BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | मुद्रा और साख

ऐसे कुछ लेन-देन में मुद्रा के बदले सेवाएँ प्रदान की जा रही हैं। लेकिन कुछ मामलों में हो सकता है कि लेन-देन होते वक्त मुद्रा का कोई आदान-प्रदान न हो, केवल बाद में भुगतान करने का वादा हो ।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | मुद्रा और साख

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | मुद्रा और साख

मुद्रा, बचत एवं साख

  • प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य का व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था।
  • विनिमय के दो रूप है - (i) वस्तु विनिमय प्रणाली एवं (ii) मौद्रिक विनिम प्रणाली।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली के अंतर्गत किसी वस्तु या सेवा का विनिमय किसी अन्य वस्तु या सेवा के साथ प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली में धन या संपत्ति के संचय का कार्य भी अत्यंत कठिन था।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों ने ही मुद्रा को जन्म दिया।
  • वस्तु मुद्राः प्राचीनकाल में जब आधुनिक मुद्रा अर्थात् कागजी मुद्रा, धातु के मुद्रा के आगमन नहीं हुआ था तब पशुओं, खाद्यान्न इत्यादि को विनिमय का माध्यम बनाया जाता था, जिसे वस्तु मुद्रा कहा जाता था।
  • मुद्रा का विकास मानव आविष्कारों में एक महान आविष्कार है।
  • मुद्रा विनिमय का माध्यम है तथा आज सभी वस्तुओं का विनिमय मुद्रा के माध्यम से होता है।
  • मुद्रा के चार कार्य हैं- संचय, माध्यम मापक और भुगतान ।
  • मार्शल के अनुसार, “मुद्रा वह धूरि है जिसके चारों ओर समस्त आर्थिक विज्ञान चक्कर काटता है । "
  • मुद्रा विनिमय का वह माध्यम है जो वस्तुओं के मूल्य चुकाने तथा अन्य व्यावसायिक दायित्वों को निपटाने में इस्तेमाल किया जाता है। यह सर्वमान्य होती है।
  • चूँकि मुद्रा द्वारा किसी देश की राष्ट्रीय आय से प्रति व्यक्ति आय की माप होती है। इस तरह मुद्रा कल्याण में मदद करती है।
  • बचत, आय का वह भाग है जिसका वर्तमान में उपभोग नहीं किया जाता है। बचत को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व, आय का स्तर होता है। बचत प्राप्त आय में से उपयोग को घटाने पर प्राप्ति होती है। और बचत = आय-खर्च 
  • आय में वृद्धि होने से बचत के अनुपात में भी वृद्धि होता है। 
  • साख का संबंध भरोसा या विश्वास करने से है। साख का शाब्दिक अर्थ विश्वास या भरोसा होता है! शाख एक ऐसा विनिमय कार्य है जो एक निश्चित समय के बाद भुगतान करने से पूरा हो जाता है। 
  • आर्थिक दृष्टि से किसी व्यक्ति या संस्था की साख से उसकी ईमानदारी तथा ऋण लौटाने की क्षमता का बोध होता है।
  • साख पत्र:- साख मुद्रा के रूप में जिन साधनों का प्रयोग किया जाता है। उसे साख पत्र कहा जाते हैं। कुछ प्रमुख साख पत्र इस प्रकार हैं- चेक, ड्राफ्ट, विनिमय बिल, प्रतिज्ञा प्रमाण पत्र इत्यादि ।
  • प्लास्टिक मुद्राः- यह मुद्रा का आधुनिकतम रूप है जिसके माध्यम से खरीददारी की जाती है अथवा ए०टी०एम० से पैसे की निकासी की जाती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ढेर सारी कागजी मुद्रा ढोने की जरूरत नहीं पड़ती है। जरूरत के हिसाब से इसका प्रयोग कर भुगतान किया जा सकता है एवं वस्तुओं एवं वस्तुओं का क्रय किया जा सकता है। ए०टी०एम० कार्ड, क्रेडिट कार्ड आदि इसी के उदाहरण हैं।
एटीएम क्या है ?
  • एटीएम का शाब्दिक अर्थ स्वचालित टेलर मशीन (Automated Teller Mahcine ) होता है। यह एक प्लास्टिक का कार्ड होता है। इस मशीन में चौबीस घंटे रुपया निकालने की सुविधा होती है। एटीएम के लिए ग्राहक के पास एक गुप्त पिन कोड होता है, जिसे जाने बगैर यह मशीन संचालित नहीं होती है। 
क्रेडिट कार्ड क्या है?
  • क्रेडिट कार्ड एक प्रकार का प्लास्टिक का कार्ड है जिसके अंतर्गत ग्राहक के वित्तीय स्थिति को देखते हुए बैंक उसकी साख की एक राशि निर्धारित कर देती है। जिसके अंतर्गत वह अपने क्रेडिट कार्ड के माध्यम से निर्धारित धनराशि के अंदर वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग कर सकता है। वीसा कार्ड, मास्टर कार्ड इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
  • व्यावसायिक बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण को साख - मुद्रा कहते हैं।
  • व्यावसायिक बैंक अपनी नकद जमा राशि के आधार पर हीं साख का निर्माण करते हैं।
  • दो रुपये या इससे अधिक के सभी कागजी मुद्रा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के द्वारा चलाया जाता है।
  • एक रुपया का कागजी मुद्रा तथा सभी प्रकार के सिक्के केन्द्र सरकार के वित्त विभाग द्वारा निर्गत किया जाता है।
  • आय तथा उपभोग का अंतर बचंत कहलाता है।
  • आजकल प्लास्टिक मुद्रा (ए.टी.एम. सह डेबिट कार्ड तथा क्रेडिट कार्ड) का प्रचलन है।
हमारी वित्तीय संस्थाएँ
  • हमारी देश की वे संस्थाएँ जो आर्थिक विकास के लिए उद्यम एवं व्यवसाय के वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ऐसी संस्थाओं को वित्तीय संस्था कहते हैं ।
  • वित्तीय संस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं- (I) राष्ट्र स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ और (II) राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ ।
  • सरकारी वित्तीय संस्थाएँ: सरकार द्वारा स्थापित एवं संपोषित वित्तीय संस्थाओं को सरकारी वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं। जैसेस्टेट बैंक ऑफ इंडिया, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद बैंक इत्यादि ।
राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ
  • ऐसी वित्तीय संस्थाएं जो देश के लिए वित्तीय और साख नीतियों का निर्धारण एवं निर्देशन करती हैं तथा राष्ट्रीय स्तर पर वित्त प्रबंधन के कार्यों का संपादन करती हैं, उन्हें हम राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं।
  • वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरूदंड माना जाता है।
  • इनके दो महत्वपूर्ण अंग हैं: (I) भारतीय मुद्रा बाजार और (II) भारतीय पूँजी बाजार।
1. भारतीय मुद्रा बाजार :-
  • भारतीय मुद्रा बाजार ऐसा मौद्रिक बाजार है जहाँ उद्योग एवं व्यवसाय के क्षेत्र के लिए अल्पकालीन एवं मध्यकालीन वित्तीय व्यवस्था एवं प्रबंधन किया जाता है।
  • भारतीय मुद्रा बाजार को संगठित और असंगठित क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। संगठित क्षेत्र में वाणिज्य बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं विदेशी बैंक शामिल किये जाते हैं। जबकि असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर जिनमें गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ शामिल की जाती हैं।
2. भारतीय पूंजी बाजार :-
  • भारतीय पूंजी बाजार मुख्यतः दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराता है। दीर्घकालीन पूँजी की मांग बड़े-बड़े उद्योग घराने एवं . सार्वजनिक निर्माण कार्यों के लिए होता है। इसका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है - (i) भारतीय पूंजी एवं प्रतिभूति बाजार- इसके अन्तर्गत प्राथमिक बाजार और द्वितीयक बाजार आते हैं। (ii) औद्योगिक बाजार। (iii) विकास वित्त संस्थान (iv) गैर-बैंकिंग वित्त कम्पनियाँ।
  • भारतीय पूंजी बाजार मूलतः इन्हीं चार वित्तीय संस्थानों पर आधारित है, जिसके चलते राष्ट्र-स्तरीय सार्वजनिक विकास जैसे- सड़क, रेलवे, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, विद्युत उत्पादन संयंत्र एवं बड़े-बड़े निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग संचालित किये जाते हैं।
  • भारत की वित्तीय राजधानी मुम्बई में एक सुसंगठित बाजार हैं जिसके माध्यम से औद्योगिक क्षेत्रों के लिए वित्त की व्यवस्था होती है। भारत का यह पूंजी बाजार इतना दृढ़ है कि वर्तमान में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का जो दौर चल रहा है उसमें विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा भारत कम प्रभावित हुआ है।
  • मुंबई के जिस जगह पर इस पूंजी बाजार का प्रधान क्षेत्र है उसे दलाल स्ट्रीट कहा जाता है।
संगठित बैंकिंग प्रणाली

1. केंद्रिय बैंक- भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है। यह देश में शीर्ष बैंकिंग संस्था के रूप में कार्यरत है।

भारतीय रिजर्व बैंक
  • भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है। इसकी स्थापना 1 अप्रैल 1935 को बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1934 के तहत की गई थी। 1 जनवरी 1949 को भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
  • इसका मुख्यालय मुंबई में स्थित है।
  • इसके कई प्रमुख कार्य हैं, जैसे कि मौद्रिक नीति तैयार करके उसको लागू करना, उसकी निगरानी करना, वित्तीय प्रणाली का रेगुलेशन, विदेशी मुद्रा का प्रबन्धन करना, मुद्रा जारी करना, उसका विनिमय करना और इस्तेमाल करने लायक न रहने पर उन्हें नष्ट करना ।
  • इसके अलावा, आरबीआई साख नियन्त्रित करने और मुद्रा के लेन-देन को नियंत्रित करने का कार्य तथा सरकार के बैंकर और बैंकों का बैंक के रूप में भी काम करती है।

2. वाणिज्य बैंक- वाणिज्य बैंक के द्वारा बैंकिंग एवं वित्तीय क्रियाओं का संचालन होता हैं।

3. सहकारी बैंक - आपसी सहयोग एवं सद्भावना के आधार पर जो वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील हैं उसे सहकारी बैंक कहते हैं, यद्यपि ये राज्य सरकारों के द्वारा संचालित होती हैं।

राज्य स्तर की वित्तीय संस्थाएँ

राज्य में मुख्यतः दो प्रकार की वित्तीय संस्थाएँ कार्यरत हैं-

  1. राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ: गैर संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में निम्नलिखित वर्ग आते हैं- महाजन, सेठ तथा साहुकार, व्यापारी और रिश्तेदार एवं अन्य ।
  2. 2. संस्थागत वित्तीय संस्थाओं: गैर संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में निम्नलिखित वर्ग आते हैं- सहकारी बैंक, प्राथमिक सहकारी समिति, भूमि विकास बैंक, व्यवसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामिण बैंक और नार्बाड एवं अन्य ।
    1. सहकारी बैंकः इनके माध्यम से बिहार के किसानों को अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की सुविधा उप्लब्ध होती हैं। राज्य में 25 केंद्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर.. पर तथा राज्य स्तर पर एक बिहार राज्य सहकारी बैंक कार्यरत हैं।
    2. प्राथमिक सहकारी समितियाँ: इनकी स्थापना कृषि क्षेत्र की अल्पकालीन ऋणों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए की गई है। एक गाँव अथवा क्षेत्र के कोई भी कम-से-कम दस व्यक्ति मिलकर एक प्राथमिक शाख समिति का निर्माण कर सकते हैं।
    3. भूमि विकास बैंकः राज्य में किसानों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिए भूमि बंधक बैंक खोला गया था, जिसे अब भूमि विकास बैंक कहा जाता है।
    4. व्यावसायिक बैंकः यह अधिक मात्रा में किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 ई. में हुआ था।
    5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकः सीमांत एवं छोटे किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना 1975 ई. में किया गया।
    6. नाबार्ड: यह कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सरकारी संस्थाओं, व्यावसायिक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को वित्त की सुविधा प्रदान करता है, जो प्रत्यक्ष रूप से पुनः किसानों को ऋण सुविधा प्रदान करता है।
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड)
  • यह एक सांविधिक निकाय है जिसकी स्थापना वर्ष 1982 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक अधिनियम, 1981 के तहत की गई थी।
  • नाबार्ड, एक विकास बैंक है जो प्राथमिक तौर पर देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है ।
  • यह कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु वित्त प्रदान करने के लिये शीर्ष बैंकिंग संस्थान है।
  • इसका मुख्यालय देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में अवस्थित है।
  • कृषि के अतिरिक्त यह छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगों एवं ग्रामीण • परियोजनाओं के विकास के लिये उत्तरदायी है। 
व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य
  • जमा राशि को स्वीकार करना: व्यावसायिक बैंकों का प्रमुख कार्य अपने ग्राहकों से जमा के रूप में मुद्रा प्राप्त करना है। लोग ब्याज कमाने के उद्देश्य से बैंक में अपना आय का कुछ भाग जमा करते हैं।
  • ऋण प्रदान करनाः व्यावसायिक बैंकों का दूसरा महत्वपूर्ण काम लोगों को ऋण प्रदान करना है।
  • सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य: इसके अलावा व्यावसायिक बैंक अन्य बहुत से कार्य करते हैं, जिन्हें सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है। जैसे- यात्री चेक एवं साख पत्र जारी करना- साख पत्र या यात्री चेक की मदद से व्यापारी विदेशों से भी आसानी से माल उधार ले सकते हैं।
  • लॉकर की सुविधा: लॉकर की सुविधा से ग्राहक बैंक में अपने सोने-चाँदी के जेवर तथा अन्य आवश्यक दस्तावेज सुरक्षित रख सकते हैं।
  • ATM और क्रेडिट कार्ड की सुविधा: ATM और क्रेडिट कार्ड की मदद से खाता धारक 24 घंटे रूपया निकाल सकते हैं।
  • व्यापारिक सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्रीकरणः बैंक आर्थिक स्थिति से परिचित होने के कारण व्यापार संबंधी सूचनाएं एवं आँकड़े एकत्रित करके अपने ग्राहकों को वित्तीय मामलों पर सलाह देते हैं ।
  • ऐजेंसी संबंधी कार्य : इसके अंतर्गत चेक बिल और ड्राफ्ट का संकलन, ब्याज तथा लाभांश का संकलन तथा वितरण, ब्याज, ॠऋण की किस्त बीमे की किस्त का भुगतान, प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय तथा ड्राफ्ट तथा डाक द्वारा कोष का हस्तांतरण आदि क्रियाएँ करती हैं।
  • स्वयं सहायता समूहः स्वयं सहायता समूह ग्रामीण क्षेत्रों में 15-20 व्यक्तिओं का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं और गाँवों का विकास करते हैं।
रोजगार एवं सेवाएँ
  • रोजगार एवं सेवाओं से अभिप्राय उन बातों से है, जिनसे कोई व्यक्ति अपने परिश्रम एवं शिक्षा के आधार पर जीविकोपार्जन > के लिए धन एकत्र करता है।
  • एकत्रित धन को जब पूँजी के रूप में व्यवहार करता है और उत्पादन के क्षेत्र में निवेश करता है तो सेवा क्षेत्र उत्पन्न होता है। अतः रोजगार एवं सेवाएँ एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् रोजगार वृद्धि से सेवा क्षेत्र का भी विस्तार होता है।
  • सरकारी सेवा क्षेत्र: सेवा का वह क्षेत्र जिसमें सरकार के द्वारा नियुक्त पदाधिकारी अथवा सरकारी संस्थाएँ कार्य करती हैं; सरकारी सेवा क्षेत्र कहलाती है। उदाहरण- सेना, रेलवे, डाकघर इत्यादि ।
  • गैर-सरकारी सेवा: वे समस्त सेवाएँ जिनका संचालन निजी संगठन या कंपनियों के माध्यम से होता है, गैर-सरकारी सेवाएँ कहलाती हैं। उदाहरणस्वरुप निजी बैंक, दूरसंचार सेवा, यातायात, पर्यटन इत्यादि सेवाएँ।
  • नागरिक सेवाएँ: सामाजिक चेतना, सफाई, सामाजिक मान्यता का सम्मान नागरिक सेवाओं के अन्तर्गत आता है।
  • सेवा क्षेत्र के अंतर्गत बैंकिंग परिवहन, बीमा, संचार अर्थात तृतीयक क्षेत्रों को रखा जाता है।
  • तृतीयक क्षेत्र का विकास 20वीं शताब्दी के आरंभ में शुरू हुआ। इसके अन्तर्गत व्यापार, यातायात, संप्रेषण, वित्त, पर्यटन, सत्कार (हॉस्पिटैलिटी), संस्कृति, मनोरंजन, लोक प्रशासन सूचना, न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि आते हैं।
  • भारत में सेवा क्षेत्र के अंतर्गत 34% लोगों को रोजगार प्राप्त है, जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में भारत में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% से अधिक है।
  • सेवा क्षेत्र में शिक्षा की भूमिका सर्वोपरि है। सेवा क्षेत्र में श्रमिकों की कुशलता शिक्षण प्रशिक्षण इत्यादि का सर्वाधिक महत्त्व है जो शिक्षा के प्रसार से हीं संभव है।
  • आर्थिक विकास के मुख्यतः तीन क्षेत्र हैं- (i) कृषि क्षेत्र, (ii) उद्योग क्षेत्र एवं (iii) सेवा क्षेत्र।
भारत में सेवा क्षेत्र
  • भारत में सेवा क्षेत्र की वृद्धि आर्थिक विकास के पारंपरिक मॉडलों में छलांग लगाने का एक अनूठा उदाहरण है।
  • भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। जहाँ विश्व के अन्य देशों की जनसंख्या बुढ़ापा की ओर बढ़ रही है। भारतीय जनसंख्या युवावस्था की ओर अर्थात् आने वाले समय में भारत हीं सबसे बड़ा सेवा प्रदाता होगा।
  • देश के सकल घरेलू उत्पाद में भारत में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% से अधिक है। हालाँकि, यह अभी भी केवल 25% श्रम शक्ति को रोजगार देता है।
  • नतीजतन, कृषि (जो स्थिर है) और विनिर्माण (जो अभी तक अपनी पूरी क्षमता तक नहीं बढ़ी है) हमारी नियोजित आबादी के बहुमत को बनाए रखती है।
  • इन्वेस्ट इंडिया, भारतीय अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र के योगदान, इसकी सफलताओं पर एक नजर डालता है और भविष्य के समान आर्थिक विकास के लिए संभावित समर्थकों की भी खोज करता है।
रोजगार के विभिन्न क्षेत्र एवं जीडीपी में भागीदारी 
क्षेत्र भारत अमेरीका चीन
कृषि से संबद्ध 15.4% 8% 7%
विनिर्माण और उद्योग 23%  12% 40%
सेवाएँ 61.5% 80% 52%
  • सेवा क्षेत्र में सरकारी प्रयास के रूप में किए जा रहे प्रयास:- प्रक्षेपण काम के बदले अनाज कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, समेकित विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना कार्यक्रम और नरेगा कार्यक्रम।
  • सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े पाँच सेवा क्षेत्र:- कॉल सेंटर, कोर बैंकिंग प्रणाली; दूरसंचार, इंटरनेट, बी०पी०ओ० इत्यादि सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े पाँच सेवा क्षेत्र हैं।
  • कंप्यूटर के दो मुख्य अंग होते हैं सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर।
  • कंप्यूटर सॉफ्टवेयर उद्योग श्रम प्रधान है तथा इसके उत्पादन में भारत विश्व का एक अग्रणी देश माना जाने लगा है। हमारे देश का बेंगलुरु शहर सूचना प्रौद्योगिकी सॉफ्टवेयर का प्रतीक बन गया है।

प्रमुख सेवा क्षेत्र

1. आईटी-बीपीएम / फिनटेक
  • आईटी/आईटीईएस और फिनटेक खंड सकल मूल्य का 155 बिलियन डॉलर से अधिक प्रदान करता है और 10 - 15% प्रति वर्ष बढ़ने की क्षमता रखता है, निर्यात इसका सबसे बड़ा घटक है।
  • भारत में शीर्ष 10 सेवा क्षेत्र की कंपनियां
    1. रिलायंस इंडस्ट्रीज
    2. एचडीएफसी बैंक
    3. आईसीआईसीआई बैंक
    4. एचडीएफसी
    5. टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज
    6. लार्सन एंड टुब्रो
    7. भारतीय स्टेट बैंक
    8. एनटीपीसी
    9. कोटक महिंद्रा बैंक
    10. ऐक्सिस बैंक
2. स्वास्थ्य सेवा और पर्यटन
  • विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधाओं, कुशल डॉक्टरों, तकनीशियनों और फार्मास्यूटिकल्स की उपलब्धता ।
  • इसी प्रकार पर्यटन की दृष्टि से भी भारत अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवं ऐतिहासिक महत्व के स्थानों के लिए प्रसिद्ध है।
  • भारत का पर्यटन सबसे बड़ा सेवा उद्योग है जहां इसका राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 6.23% और भारत के कुल रोजगार में 8.78% योगदान देता है।
  • चिकित्सा उपचार के लिए भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने हेतु एक नई चिकित्सा वीजा श्रेणी की शुरुआत की गई है।
  • होटल व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनायें भी शुरू की गई। जिसमें हेरिटेज होटल योजना महत्वपूर्ण है। इस योजना का उद्देश्य पुराने महल, हवेलियां किलों आदि का संरक्षण कर उसे होटल व्यवसाय के रूप में उपयोगी बनाना है। 
3. अंतरिक्ष
  • अंतरिक्ष क्षेत्र में भारतीय सेवाएं, बहु प्रक्षेपण प्रौद्योगिकियों में सिद्ध विशेषज्ञता के साथ, इसे वैश्विक अंतरिक्ष परिवहन उद्योग में अपने साथियों पर एक महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करती हैं।
  • हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं का लगभग 100% ट्रैक रिकॉर्ड है। कई देश सक्रिय रूप से भारत की प्रक्षेपण सुविधाओं का लाभ उठाना चाह रहे हैं। यह बड़ी क्षमता को प्रदर्शित करता है। 
4. अन्य सेवाएं 
  • मीडिया और मनोरंजन ( एनीमेशन, गेमिंग, डबिंग), शिक्षा (एमओओसी जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म), और खेल (आईपीएल, आईएफएल, खेल प्रबंधन), कानूनी / पैरालीगल सेवाएं, जोखिम प्रबंधन और सलाहकार कार्य, आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो आगे बढ़ सकते हैं।

मुद्रा विनिमय का एक माध्यम

  • ऐसे कुछ लेन-देन में मुद्रा के बदले सेवाएँ प्रदान की जा रही हैं। लेकिन कुछ मामलों में हो सकता है कि लेन-देन होते वक्त मुद्रा का कोई आदान-प्रदान न हो, केवल बाद में भुगतान करने का वादा हो ।
  • जिस व्यक्ति के पास मुद्रा है, वह इसका विनिमय किसी भी वस्तु या सेवा खरीदने के लिए आसानी से कर सकता है। इसलिए हर कोई मुद्रा के रूप में भुगतान लेना पसंद करता है, फिर उस मुद्रा का इस्तेमाल अपनी जरूरत की चीजें खरीदने के लिए करता है।
    • एक जूता निर्माता का उदाहरण देखते हैं। वह बाज़ार में जूता बेचकर गेहूँ खरीदना चाहता है। जूता बनाने वाला पहले जूतों के बदले मुद्रा प्राप्त करेगा और फिर इस मुद्रा का इस्तेमाल गेहूँ खरीदने के लिए करेगा।
    • जूता निर्माता यदि बिना मुद्रा का इस्तेमाल किए जूते का सीधे गेहूँ से विनिमय करता तो उसे कितनी कठिनाई होती।
    • उसे गेहूँ उगाने वाले ऐसे किसान को खोजना पड़ता जो न केवल गेहूँ बेचना चाहता हो, बल्कि साथ में जूते भी खरीदना चाहता हो । अर्थात् दोनों पक्ष एक दूसरे से चीज़े खरीदने और बेचने पर सहमति रखते हों। इसे आश्यकताओं का दोहरा संयोग कहा जाता है।
    • एक व्यक्ति जो वस्तु बेचने की इच्छा रखता है, वही वस्तु दूसरा व्यक्ति ख़रीदने की इच्छा रखता हो।
    • वस्तु विनिमय प्रणाली में, जहाँ मुद्रा का उपयोग किये बिना वस्तुओं का विनिमय होता है, वहाँ आवश्यकताओं का दोहरा संयोग होना अनिवार्य विशिष्टता है।
    • इसकी तुलना में ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ मुद्रा का प्रयोग होता है, मुद्रा महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती भूमिका प्रदान करके आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की ज़रूरत को खत्म कर देती है।
    • फिर जूता निर्माता के लिए ज़रूरी नहीं रह जाता कि वो ऐसे किसान को ढूँढ़ें, जो न केवल उसके जूते ख़रीदे बल्कि साथ-साथ उसको गेहूँ भी बेचे। उसे केवल अपने जूते के लिए खरीददार ढूँढ़ना है।
    • एक बार उसने जूते, मुद्रा में बदल लिए तो वह बाज़ार में गेहूँ या अन्य कोई वस्तु खरीद सकता है । चूँकि मुद्रा विनिमय प्रक्रिया में मध्यस्थता का काम करती है, इसे विनिमय का माध्यम कहा जाता है।
मुद्रा के आधुनिक रूप
  • मुद्रा ऐसी चीज़ है जो लेन-देन में विनिमय का माध्यम बन सकती है। सिक्कों के चलन से पहले तरह-तरह की चीजें मुद्रा के रूप में इस्तेमाल की जाती थीं। उदाहरण के लिए, बहुत प्रारंभिक काल से ही भारतीय अनाज और पशु का मुद्रा के रूप में इस्तेमाल करते थे। इसके बाद सोना, चाँदी और ताँबे जैसी धातुओं के सिक्कों का चलन हुआ, जिसका चलन पिछली सदी तक रहा।
करेंसी
  • मुद्रा के आधुनिक रूपों में करेंसी-कागज़ के नोट और सिक्के शामिल हैं। वे चीजें जो पहले मुद्रा के रूप में प्रयोग की जाती थीं, उसके विपरीत आधुनिक मुद्रा बहुमूल्य धातुओं जैसे सोना-चाँदी और ताँबे के बने सिक्कों से नहीं बनी है।
  • अनाज और पशुओं की तरह वे रोजमर्रा की चीजें भी नहीं है। आधुनिक मुद्रा का इस प्रकार का अपना कोई इस्तेमाल नहीं है।
  • इसे विनिमय का माध्यम इसलिए स्वीकार किया जाता है. क्योंकि किसी देश की सरकार इसे प्राधिकृत करती है। भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक केंद्रीय सरकार की तरफ से करेंसी नोट जारी करता है।
  • भारतीय कानून के अनुसार, किसी व्यक्ति या संस्था को मुद्रा जारी करने की इजाजत नहीं है। इसके अलावा कानून विनिमय के माध्यम के रूप में रुपये का इस्तेमाल करने की वैधता प्रदान करता है, जिसे भारत में सौदों में अदायगी के लिए मना नहीं किया जा सकता।
  • भारत में कोई व्यक्ति कानूनी तौर पर रुपयों में अदायगी को अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए, रुपया व्यापक स्तर पर विनिमय का माध्यम स्वीकार किया गया है।
बैंकों में निक्षेप
  • लोग मुद्रा बैंकों में निक्षेप के रूप में भी रखते हैं। किसी समय पर, लोगों को रोजमर्रा की आवश्यकताओं के लिए कुछ ही करेंसी की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए, हर महीने के आखिर में वेतन वाले मजदूरों के अतिरिक्त नकद होता है। वे इसे बैंकों में अपने नाम से खाता खोलकर जमा कर देते हैं।
  • बैंक ये जमा स्वीकार करते हैं और इस पर सूद भी देते हैं। इस तरह लोगों का धन बैंकों के पास सुरक्षित रहता है और इस पर सूद मिलता है।
  • लोगों को अपनी आवश्यकता के अनुसार इसमें से धन निकालने की सुविधा उपलब्ध होती है। चूँकि बैंक खातों में जमा धन को माँग के ज़रिए निकाला जा सकता है, इसलिए इस जमा को माँग जमा कहा जाता है।
  • माँग जमा एक अन्य दिलचस्प सुविधा देता है। यह सुविधा इसे मुद्रा का (विनिमय का माध्यम) महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रदान करती है। चेक से भुगतान के लिए भुगतानकर्त्ता, जिसका किसी बैंक में खाता है, एक निश्चित रकम के लिए चेक काटता है। चेक एक ऐसा कागज है, जो बैंक को किसी व्यक्ति के खाते से चेक पर लिखे नाम के किसी दूसरे व्यक्ति को एक ख़ास रकम का भुगतान करने का आदेश देता है।
  • माँग जमा में मुद्रा के अनिवार्य लक्षण मिलते हैं। माँग जमा के बदले चेक लिखने की सुविधा से बिना नकद का इस्तेमाल किये सीधा भुगतान करना संभव हो जाता है। चूँकि माँग जमाओं को करेंसी के साथ-साथ व्यापक स्तर पर भुगतान का माध्यम स्वीकार किया जाता है, इसलिए आधुनिक अर्थव्यवस्था में इसे भी मुद्रा समझा जाता है।
  • बैंकों के लिए इन जमा के बदले कोई भी माँग जमा एवं भुगतान नहीं होगा। मुद्रा के आधुनिक रूप-करेंसी और जमा- - आधुनिक बैंक प्रणाली की कार्यप्रणाली से बहुत करीब से जुड़े हुए हैं।
बैंकों की ऋण संबंधी गतिविधियाँ
  • बैंक जमा रकम का एक छोटा हिस्सा अपने पास नकद के रूप में रखते हैं। उदाहरण के लिए, आजकल भारत में बैंक जमा का केवल 15 प्रतिशत हिस्सा नकद के रूप में अपने पास रखते हैं। इसे किसी एक दिन में जमाकर्ताओं द्वारा धन निकालने की संभावना को देखते हुए यह प्रावधान किया जाता है। चूँकि किसी एक विशेष दिन में केवल कुछ जमाकर्ता ही नकद निकालने के लिए आते हैं, इसलिए बैंक का काम इतने नकद से आराम से चल जाता है।
  • बैंक जमा राशि के एक बड़े भाग को ऋण देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण की बहुत माँग रहती है।
  • बैंक जमा राशि का लोगों की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस तरह, बैंक जिनके पास अतिरिक्त राशि है (जमाकर्ता) एवं जिन्हें राशि की ज़रूरत है (कर्जदार) के बीच मध्यस्थता का काम करते हैं।
  • बैंक जमा पर जो ब्याज देते हैं उससे ज़्यादा ब्याज ऋण पर लेते हैं। कर्जदारों से लिए गए ब्याज और जमाकर्ताओं को दिये गये ब्याज के बीच का अंतर बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है। 
साख की दो विभिन्न स्थितियाँ
  • हमारी रोज़मर्रा की गतिविधियों में ऐसे बहुत से लेन-देन होते हैं, जहाँ किसी न किसी रूप में ऋण का प्रयोग होता है। ऋण (उधार) से हमारा तात्पर्य एक सहमति से है जहाँ साहूकार कर्जदार को धन, वस्तुएँ या सेवाएँ मुहैया कराता है और बदले में भविष्य में कर्जदार से भुगतान करने का वादा लेता है।
  • कोई भी व्यक्ति उत्पादन के लिए कार्यशील पूँजी की ज़रूरत को ऋण के द्वारा पूरा करता है। ऋण उसे उत्पादन के कार्यशील खर्चों तथा उत्पादन को समय पर पूरा करने में मदद करता है और वह अपनी कमाई बढ़ा पाता है। इस प्रकार ऋण एक महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका अदा करता है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में साख की मुख्य माँग फसल उगाने के लिए होती है। फसल उगाने में बीज, खाद, कीटनाशक दवाओं, पानी, बिजली, उपकरणों की मरम्मत इत्यादि पर काफी खर्च होता है।
  • इन आगतों को खरीदने और फसल की बिक्री होने के बीच कम से कम 3-4 महीने का अंतराल होता है। आमतौर से किसान ऋतु के आरंभ में फसल उगाने के लिए उधार लेते हैं और फसल तैयार होने के बाद वापस कर देते हैं। उधार की अदायगी मुख्यतः फसल की कमाई पर निर्भर है।
  • किसान के मामले में फसल बर्बाद हो जाने से कर्ज़ की अदायगी असंभव हो गई। उसे कर्ज उतारने के लिए अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा। ऋण ने किसान की कमाई को बढ़ाने के बजाय उसकी स्थिति बदतर कर दी। इसे आम भाषा में कर्ज-ज़ाल कहा जाता है। इस मामले में ऋण कर्जदार को ऐसी परिस्थिति में धकेल देता है, जहाँ से बाहर निकलना काफी कष्टदायक होता है।
  • एक स्थिति में ऋण आय बढ़ाने में सहयोग करता है, जिससे व्यक्ति की स्थिति पहले से बेहतर हो जाती है। दूसरी स्थिति में फसल बर्बाद होने के कारण ऋण व्यक्ति को अपने जाल में फँसा देता है।
  • किसान को कर्ज़ उतारने के लिए अपनी ज़मीन का एक हिस्सा बेचना पड़ता है। स्पष्ट है कि उसकी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई। ऋण उपयोगी होगा या नहीं, यह परिस्थिति के खतरों और हानि होने पर प्राप्त सहयोग की संभावना पर निर्भर करता है।
ऋण की शर्ते
  • हर ऋण समझौते में ब्याज दर निश्चित कर दी जाती है, जिसे कर्जदार महाजन को मूल रकम के साथ अदा करता है। इसके अलावा, उधारदाता कोई समर्थक ऋणाधार ( गिरवी रखने के लिए) की माँग कर सकता है।
  • समर्थक ऋणाधार ऐसी संपत्ति है, जिसका मालिक कर्जदार है। (जैसे कि भूमि, इमारत, गाड़ी, पशु, बैंकों में पूँजी) और इसका इस्तेमाल वह उधारदाता को गारंटी देने के रूप में करता है, जब तक कि ऋण का भुगतान नहीं हो जाता।
  • यदि कर्जदार उधार वापस नहीं कर पाता, तो उधारदाता को भुगतान प्राप्ति के लिए संपत्ति या समर्थक ऋणाधार बेचने का अधिकार होता है। संपत्ति- जैसे कि ज़मीन, बैंकों में जमा पूँजी, पशु इत्यादि समर्थक ऋणाधार के आम उदाहरण हैं, जिनका उपयोग कर्ज़ लेने के लिए किया जाता है।
  • ब्याज दर, समर्थक ऋणाधार, आवश्यक कागजात और भुगतान के तरीकों को सम्मिलित रूप से ऋण की शर्तें कहा जाता है। ऋण की शर्तों में एक ऋण व्यवस्था से दूसरी ऋण व्यवस्था में काफी फर्क आ जाता है।
  • कर्ज़ की शर्तें उधारदाता और कर्जदार की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। अगले भाग में ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जहाँ विभिन्न ऋण व्यवस्थाओं में ऋण की शर्तें अलग-अलग हैं। .
सहकारी समितियों से ऋण
  • बैकों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते ऋण का एक अन्य स्रोत सहकारी समितियाँ हैं।
  • सहकारी समिति के सदस्य अपने संसाधनों को कुछ क्षेत्रों में सहयोग के लिए एकत्र करते हैं ।
  • कई प्रकार की सहकारी समितियाँ संभव है, जैसे- किसानों, बुनकरों एवं औद्योगिक मज़दूरों इत्यादि की सहकारी समितियाँ।
  • कृषक सहकारी समिति सोनपुर के नज़दीक एक गाँव में काम करती है। इसके 2300 किसान सदस्य हैं।
  • यह अपने सदस्यों से जमा प्राप्त करती हैं। इस जमा पूँजी को ऋणाधार मानते हुए, इस सहकारी समिति ने बैंक से बड़ा ऋण प्राप्त किया है।
  • इस पूँजी का इस्तेमाल सदस्यों को कर्ज देने के लिए किया जाता है। यह ऋण लौटाने के बाद कर्ज का दूसरा दौर शुरू किया जा सकता है।
  • कृषक सहकारी समिति कृषि उपकरण खरीदने, खेती तथा कृषि व्यापार करने, मछली पकड़ने, घर बनाने और अन्य विभिन्न प्रकार के ख़र्चों के लिए ऋण मुहैया कराती है।

भारत में औपचारिक क्षेत्रक में साख

  • विभिन्न प्रकार के ऋणों को दो वर्गों में बांटा जा सकता हैऔपचारिक तथा अनौपचारिक क्षेत्रक ऋण | पहले वर्ग में बैंकों और सहकारी समितियों से लिए कर्ज़ आते हैं। अनौपचारिक उधारदाता में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि आते हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ऋणों के औपचारिक स्रोतों की कार्यप्रणाली पर नज़र रखता है।
  • आर.बी.आई. नजर रखता है कि बैंक वास्तव में नकद शेष बनाए हुए हैं। आर.बी.आई. इस पर भी नज़र रखता है कि बैंक केवल लाभ अर्जित करने वाले व्यावसायियों और व्यापारियों को ही ऋण मुहैया नहीं करा रहे, बल्कि छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों इत्यादि को भी ऋण दे रहे हैं।
  • समय-समय पर, बैंकों द्वारा आर.बी.आई. को यह जानकारी देनी पड़ती है कि वे कितना और किनको ऋण दे रहे हैं और उसकी ब्याज की दरें क्या है?
  • अनौपचारिक क्षेत्रक में ऋणदाताओं की गतिविधियों की देखरेख करने वाली कोई संस्था नहीं है। वे ऐच्छिक दरों पर ऋण दे सकते हैं। उन्हें नाजायज़ तरीकों से अपने पैसे वापस लेने से रोकने वाला कोई नहीं है ।
  • औपचारिक ऋणदाताओं की तुलना में अनौपचारिक क्षेत्रक के ज़्यादातर ऋणदाता कहीं अधिक ब्याज वसूल करते हैं। इसलिए, अनौपचारिक ऋण कर्जदाता को अधिक महँगा पड़ता है।
  • ॠण की ऊँची लागत का अर्थ है कर्जदार की आय का अधिकतर हिस्सा ऋण की अदाएगी में ही खर्च हो जाता है। इसलिए, कर्जदारों के पास अपने लिए कम आय बचती है।
  • कुछ मामलों में ऋण की ऊँची ब्याज दरों के कारण कर्ज वापस करने की रकम कर्जदार की आय से भी अधिक हो जाती है। इसके कारण ऋण का बोझ बढ़ जाता है और व्यक्ति ऋण - जाल में फँस जाता है। ऐसा भी संभव है कि जो लोग कर्ज लेकर अपना उद्यम शुरू करना चाहते हैं, वे ऋण की अधिक लागत को देख कर पीछे हट जाएँ।
  • इन सभी कारणों को देखते हुए बैंकों और सहकारी समितियों को ज्यादा कर्ज़ देना चाहिए। इसके जरिए लोगों की आय बढ़ सकती है और बहुत से लोग अपनी विभिन्न ज़रूरतों के लिए सस्ता कर्ज़ ले सकेंगे।
  • वे फसल उगा सकते हैं, कोई कारोबार कर सकते हैं, छोटे उद्योग इत्यादि लगा सकते हैं। वे नया उद्योग लगा सकते हैं या वस्तुओं का व्यापार कर सकते हैं। सस्ता और सामर्थ्य के अनुकूल कर्ज देश के विकास के लिए अति आवश्यक है।
औपचारिक और अनौपचारिक साख- किसे क्या मिलता है? 
  • शहरी क्षेत्रों के निर्धन परिवारों की कर्जों की 85 प्रतिशत ज़रूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं। इस की तुलना आप शहरी इलाकों के अमीर परिवारों से कीजिए। उनके केवल 10 प्रतिशत कर्ज़ अनौपचारिक स्रोतों से जबकि 90 प्रतिशत औपचारिक स्रोतों से हैं। इसी तरह की तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों में भी है।
  • अमीर परिवार औपचारिक ऋणदाताओं से सस्ता ऋण ले रहे हैं, जबकि गरीब परिवारों को कर्ज़ के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
    • पहला, औपचारिक स्रोत अभी भी ग्रामीण परिवारों की कुल ऋण ज़रूरतों का केवल 50 प्रतिशत पूरा कर पाता है। बाकी ज़रूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं।
    • अनौपचारिक ऋणदाताओं से लिए गये उधार पर आमतौर से ब्याज की दरें बहुत अधिक होती हैं और यह उधार कर्जदाताओं की आय बढ़ाने का काम कम ही कर पाता है।
    • इसलिए, बैंकों और सहकारी समितियों को अपनी गतिविधियाँ विशेषकर ग्रामीण इलाकों में बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि कर्जदारों की अनौपचारिक स्रोत पर से निर्भरता घंटे।
    • दूसरा, यदि एक तरफ औपचारिक स्रोत के ऋणों का विस्तार होना चाहिए तो दूसरी ओर यह भी ज़रूरी है कि यह ऋण सभी लोगों को प्राप्त हो सके।
    • वर्तमान समय में, अमीर परिवार ही औपचारिक स्रोतों से ऋण प्राप्त करते हैं जबकि गरीब परिवारों को अनौपचारिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यह ज़रूरी है कि औपचारिक ऋण का अधिक समान वितरण हो, ताकि गरीब परिवार भी सस्ते ऋण का फायदा उठा सकें।
निर्धनों के स्वयं सहायता समूह
  • भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक मौजूद नहीं हैं। जहाँ कहीं मौजूद भी हैं, बैंक से कर्ज़ लेना अनौपचारिक स्रोत से कर्ज़ लेने की तुलना में ज्यादा मुश्किल है।
  • बैंक से कर्ज़ लेने के लिए ऋणाधार और विशेष कागजातों की ज़रूरत पड़ती है। ऋणाधार की अनुपलब्धता एक प्रमुख कारण है, जिससे गरीब बैंकों से ऋण नहीं ले पाते।
  • दूसरी ओर, अनौपचारिक ऋणदाता जैसे साहूकार इन कर्जदारों को व्यक्तिगत स्तर पर जानते हैं और इस कारण अक्सर बिना ऋणाधार के भी ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं।
  • कर्ज़दार ज़रूरत पड़ने पर पुराना ऋण चुकाये बिना भी, नया कर्ज़ लेने के लिए साहूकार के पास जा सकते हैं। लेकिन, महाजन ब्याज की दरें बहुत ऊँची रखते हैं, लेन-देन की लिखा पढ़ी भी पूरी नहीं करते और निर्धन कर्जदारों को तंग करते हैं ।
  • हाल के वर्षों में, लोगों ने गरीबों को उधार देने के कुछ नए तरीके अपनाने की कोशिश की है। इनमें से एक विचार ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों विशेषकर महिलाओं को छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूहों में संगठित करने और उनकी बचत पूँजी को एकत्रित करने पर आधारित है।
  • एक विशेष स्वयं सहायता समूह में एक-दूसरे के पड़ोसी 15-20 सदस्य होते हैं, जो नियमित रूप से मिलते हैं और बचत > हैं। प्रति व्यक्ति बचत 25 रुपये से लेकर 100 रुपये या अधिक हो सकती है। यह परिवारों की बचत करने की क्षमता पर निर्भर करता है। सदस्य अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए छोटे कर्ज़ समूह से ही कर्ज ले सकते हैं ।
  • समूह इन कर्जों पर ब्याज लेता है लेकिन यह साहूकार द्वारा लिए जाने वाले ब्याज से कम होता है। एक या दो वर्षों के बाद, अगर समूह नियमित रूप से बचत करता है, तो समूह बैंक से ऋण लेने के योग्य हो जाता है। ऋण समूह के नाम दिया जाता है और इसका मकसद सदस्यों के लिए स्वरोजगार के अवसरों का सृजन करना है।
    • उदाहरण के लिए, सदस्यों को छोटे-छोटे कर्ज अपनी गिरवी ज़मीन छुड़वाने के लिए, कार्यशील पूँजी की ज़रूरतें ( बीज, खाद, बाँस और कपड़े खरीदने के लिए), घर बनाने, सिलाई की मशीन, हथकरघा, पशु इत्यादि संपत्ति खरीदने के लिए दिए जाते हैं।
  • बचत और ऋण गतिविधियों से संबंधी ज्यादातर महत्त्वपूर्ण निर्णय समूह के सदस्य स्वयं लेते हैं। समूह दिए जाने वाले ऋण - उसका लक्ष्य, उसकी रकम, ब्याज दर, वापस लौटाने की अवधि आदि के बारे में निर्णय करता है। इस ऋण को लौटाने की ज़िम्मेदारी भी समूह की होती है।
  • एक भी सदस्य अन्य सदस्य इस मामले को गंभीरता से लेते हैं। इसी कारण, बैंक निर्धन महिलाओं को ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं जब वे अपने को स्वयं सहायता समूहों में संगठित कर लेती के अगर ऋण वापस नहीं लौटाता तो समूह हैं, यद्यपि उनके पास कोई ऋणाधार नहीं होता।
  • इस तरह, स्वयं सहायता समूह कर्जदारों को ऋणाधार की कमी की समस्या से उबारने में मदद करते हैं। उन्हें समयानुसार विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के लिए एक उचित ब्याज दर पर ऋण मिल जाता है।
  • इसके अतिरिक्त यह समूह ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों को संगठित > करने में मदद करते हैं।
  • इससे न केवल महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाती हैं, बल्कि समूह की नियमित बैठकों के ज़रिए लोगों को एक आम मंच मिलता है, जहाँ वह तरह-तरह के सामाजिक विषयों जैसे, स्वास्थ्य, पोषण और घरेलू हिंसा इत्यादि पर आपस में चर्चा कर पाती हैं।
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