BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक

लोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत होते है। इनमें से कुछ गतिविधियाँ वस्तुओं का उत्पादन करती हैं। कुछ अन्य सेवाओं का सृजन करती हैं। ये गतिविधियाँ हमारे चारो ओर हर समय सम्पादित होती हैं, यहाँ तक कि हमारे बोलने में भी।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक

संगठित और असंगठित के रूप में क्षेत्रकों का विभाजन

  • अब आर्थिक कार्यों को विभाजित करने के एक अन्य तरीके का परीक्षण करते हैं। इसे लोगों के नियोजित होने के आधार पर देखते हैं।
  • संगठित क्षेत्रक में वे उद्यम अथवा कार्य स्थान आते हैं जहाँ रोज़गार की अवधि नियमित होती है और इसलिए लोगों के पास सुनिश्चित काम होता है। वे क्षेत्रक सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं और उन्हें सरकारी नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करना होता है। इन नियमों एवं विनियमों का अनेक विधियों, जैसे, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, सेवानुदान अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, इत्यादि में उल्लेख किया गया है। इसे संगठित क्षेत्रक कहते हैं क्योंकि इसकी कुछ औपचारिक प्रक्रिया एवं कार्यविधि है।
  • कुछ लोग किसी के द्वारा नियोजित नहीं होते बल्कि वे स्वतः काम कर सकते हैं। परन्तु वे भी अपने को सरकार के समक्ष पंजीकृत कराते हैं और नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करते हैं।
  • संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को रोज़गार - सुरक्षा के लाभ मिलते हैं। उनसे एक निश्चित समय तक ही काम करने की आशा की जाती है। यदि वे अधिक काम करते हैं तो नियोक्ता द्वारा उन्हें अतिरिक्त वेतन दिया जाता है। वे नियोक्ता से कई दूसरे लाभ भी प्राप्त करते हैं ।
  • सवेतन छुट्टी, अवकाश काल में भुगतान, भविष्य निधि, सेवानुदान इत्यादि पाते हैं। वे चिकित्सीय लाभ पाने के हकदार होते हैं और नियमों के अनुसार कारखाना मालिक को पेयजल और सुरक्षित कार्य-पर्यावरण जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना होता है। जब वे सेवानिवृत होते हैं, तो पेंशन भी प्राप्त करते हैं।
  • इसके विपरीत, कमल असंगठित क्षेत्रक में काम करता है। असंगठित क्षेत्रक छोटी-छोटी और बिखरी इकाइयों, जो अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं, से निर्मित होता है। इस क्षेत्रक के नियम और विनियम तो होते हैं परंतु उनका अनुपालन नहीं होता है। वे कम वेतन वाले रोजगार हैं और प्राय: नियमित नहीं हैं। यहाँ अतिरिक्त समय में काम करने, सवेतन छुट्टी, अवकाश, बीमारी के कारण छुट्टी इत्यादि का कोई प्रावधान नहीं है। रोजगार सुरक्षित नहीं है ।
  • श्रमिकों को बिना किसी कारण काम से हटाया जा सकता है। कुछ मौसमों में जब काम कम होता है, तो कुछ लोगों को काम से छुट्टी दे दी जाती है। बहुत से लोग नियोक्ता की पसन्द पर निर्भर होते हैं।
  • इस क्षेत्रक में काफी संख्या में लोग अपने-अपने छोटे कार्यों, जैसे- सड़कों पर विक्रय अथवा मरम्मत कार्य में स्वत: नियोजित हैं। इसी प्रकार किसान अपने खेतों में काम करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मज़दूरी पर श्रमिकों को लगाते हैं।
असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों का संरक्षण
  • संगठित क्षेत्रक अत्यधिक माँग पर ही रोज़गार प्रस्तावित करता है। लेकिन संगठित क्षेत्रक में रोज़गार के अवसरों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि हो रही है ।
  • यह भी आम तौर पर पाया जाता है कि संगठित क्षेत्रक, असंगठित क्षेत्रक के रूप में काम करते हैं। वे ऐसी रणनीति, कर वंचन एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने वाली विधियों के अनुपालन से बचने के लिए अपनाते हैं। परिणामत: बहुत अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करने के लिए विवश हुए हैं, जो बहुत कम वेतन देते हैं।
  • उनका प्रायः शोषण किया जाता है और उन्हें उचित मज़दूरी नहीं दी जाती है। उनकी आय कम है और नियमित नहीं है। इस रोज़गार में संरक्षण नहीं है और न ही इसमें कोई लाभ है। सन् 1990 से यह भी देखा गया है कि संगठित क्षेत्रक के बहुत अधिक श्रमिक अपना रोज़गार खोते जा रहे हैं।
  • ये लोग असंगठित क्षेत्रक में कम वेतन पर काम करने के लिए विवश हैं। अतः असंगठित क्षेत्रक में और अधिक रोज़गार की ज़रूरत के अलावा श्रमिकों को संरक्षण और सहायता की भी आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में, असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः भूमिहीन कृषि श्रमिकों, छोटे और सीमांत किसानों, फसल बँटाईदारों और कारीगरों (जैसे बुनकरों, लुहारों, बढ़ई और सुनार) से रचित होता है।
  • भारत में लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं। इन किसानों को समय से बीज, कृषि-उपकरणों, साख, भण्डारण सुविधा और विपणन केन्द्र की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराने की ज़रूरत है।
  • शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः लघु उद्योगों के श्रमिकों, निर्माण, व्यापार एवं परिवहन में कार्यरत आकस्मिक श्रमिकों और सड़कों पर विक्रेता का काम करने वालों, सिर पर बोझा ढ़ोने वाले श्रमिकों, वस्त्र निर्माण करने वालों और कबाड़ उठाने वालों से रचित है।
  • लघु उद्योगों को भी कच्चे माल की प्राप्ति और उत्पाद के विपणन के लिए सरकारी मदद की आवश्यकता होती है। आकस्मिक श्रमिकों को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में संरक्षण दिए जाने की ज़रूरत है।
  • बहुसंख्यक श्रमिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों से हैं, जो असंगठित क्षेत्रक में रोज़गार करते हैं। ये श्रमिक अनियमित और कम मज़दूरी पर काम करने के अलावा सामाजिक भेदभाव के भी शिकार हैं। अतः आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को संरक्षण और सहायता अनिवार्य है।
स्वामित्व आधारित क्षेत्रक- सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक
  • सार्वजनिक क्षेत्रक में, अधिकांश परिसंपत्तियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध कराती है।
  • निजी क्षेत्रक में परिसंपत्तियों पर स्वामित्व और सेवाओं के वितरण की ज़िम्मेदारी एकल व्यक्ति या कंपनी के हाथों में होता है।
  • रेलवे अथवा डाकघर सार्वजनिक क्षेत्रक के उदाहरण हैं, जबकि टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) अथवा रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड जैसी कम्पनियाँ निजी स्वामित्व में हैं।
  • निजी क्षेत्रक की गतिविधियों का उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए हमें इन एकल स्वामियों और कंपनियों को भुगतान करना पड़ता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्रक का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नहीं होता है। सरकार सेवाओं पर किए गए व्यय की भरपाई करों या अन्य तरीकों से करती हैं। आधुनिक दिनों में सरकार सभी तरह की गतिविधियों पर व्यय करती हैं।
  • कई ऐसी चीज़े हैं जिनकी आवश्यकता समाज के सभी सदस्यों को होती है, परन्तु जिन्हें निजी क्षेत्रक उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं कराते हैं। क्योंकि इनमें से कुछ चीज़ों पर बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जो निजी क्षेत्रकों की क्षमता से बाहर होती है। इन चीज़ों का इस्तेमाल करने वाले हज़ारों लोगों से पैसा एकत्र करना भी आसान नहीं है।
  • फिर, यदि वे चीज़ों को उपलब्ध कराते हैं तो वे इसकी ऊँची कीमत वसूलते हैं। जैसे, सड़कों, पूलों, रेलवे, पत्तनों, बिजली आदि का निर्माण और बाँध आदि से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना। इसीलिए सरकार ऐसे भारी व्यय स्वयं उठाती है और सभी लोगों के लिए इन सुविधाओं को सुनिश्चित करती है।
  • कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें सरकारी समर्थन की ज़रूरत पड़ती है।
  • निजी क्षेत्रक उन उत्पादनों अथवा व्यवसायों को तब तक जारी नहीं रख सकते, जब तक सरकार उन्हें प्रोत्साहित नहीं करती है। जैसे, उत्पादन मूल्य पर बिजली की बिक्री से औद्योगिक उत्पादन लागत में वृद्धि हो सकती है। अनेक इकाइयाँ, विशेषकर लघु इकाइयाँ बन्द हो सकती हैं।
  • यहाँ सरकार उस दर पर बिजली उत्पादन और वितरण के लिए कदम उठाती है जिस पर ये उद्योग बिजली खरीद सकते हैं । सरकार लागत का कुछ अंश वहन करती है।
  • इसी प्रकार, भारत सरकार किसानों से उचित मूल्य परे गेहूँ और चावल खरीदती है। इसे अपने गोदामों में भण्डारित करती है और राशन दुकानों के माध्यम से उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर बेचती है।
  • सरकार लागत का कुछ भाग वहन करती है। इस प्रकार, सरकार किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को सहायता पहुँचाती है। अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार पर है। इन पर व्यय करना सरकार की अनिवार्यता है। जैसे- सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
  • समुचित ढंग से विद्यालय चलाना और गुणात्मक शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का कर्त्तव्य है। भारत में निरक्षरों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।
  • इसी प्रकार, भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनमें से एक चौथाई गंभीर रूप से बीमार हैं। उड़ीसा (87) अथवा मध्य प्रदेश (85) का शिशु मृत्यु दर विश्व के निर्धनतम भागों, जैसे अफ्रीकी देशों से भी अधिक है।
  • सरकार को भी मानव विकास के पक्षों, जैसे सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, निर्धनों के लिए आवासीय सुविधाएँ और भोजन एवं पोषण पर ध्यान देने की ज़रूरत है ।
  • सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बजट बढ़ाकर अत्यन्त नों की और देश के पूर्णतया उपेक्षित भागों की देखभाल करे।

आर्थिक कार्यों के क्षेत्रक

  • लोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत होते है। इनमें से कुछ गतिविधियाँ वस्तुओं का उत्पादन करती हैं। कुछ अन्य सेवाओं का सृजन करती हैं। ये गतिविधियाँ हमारे चारो ओर हर समय सम्पादित होती हैं, यहाँ तक कि हमारे बोलने में भी।
  • इन्हें समझने का एक तरीका यह है कि कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर इन्हें विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर दिया जाए। इन समूहों को क्षेत्रक भी कहते हैं। उद्देश्य और किसी महत्त्वपूर्ण मानदंड के आधार पर इन्हें अनेक तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्यक्ष उपयोग पर आधारित अनेक गतिविधियाँ हैं। जैसे- कपास की खेती । यह एक मौसमी फसल है। कपास के पौधों की वृद्धि के लिए हम मुख्यतः, न कि पूर्णतया, प्राकृतिक कारकों जैसे-वर्षा, सूर्य का प्रकाश और जलवायु पर निर्भर हैं।
  • अतः कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, डेयरी उत्पादन में पशुओं की जैविक प्रक्रिया एवं चारा आदि की उपलब्धता पर निर्भर होते हैं। अतः इसका उत्पाद दूध भी एक प्राकृतिक उत्पाद है।
  • इसी प्रकार, खनिज और अयस्क भी प्राकृतिक उत्पाद है। जब हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं, तो इसे प्राथमिक क्षेत्रक की गतिविधि कहा जाता है। क्योंकि यह उन सभी उत्पादों का आधार है, जिन्हें हम क्रमशः निर्मित करते हैं। चूँकि हम अधिकांश प्राकृतिक उत्पाद कृषि, डेयरी, मत्स्यन और वनों से प्राप्त करते हैं, इसलिए इस क्षेत्रक को कृषि एवं सहायक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • द्वितीयक क्षेत्रक की गतिविधियों के अन्तर्गत प्राकृतिक उत्पादों को विनिर्माण प्रणाली के जरिए अन्य रूपों में परिवर्तित किया जाता है। यह प्राथमिक क्षेत्रक के बाद अगला कदम है। यहाँ वस्तुएँ सीधे प्रकृति से उत्पादित नहीं होती हैं, बल्कि निर्मित की जाती है। इसलिए विनिर्माण की प्रक्रिया अपरिहार्य है।
  • यह प्रक्रिया किसी कारखाना, किसी कार्यशाला या घर में हो सकती है। जैसे, कपास के पौधे से प्राप्त रेशे का उपयोग कर हम सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं।
  • गन्ने को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर हम चीनी और गुड़ तैयार करते हैं। हम मिट्टी से ईंट बनाते हैं और ईंटों से घर और भवनों का निर्माण करते हैं। चूँकि यह क्षेत्रक क्रमशः संवर्धित विभिन्न प्रकार के उद्योगों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों की एक तीसरी कोटि भी है जो तृतीयक क्षेत्रक के अन्तर्गत आती हैं और उपर्युक्त दो क्षेत्रकों से भिन्न है।
  • ये गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के विकास में मदद करती हैं। ये गतिविधियाँ स्वतः वस्तुओं का उत्पादन नहीं करती हैं, बल्कि उत्पादन प्रक्रिया में सहयोग या मदद करती हैं। जैसे- प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं को थोक एवं खुदरा विक्रेताओं को बेचने के लिए ट्रकों और ट्रेनों द्वारा परिवहन करने की ज़रूरत पड़ती है।
  • कभी-कभी वस्तुओं को गोदामों में भण्डारित करने की आवश्यकता होती है। हमें उत्पादन और व्यापार में सहूलियत के लिए टेलीफोन पर दूसरों से वार्तालाप करने या पत्राचार (संवाद) या बैंकों से कर्ज लेने की भी आवश्यकता होती है।
  • परिवहन, भण्डारण, संचार, बैंक सेवाएँ और व्यापार तृतीयक गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं। चूँकि ये गतिविधियाँ वस्तुओं के बजाय सेवाओं का सृजन करती हैं, इसलिए तृतीयक क्षेत्रक को सेवा क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • सेवा क्षेत्रक में कुछ ऐसी अपरिहार्य सेवाएँ भी हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहायता नहीं करती हैं। जैसे, हमें शिक्षकों, डॉक्टरों, धोबी, नाई, मोची एवं वकील जैसे व्यक्तिगत सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले और प्रशासनिक एवं लेखाकरण कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है।
  • वर्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ जैसे- इंटरनेट कैफे, ए.टी.एम. बूथ, कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर कम्पनी इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।
तीन क्षेत्रकों की तुलना
  • प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रक के विविध उत्पादन कार्यों से काफी अधिक मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। साथ ही, इन क्षेत्रकों में काफी अधिक संख्या में लोग वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए काम करते हैं। इसलिए, अगले चरण में यह देखना है कि प्रत्येक क्षेत्रक में कितनी वस्तुएँ और सेवाएँ उत्पादित होती हैं और कितने लोग उस क्षेत्रक में काम करते हैं।
  • किसी अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन और रोजगार की दृष्टि से एक या अधिक क्षेत्रक प्रधान होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रक अपेक्षाकृत छोटे आकार के होते हैं।
  • प्रत्येक क्षेत्रक की विविध वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना असंभव कार्य है। यह न केवल वृहद् कार्य है, बल्कि आप आश्चर्यचकित भी होंगे कि हम कारों और कम्प्यूटरों, कीलों और फर्नीचरों की संख्या का योगफल कैसे कर सकते हैं। यह अत्यंत बेतुकी बात है।
  • इस समस्या के समाधान के लिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक संख्याओं का योग करने के स्थान पर उनके मूल्य का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसे, यदि 10,000 किग्रा. गेहूँ 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है तो, गेहूँ का मूल्य 80,000 रु. होगा। 10 रु. प्रति नारियल की दर से 5000 नारियल का मूल्य 50,000 रु. होगा। इसी प्रकार, तीनों क्षेत्रकों के वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना की जाती है और उसके बाद योगफल प्राप्त करते हैं।
  • उत्पादित और बेची गई प्रत्येक वस्तु (या सेवा) की गणना करने की ज़रूरत नहीं है। केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं की गणना का ही औचित्य है। जैसे, एक किसान किसी आटा- मिल को 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से गेहूँ बेचता है। मिल में गेहूँ की पिसाई होती है और बिस्कुट कंपनी को आटा 10 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है।
  • बिस्कुट कंपनी आटा के साथ चीनी एवं तेल जैसी चीज़ों का उपयोग करती है और बिस्कुट के चार पैकेट बनाती है। वह बाजार में उपभोक्ताओं को 60 रु. में ( 15 रु. प्रति पैकेट) बिस्कुट बेचती है। अतः बिस्कुट ही अंतिम उत्पाद है, अर्थात् वह वस्तु जो उपभोक्ताओं तक पहुँचती है।
  • दिए गए उदाहरण में अंतिम वस्तु के विपरीत गेहूँ और आटा जैसी वस्तुएँ मध्यवर्ती वस्तुएँ हैं। मध्यवर्ती वस्तुएँ, अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण में इस्तेमाल की जाती है। अंतिम वस्तुओं के मूल्य में मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य पहले से ही शामिल होता है। बिस्कुट (अंतिम वस्तु) के मूल्य 60 रु. में पहले से ही आटा का मूल्य (10 रु.) शामिल है। इसी प्रकार अन्य सभी मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य भी शामिल होगा।
  • अतः गेहूँ और आटा के मूल्य की अलग-अलग गणना उचित नहीं है, क्योंकि तब हम एक ही वस्तु के मूल्य की गणना हैं। पहले गेहूँ के रूप में, फिर आटा के रूप में और अंततः अंतिम वस्तु बिस्कुट के रूप में मूल्य की कई बार गणना करते हैं।
  • किसी विशेष वर्ष में प्रत्येक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य, उस वर्ष में क्षेत्रक के कुल उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है। तीनों क्षेत्रकों के उत्पादनों के योगफल को देश का सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) कहते हैं।
  • यह किसी देश के भीतर किसी विशेष वर्ष में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है। जी. डी. पी. अर्थव्यवस्था की विशालता प्रदर्शित करता है।
  • भारत में जी. डी. पी. मापन जैसा कठिन कार्य केन्द्र सरकार के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यह मंत्रालय राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों के विभिन्न सरकारी विभागों की सहायता से वस्तुओं और सेवाओं कुल संख्या और उनके मूल्य से संबंधित सूचनाएँ एकत्र करता है और तब जी. डी. पी. का अनुमान करता है।
क्षेत्रकों में ऐतिहासिक परिवर्तन
  • सामान्यतया, अधिकांश विकसित देशों के इतिहास में यह देखा गया है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक क्षेत्रक ही आर्थिक सक्रियता का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रक रहा है। जैसे-जैसे कृषि प्रणाली परिवर्तित होती गई और कृषि क्षेत्रक समृद्ध होता गया, वैसे-वैसे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होने लगा। अब अनेक लोग दूसरे कार्य करने लगे।
  • शिल्पियों और व्यापारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गई। इसके अतिरिक्त अनेक लोग परिवहन, प्रशासक और सैनिक कार्य इत्यादि से जुड़े थे। फिर भी, इस अवस्था में अधिकांश उत्पादित वस्तुएँ प्राकृतिक उत्पाद थी, जो प्राथमिक क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में रोजगार करते थे।
  • लम्बे समय (100 वर्षों से अधिक) के बाद और विशेषकर विनिर्माण की नवीन प्रणाली के प्रचलन से कारखाने अस्तित्व में आए और उनका प्रसार होने लगा।
  • जो लोग पहले खेतों में काम करते थे, उनमें से बहुत अधिक लोग अब कारखानों में काम करने लगे। कारखानों में सस्ती दरों पर उत्पादित वस्तुओं का लोग इस्तेमाल करने लगे।
  • कुल उत्पादन एवं रोजगार की दृष्टि से द्वितीयक क्षेत्रक सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया। इस कारण अतिरिक्त समय में भी काम होने लगा। इसका अर्थ है कि क्षेत्रकों का महत्त्व परिवर्तित हो गया।
  • विगत 100 वर्षों में, विकसित देशों में द्वितीयक क्षेत्रक से तृतीयक क्षेत्रक की ओर पुनः बदलाव हुआ है। कुल उत्पादन की दृष्टि से सेवा क्षेत्रक का महत्त्व बढ़ गया। अधिकांश श्रमजीवी लोग सेवा क्षेत्रक में ही नियोजित हैं। विकसित देशों में यहीं सामान्य लक्षण देखा गया है।
भारत में प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक
  • तीनों क्षेत्रकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को दिखाता है। यह दो वर्षों 1973 और 2003 के उत्पादन को दिखाता है। इसमें देखा जा सकता हैं कि 30 वर्षों में कुल उत्पादन में कितनी संवृद्धि हुई है।
उत्पादन में तृतीयक क्षेत्रक का बढ़ता महत्त्व
  • वर्ष 1973 और 2003 के बीच 30 वर्षों में यद्यपि सभी क्षेत्रकों में उत्पादन में वृद्धि हुई, परन्तु सबसे अधिक वृद्धि तृतीयक क्षेत्रक के उत्पादन में हुई।
  • परिणामतः वर्ष 2003 में भारत में प्राथमिक क्षेत्रक को प्रतिस्थापित करते हुए तृतीयक क्षेत्रक सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्रक के रूप में उभरा। भारत में तृतीयक क्षेत्रक के महत्त्वपूर्ण होने के कई कारण हो सकते हैं।
    • प्रथम, किसी भी देश में अनेक सेवाओं, जैसे- अस्पताल, शैक्षिक संस्थाएँ, डाक एवं तार सेवा थाना, कचहरी, ग्रामीण प्रशासनिक कार्यालय, नगर निगम, रक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि की आवश्यकता होती है। इन्हें बुनियादी सेवाएँ माना जाता है। किसी विकासशील देश में इन सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार उठाती है।
    • द्वितीय, कृषि एवं उद्योग के विकास से परिवहन, व्यापार, 'भण्डारण जैसी सेवाओं का विकास होता है। प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक का विकास जितना अधिक होगा, ऐसी सेवाओं की माँग उतनी ही अधिक होगी।
    • तृतीय, जैसे-जैसे आय बढ़ती है, कुछ लोग अन्य कई सेवाओं जैसे- रेस्तरां, पर्यटन, शॉपिंग, निजी अस्पताल, निजी विद्यालय, व्यावसायिक प्रशिक्षण इत्यादि की माँग शुरू कर देते हैं ।
    • चतुर्थ, विगत दशकों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य हो गई हैं। इन सेवाओं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हो रही है। सेवा क्षेत्रक की सभी सेवाओं में समान रूप से संवृद्धि नहीं हो रही है। भारत में सेवा क्षेत्रक कई तरह के लोगों को नियोजित करते हैं। एक ओर, उन सेवाओं की संख्या सीमित है, जिसमें अत्यन्त कुशल और शिक्षित श्रमिकों को रोजगार मिलता है।
    • दूसरी ओर, बहुत अधिक संख्या में लोग छोटी दुकानों, मरम्मत कार्यों, परिवहन जैसी सेवाओं में लगे हुए हैं। वे लोग बड़ी मुश्किल से जीविका निर्वाह कर पाते हैं और वे इन सेवाओं में इसलिए लगे हुए हैं क्योंकि उनके पास कोई अन्य वैकल्पिक अवसर नहीं है। इस कारण सेवा क्षेत्रक के केवल कुछ भागों का ही महत्त्व बढ़ रहा है।
अधिकांश लोग कहाँ नियोजित हैं?
  • भारत के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य है कि यद्यपि जी.डी. पी. में तीनों क्षेत्रकों की हिस्सेदारी में परिवर्तन हुआ है, फिर भी रोजगार में ऐसा ही परिवर्तन नहीं हुआ है।
  • वर्ष 2000 में भी प्राथमिक क्षेत्र सबसे बड़ा नियोक्ता बना रहा। प्राथमिक क्षेत्रक से रोजगार का ऐसा ही क्षेत्रक के स्थानान्तरण का कारण यह है कि द्वितीयक ओर तृतीयक क्षेत्रक में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं हुआ।
  • यद्यपि इस अवधि में वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन में 8 गुना वृद्धि हुई परन्तु औद्योगिक रोजगार में महज 2.5 गुना ही वृद्धि हुई। तृतीयक क्षेत्रक पर भी यही बात लागू होती है। सेवा क्षेत्रक में उत्पादन में 11 गुना वृद्धि हुई, परन्तु रोजगार में 3 गुना से भी कम वृद्धि हुई।
  • परिणामतः, देश में आधे से अधिक श्रमिक प्राथमिक क्षेत्रक, मुख्यत: कृषि क्षेत्र में काम कर रहे हैं जिसका जी.डी.पी. में योगदान केवल एक-चौथाई है। इसकी तुलना में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक का जी.डी.पी. में हिस्सा तीन-चौथाई है। परन्तु, ये क्षेत्र आधे भी कम लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। अतएव, यदि आप कुछ लोगों को कृषि क्षेत्र से हटा देते हो, तो भी उत्पादन प्रभावित नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, कृषि क्षेत्रक के श्रमिकों में अल्प बेरोजगारी है।
    • एक छोटे किसान का उदाहरण लेते हैं, जिसके पास दो हेक्टेयर असिंचित भूमि है, जो सिंचाई के लिए केवल वर्षा पर निर्भर है और ज्वार एवं अरहर जैसी फसलें उपजाती हैं।
    • उसके परिवार के सभी पाँच सदस्य उस भूमि पर वर्ष भर काम करते हैं। क्योंकि उन्हें कहीं और रोजगार उपलब्ध नहीं है।
    • प्रत्येक व्यक्ति काम कर रहा है, कोई बेकार नहीं है। परन्तु, वास्तव में उनका श्रम प्रयास विभाजित है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ काम कर रहा है परन्तु किसी को भी पूर्ण रोजगार प्राप्त नहीं है।
    • यह अल्प बेरोजगारी की स्थिति है, जहाँ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं, लेकिन सभी अपनी क्षमता से कम काम करते हैं।
    • इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुई कहते हैं क्योंकि यह उन लोगों की बेरोजगारी, जिनके पास कोई रोजगार नहीं है और बेकार बैठे हुए हैं, से अलग है ( खुली बेरोजगारी ) ।
    • इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।
  • एक अन्य भूस्वामी अपनी जमीन पर काम करने के लिए पहले किसान के परिवार के एक या दो सदस्यों को भाड़े पर ले जाता है। अब पहले वाले किसान के परिवार को मज़दूरी के द्वारा कुछ अतिरिक्त आय होती है।
  • चूँकि आपको छोटे से भूखंड पर काम करने के लिए 5 लोगों की ज़रूरत नहीं है, अतः दो लोगों के चले जाने से कृषि उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। |
  • दिए गए उदाहरण में, दो सदस्य किसी कारखाना में भी काम करने के लिए जा सकते हैं। एक बार फिर परिवार की कमाई में वृद्धि होगी और वे लोग अपनी भूमि से पहले जैसा उत्पादन करते रहेंगे।
  • भारत में पहले वाले किसान की तरह लाखों किसान हैं। इसका अर्थ है कि यदि कुछ लोगों को कृषि क्षेत्रक से हटाकर उन्हें कहीं और समुचित रोजगार उपलब्ध करा दें, तो भी कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। कोई अन्य रोजगार करने से लोगों की आय से परिवार के कुल आय में वृद्धि होगी।
  • अल्प बेरोजगारी दूसरे क्षेत्रकों में भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, शहरों में सेवा क्षेत्रक में हजारों अनियत श्रमिक हैं जो दैनिक रोजगार की तलाश करते हैं। वे प्लम्बर, पेन्टर, मरम्मत कार्य जैसे रोजगार करते हैं और अन्य लोग असुविधाजनक विषम काम करते हैं। उनमें से कई रोजाना काम नहीं पाते हैं।
  • इसी प्रकार हम सेवा क्षेत्रक के कुछ लोगों को सड़कों पर ठेला खींचते अथवा कुछ चीजें बेचते हुए देखते हैं, जहाँ वे पूरा दिन बिता देते हैं, परन्तु बहुत कम कमा पाते हैं। वे यह काम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास कोई बेहतर अवसर नहीं है ।
अतिरिक्त रोजगार का सृजन 
  • कृषि क्षेत्र में अल्प बेरोजगारी की गंभीर स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें बिल्कुल रोजगार नहीं मिला है। हम पहले वाले किसान और उसके दो हेक्टेयर असिंचित भूखंड का उदाहरण लेते हैं। उसके परिवार की भूमि की सिंचाई हेतु एक कुएँ का निर्माण करने के लिए सरकार कुछ मुद्रा व्यय कर सकती है या बैंक ऋण प्रदान कर सकता है। तब वह अपनी भूमि की सिंचाई करने में सक्षम होगी और रबी मौसम में एक दूसरी फसल गेहूँ उपजाती है।
  • मान लेते हैं कि एक हेक्टेयर गेहूँ की फसल दो लोगों को 50 दिनों (बीज डालने, पानी देने, खाद डालने और कटाई में) तक रोजगार प्रदान कर सकती है। अतः परिवार के दो अन्य सदस्यों को अपनी जमीन में रोजगार मिल सकता है।
  • मान लेते हैं कि ऐसे कई खेतों की सिंचाई के लिए एक नये बाँध का निर्माण किया जाता है अथवा एक नहर खोदी जाती है। इससे कृषि क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर सृजित हो सकेंगे और अल्प बेरोजगारी की समस्या अपने आप कम हो जाएगी। मान लेते हैं कि दूसरे किसान भी पहले की तुलना में अधिक उत्पादन करते हैं। उन्हें कुछ उत्पाद बेचने के लिए अपना उत्पाद नजदीक के शहर में ले जाने की आवश्यकता हो सकती है।
  • यदि सरकार परिवहन और फसलों के भण्डारण पर अथवा बेहतर ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर कुछ पैसा करती है तो छोटे ट्रक सब जगह पहुँच जाते हैं।
  • इस तरीके से अनेक किसान, जिन्हें अब पानी की सुविधा उपलब्ध है, फसलों की उपज और विक्रय कर सकते हैं। इस कार्य से केवल किसानों को ही उत्पादक रोजगार उपलब्ध नहीं हो सकता है, बल्कि परिवहन और व्यापार जैसी सेवाओं में लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त हो सकता है।
  • किसानों की ज़रूरत केवल पानी तक ही सीमित नहीं है। खेती करने के लिए उसे बीजों, उर्वरकों, कृषिगत उपकरणों और पानी निकालने के लिए पम्पसेटों की भी ज़रूरत है। एक निर्धन किसान होने के कारण वह सभी चीजों पर खर्च नहीं कर सकता। इसलिए उसे साहूकारों से पैसा उधार लेना होगा और उच्च ब्याज दर पर वापस करना पड़ेगा।
  • यदि स्थानीय बैंक उचित ब्याज दर पर उसे साख प्रदान करता है, तो इन वह सभी चीजों को उचित समय पर खरीदने और अपनी भूमि पर खेती करने में सक्षम होगी। तात्पर्य यह है कि पानी के साथ-साथ कृषि में सुधार के लिए किसानों को सस्ते कृषि साख भी प्रदान करने की ज़रूरत है।
  • एक अन्य तरीके से इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। वह तरीका है अर्द्ध- ग्रामीण क्षेत्रों में उन उद्योगों और सेवाओं की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना, जहाँ बहुत अधिक लोग नियोजित किए जा सकें। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि अनेक किसान अरहर और मटर (दलहन फसलें) उपजाने का निर्णय करते हैं। इनकी वसूली और प्रसंस्करण के लिए तथा शहरों में विक्रय करने के लिए दाल मिल की स्थापना एक ऐसा ही उदाहरण है।
  • शीत भण्डारण गृहों के खुलने से किसानों को एक अवसर मिलेगा कि वे अपने आलू और प्याज जैसे उत्पादों का भण्डारण कर सके और अच्छी कीमत मिलने पर बेच सकें। वन क्षेत्रों के निकटवर्ती गाँवों में हम शहद संग्रह केन्द्रों की शुरुआत कर सकते हैं, जहाँ किसान वनों से प्राप्त शहद बेच सकें।
  • सब्जियों और कृषिगत उत्पादों, जैसे आलू, शकरकंद, चावल, गेहूँ, टमाटर और फल इत्यादि, जिसे बाहरी बाजारों में बेचा जा सके, के लिए प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जा सकती है। यह अर्द्ध- ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित उद्योगों में रोजगार प्रदान करेगा।
  • भारत में विद्यालय जाने के आयु वर्ग में लगभग 20 करोड़ बच्चे हैं। इनमें लगभग दो-तिहाई ही विद्यालय जाते हैं। शेष विद्यालय नहीं जाते हैं- वे या तो घर पर रहते होंगे या उनमें से अधिकतर बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे होंगे। यदि ये बच्चे भी विद्यालय जाने लगें तो और अधिक भवनों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होगी।
  • योजना आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, अकेले शिक्षा क्षेत्र में लगभग 20 लाख रोजगारों का सृजन किया जा सकता है। इसी प्रकार, यदि स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना है तो ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले और अधिक डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ेगी। ये कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे रोजगार का सृजन होगा और हम विकास के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार कर पाने में भी सक्षम होंगे।
  • प्रत्येक राज्य या प्रदेश में वहाँ के निवासियों की आय और उनके रोजगार में वृद्धि करने की संभावना होती है। यह पर्यटन अथवा क्षेत्रीय शिल्प उद्योग अथवा सूचना प्रौद्योगिकी जैसी नवीन सेवाओं के माध्यम से हो सकता है। इनमें से कुछ के लिए समुचित योजना एवं सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी। उदाहर लिए, योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार यदि पर्यटन क्षेत्र में सुधार होता है तो हम प्रतिवर्ष 35 लाख से अधिक लोगों को अतिरिक्त रोज़गार प्रदान कर सकते हैं।
  • केन्द्र सरकार ने भारत के 200 जिलों में काम का अधिकार लागू करने के लिए एक कानून बनाया है। इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 कहते हैं।
  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम-2005 के अन्तर्गत उन सभी लोगों, जो काम करने में सक्षम हैं और जिन्हें काम की ज़रूरत है, को सरकार द्वारा वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी गई है।
  • यदि सरकार रोजगार उपलब्ध कराने में असफल रहती है तो वह लोगों को बेरोजगारी भत्ता देगी। अधिनियम के अन्तर्गत उस तरह के कामों को वरीयता दी जाएगी, जिनसे भविष्य में भूमि से उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।
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