी तथा कार्यकारी जिम्मेदारियों की निभाने के लिए सक्षम बनाते हैं या उन्हें विवश करते हैं। दूसरा, कर तथा व्यय शक्ति स्वयं अर्थव्यवस्था को प्रभावित व नियमित करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
- यह असंभव सिद्ध हुआ है कि एक संघीय संविधान बनाया जाए जिससे स्वायत्त राजस्व स्रोतों के आबंटन से प्रत्येक स्तर की सरकार के खर्च की जिम्मेदारियां पूरी हो सकें।
- यदि यह आरंभ में संभव हो भी जाए तो विभिन्न चरणों के सापेक्ष मूल्य लागत और व्यय के क्षेत्रों में समय के साथ बदलाव असंतुलन पैदा करेगा। इसके अतिरिक्त, अधिकांश संघों ने घटक इकाईयों की राजस्व क्षमता की असमानता व असंतुलन को दूर करने का प्रयास किया है।
- ये राजकोषीय व्यवस्थाएं सरकारों के बीच अत्यधिक विवादास्पद मुद्दों में रही हैं और हाल ही की संघीय राजकोषीय बाधा ने इस तनाव पर जोर दिया है।
- इन संघों के साझा राजस्व प्रतिबंधित और अप्रतिबंधित अनुदान समकारी व्यवस्था तथा राजकोषीय व्यवस्थाओं के संबंध में इन संघों के तुलनात्मक अध्ययन ने सरकारों के बीच सहयोग तथा संघर्ष की प्रकृति पर प्रकाश डाला है।
- संघीय राजनीतिक व्यवस्थाओं का मुख्य उद्देश्य अपने क्षेत्र के घटक समुदायों की सुरक्षा करना है। सामान्यतः क्षेत्रीय समानता • तथा साझा संस्थाओं में नागरिकों के समान प्रतिनिधित्व के बीच संघर्ष होता है।
- अधिकांश संघ इन दो प्रकार की समानताओं में संतुलन के इच्छुक होते हैं। इस प्रकार का संतुलन प्राप्त करने तथा इन संघों की अतिरिक्त राजनीतिक सक्रियता में साझा संस्थाओं के अंतर्गत कार्यकारी - विधायिका संबंध निर्णायक हैं।
- इस संबंध के विभिन्न रूप अमेरिका के कांग्रेसी ढांच में शक्ति का बंटवारा स्विटजरलैंड में निश्चित काल की कार्यकारिणी कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, बेल्जियम, भारत तथा मलेशिया में संसदीय जिम्मेदारी के साथ कार्यकारिणी विधायिका संयोग में इसके उदाहरण मिलते हैं।
- इन्होंने न केवल राजनीति व साझा संस्थानों के प्रशासन के चरित्र को रूप दिया बल्कि सरकारों के मध्य संबंधों की प्रकृति व संघों के अंतर्गत सहयोग या संघर्ष की भी उत्पत्ति की है। ।
- भौगोलिक समीपता: संघ के लिए भौगलिक निकटता एक आवश्यकता। यदि इकाईयां भौगोलिक रूप से दूर होंगी तो उनका संघ नहीं बन सकता।
- संघ की इच्छा : एक संघ का निर्माण तभी संभव है जब इकाईयों की इच्छा निश्चित सामान्य उद्देश्यों की हो। इसके लिए वे अपनी पहचान खोए बिना कुछ शक्तियां संघ को देते हैं।
- संघीय इकाइयों के मध्य विभेद की अनुपस्थितिः राज्यों के मध्य अत्यधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। यदि अत्यधिक अंतर होता है तो बड़े राज्य छोटे राज्यों के ऊपर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करेंगे।
- पर्याप्त अत्यधिक संसाधन राज्यों के मध्य पर्याप्त आर्थिक संसाधन होना चाहिए। एक दोहरी सरकार में खर्चों पर अधिक जोर होता है। यदि राज्य के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो वह प्रत्येक चीज के लिए केंद्र पर निर्भर रहेगा और केंद्र अपनी शर्तें लगाएगा।
- सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं की समानता: एक राज्य में सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं आमने-सामने होनी चाहिए ।
- राजनीतिक शिक्षाः संघ एक जटिल संयुक्त संस्था है और यदि इसके नागरिक राजनीतिक तौर से शिक्षित और प्रबुद्ध होंगे तो यह ठीक से कार्य करेगा।
- राष्ट्रीय भावना: सभी इकाईयों में केंद्र के प्रति निष्ठा की भावना होनी चाहिए जिससे युद्धकाल और अन्य आपातकाल के समय वे सब एकजुट रह सकें।
- सबसे पहले 1982 ई. में किंग द्वारा संघवाद और संघ में विभेद देखा गया। यद्यपि, इस आयातित विचार में कुछ अस्पष्टता देखी गई।
- किंग जैसों के लिए संघवाद एक नियामक तथा दर्शनात्मक संकल्पना थी जिसमें संघीय सिद्धांतों की वकालत की गई है। वहीं संघ एक विस्तृत शब्द है जो एक विशेष प्रकार के संस्थानिक संबंधों की ओर इशारा करता है।
- अन्य जैसे इलैजैर, बर्गेस और गैगमैन ने इन दोनों शब्दों को वर्णनात्मक बताया। उनके अनुसार संघवाद राजनीतिक संगठनों की एक कोटि है जिसमें अनेक प्रजातियां जैसे संघ, परिसंघ से जुड़े राज्य, लीग, कोंडोमिनिलम्स संवैधानिक क्षेत्रात्मकता तथा संवैधानिक गृह शासन आते हैं।
- संघवाद की व्यापक कोटि के अंतर्गत संघ एक प्रजाति है। वास्तव में, संघवाद और संघ पर बनी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विज्ञान संगठन की शोध कमेटी ने भी यह भेद स्वीकार किया है।
- नियामक संकल्पना के तौर पर संघवाद में एक या दो सामान्य संकल्पनाएं निहित हैं। एक है साझा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साझा प्रयास जो नागरिकों की वरीयता है और दूसरा अन्य उद्देश्यों के लिए घटक इकाईयों की स्वशासन नियामक संकल्पना । संघवाद इन दोनों तत्त्वों के व्यवहारिक संतुलन की वकालत करता है।
- यह संकल्पना जे हैमिल्टन की दी फेडरलिस्ट ऑफ मेडीशन (1788) से उत्पन्न हुई है तथा अंग्रेजी भाषी विश्व में इस प्रकार के संघवाद की पैरवी की है। इसके मुख्य उदाहरण हेयर (1963) तथा इलैजैर (1987) हैं।
- दूसरी संकल्पना विचारात्मक आधार पर उत्पन्न हुई जो विशेषकर अनेक यूरोपीय किंग (1982) तथा बर्गेस और गैगमैन (1993) के संघवाद की पैरवी करते हैं।
- संघ एक मिश्रित राज्य शासन विधि है जिसमें घटक इकाईयां और सामान्य सरकार नागरिकों द्वारा एक संविधान के जरिए प्रदत्त की गई शक्तियों का प्रयोग करती है। प्रत्येक सरकार नागरिकों से सीधे संबंध रखती है तथा विधायी, प्रशासनिक कराधान शक्ति का प्रयोग करने में सशक्त होती है तथा नागरिकों द्वारा सीधे चुनी जाती है।
- यद्यपि भारत एक संघ राज्य है संविधान में संघीय शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ होगा। इसने एक विवाद को जन्म दिया कि संविधान निर्माताओं ने भारतीय शासन व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या के लिए संघीय शब्द की बजाय संघ शब्द की प्रयोग किया गया है।
- यह संभवतः इस कारण होगा कि संघ शब्द संघीय शब्द की अपेक्षा देश की एकता और अखंडता पर अधिक जोर देता है।
- संघवाद अमेरिकी संविधान (जो 1787 ई. से अस्तित्व में आया) जितना ही पुराना है। अंग्रेजों द्वारा शासित 13 उपनिवेशों को अपनी स्वतंत्रता तथा एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए संघ की आवश्यकता थी। इसलिए सबसे पहले उन्होंने संयुक्त राज्यों के नाम से एक परिसंघ बनाया। तथापि वे युद्ध में विजयी हुए तथा 13 उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह महसूस किया जाने लगा कि राज्यों के प्रबंधन के लिए परिसंघ अधिक कारगर नहीं है। अतः वॉशिंगटन, हैमिल्टन, मेडिसन तथा अनेक नए राज्यों ने संघ के निर्माण का प्रयास किया।
- इस संदर्भ में 1787 की फिलाडेल्फिया सम्मेलन में उन्होंने यह सिद्धांत अपनाया कि केंद्र सरकार के कार्य तथा शक्तियां संविधान द्वारा परिभाषित व प्रगणित होंगी जबकि अवशिष्ट शक्तियां राज्यों से संबंधित होंगी।
- संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य भारत कनाडा तथा अमेरिका की केंद्र सरकार से भी ज्यादा शक्तियों का प्रयोग करते हैं। इस मामले में अमेरिका की केंद्र सरकार भारत तथा कनाडा की सरकार से तुलनात्मक रूप में कमजोर है।
- भारतीय संघवाद 1935 के भारत सरकार अधिनियम से शुरू हुआ 126 जनवरी, 1950 को लागू हुए इंडिया अर्थात् भारत. राज्यों का एक संघ होगा। भारत संघ का एक विशिष्ट उदाहरण है।
- माइकल स्टेवर्ट नं मॉडर्न फर्म ऑफ गवर्नमंट में दर्शाया है कि भारतीय संघ 'एक एकात्मक राज्य तथा एक संघात्मक राज्य के बीच का रूप है।' प्रो. के. सी. व्हेयर मानते हैं कि भारतीय संविधान अर्ध- संघीय है।
बहु-स्तरीय संघवाद |
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संघवाद के नए संदर्भ
- भारतीय संघवाद के उद्भव की प्रक्रिया राजनीतिक विकास, क्षेत्रीय पहचान का उदय एक दल के प्रभुत्व काल का अंत, संविधान की न्यायिक व्याख्या आदि से प्रभावित हुई है।
- तीन दशकों के विचार, जैसे पहले चर्चा की गई है, में भारतीय राष्ट्र को परिभाषित किया गया है कि कैसे राष्ट्र विदेशी कब्जे से मुक्त हुआ तथा स्वतंत्र भारत की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की रूपरेखा ने राष्ट्रीय नेतृत्व को वे विचार व उद्देश्य दिए जिससे नव-स्वतंत्र राष्ट्र का शासन चलाया जा सके।
- इन सब उद्देश्यों में सबसे ऊपर राष्ट्रीय एकता व गरिमा को सभी आंतरिक व बाह्य खतरों से हर कीमत पर बचाना था। देश का • विभाजन केवल उनके संकल्पों को मजबूत करता है।
- असंतुष्ट घरेलू, जातीय, धार्मिक भाषायी और सांस्कृतिक समूह की मांग के साथ निपटने में आजादी के बाद से दो कड़े नियमों का पालन किया गया।
- पहला किसी भी अलगाववादी आंदोलन को अवैध माना जाएगा तथा यदि आवश्यकता हुई तो उसे सशस्त्र बलों की मदद से कुचला जाएगा। स्वतंत्र भारत में सभी अलगाववादी मांगों को जो मजबूती पकड़ रही थीं, विशेषकर देश के उत्तर-पूर्व के राज्यों और बाद में पंजाब और कश्मीर में इसी प्रकार से निपटा गया।
- दूसरा किसी धार्मिक समुदाय के किसी रूप में राजनीतिक मान्यता की मांग पर रोक है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के कानूनों व रीतियों को बचाए रखने की स्वतंत्रता होगी (जिन्हें वे उचित समझें) लेकिन वे अपने समुदाय के लिए यहां तक कि भारतीय संघ के अंतर्गत भी पृथक निर्वाचन या सरकारी निकायों में अनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग नहीं रख सकते।
- स्वतंत्रता के पश्चात् केंद्रद्र-राज्य तनावों तथा विरोधाभासों में बड़ा परिवर्तन आया। हितों पर विचार पर बड़ा राजनीतिक विवाद था। केंद्र में शासन करने वाले दल और व्यापक प्रकार के विरोधी दलों के बीच की शक्ति किसी भी काल में केंद्रों को विकल्प देती है गठबंधन के रूप में केंद्र में तथा विभिन्न क्षेत्रों में।
- स्वतंत्रता प्राप्ति तथा विखंडन के पश्चात् ही केंद्र-राज्य संबंधों में सांस्कृतिक तथा भाषायी मतभेदों ने नए राजनीतिक मुहावरे जोड़ दिए ।
- जहां राजनीतिक तथा आर्थिक तनाव केंद्र-राज्य तनावों के आयाम का विकास करते हैं वहीं सांस्कृतिक भाषायी तथा यहां तक कि सांप्रदायिक तनाव कुछ निश्चित परिस्थितियों में महत्त्व रखते हैं।
- भाषा तथा संस्कृति पर गैर हिंदी भाषी राज्यों ( विशेषकर उन प्रदेशों में जो भारत के हिंदी भाषी मूल क्षेत्र - उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान से बाहर थे।) ने जोर दिया तथा यह बहुराष्ट्रीयता जिनसे भारत निर्मित हुआ का विशेष लक्षण है।
- विवादों की प्रकृति तथा उसके समाधान ने भारत के राजनीतिक विकास के तरीकों का अनुसरण किया। समकालीन समय में दल व्यवस्था में हुए परिवर्तन केंद्र तथा राज्य स्तर पर गठबंधन राजनीति के उदय ने संघ के समीकरणों को पुनः लिखा ।
- भारतीय संसदीय संघवाद और गठबंधन राजनीति के बीच संबंध थोड़े उदार हैं। राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों में अंतर उनकी स्पर्धा के आधार पर नहीं होता है। उनमें से अधिकतर विधानसभा तथा संसदीय चुनाव दोनों के लिए ही स्पर्धा करते हैं।
- भारत में राज्य जनसंख्या तथा आकार के आधार पर भिन्न हैं तथा वे विभिन्न दावों के लिए संसद में कार्य करते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उनके बढ़ते महत्त्व से वे केंद्रीय दलों की चतुराई तथा विवेक को कम करने में समर्थ हुए हैं। यह भारत में संघीय संबंधों को पुनर्जीवित करने के परिणाम के रूप में आया।
- एक नया बदलाव आर्थिक क्षेत्र में भी देखने को मिला। स्वतंत्रता पश्चात् लिए गए विकास मार्ग में परिवर्तन आया तथा भारत ने उदारवाद के द्वारा सुधार का रास्ता अपनाया । आर्थिक सुधार तथा भूमंडलीकरण ने भारतीय संघ व्यवस्था के निरीक्षण को आवश्यक बना दिया। विशेषकर जब संघ की सभी परतें साथ-साथ विदेशी सरकारों तथा भूमंडलीय आर्थिक निगमों से रूबरू होती हैं।
- समकालीन भारत में नियोजित बाजार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन राज्य की भूमिका को पुनः परिभाषित करने तथा विकेंद्रीकरण के स्पष्ट लक्षण पाए जाते हैं।
- परंपरागत मौजूदा व्यवस्था आर्थिक संसाधनों के संवैधानिक बंटवारे पर आधारित थी। सामाजिक इजीनियरिंग के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था में केंद्रीकृत नियोजन को अपनाया गया।
- आर्थिक तथा सामाजिक नियोजन ने आर्थिक शक्तियों को केंद्र में निहित किया है। समय के साथ विकास जैसे योजना आयोग का निर्माण मुख्य आर्थिक संस्थानों जैसे बैंकिंग, बीमा आदि के राष्ट्रीयकरण ने केंद्र की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया तथा राज्यों पर राजनीतिक नियंत्रण बढ़ा क्योंकि वे वित्तीय क्षेत्र में केंद्र पर निर्भर थे।
- भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1980 में धीरे-धीरे हुई तथा 1990 के प्रारंभ में बाहरी संकट के दबाव में इसने गति पकड़ी।
संघवाद के राजनीतिक तथा राजस्व आयाम |
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