अंग्रेजों के विदेशी सम्बन्ध तथा सीमान्त नीति

अंग्रेजों के विदेशी सम्बन्ध तथा सीमान्त नीति

अंग्रेजों के विदेशी सम्बन्ध तथा सीमान्त नीति

आंग्ल-अफगान सम्बन्ध
> प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध के कारण तथा परिणाम 
अँग्रेजों ने अफगानिस्तान में अपना प्रभाव व नियन्त्रण स्थापित करने के उद्देश्य से उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर युद्ध को निमन्त्रण दिया, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में हुए प्रथम युद्ध में अँग्रेजों को भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा. इस युद्ध के प्रारम्भ होने के निम्नलिखित कारण थे – 
1. अफगानिस्तान की आन्तरिक स्थिति ने अंग्रेजों को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया. 1793 ई. में तैमूर की मृत्यु के कारण वहाँ गद्दी पर अधिकार के प्रश्न को लेकर उसके दावेदारों के कारण गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया. अन्त में जमानशाह ने सफलता पायी और उसने भारत विजय करने के प्रयास में अवध और मैसूर के साथ पत्र व्यवहार किया, लेकिन वेलेजली ने उसे ईरान के साथ संघर्ष में उलझा दिया. इसी बीच उसे अपदस्थ कर महमूदशाह ने सत्ता हथिया ली. उसके बाद शाहशुजा वहाँ का शासक बना, जिसे हटाकर दोस्त मुहम्मद शासक बन गया. अब शाहशुजा ने दोस्त मुहम्मद से सत्ता प्राप्ति के लिए प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया, जिसके चलते अँग्रेजों ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया.
2. रूस निरन्तर मध्य एशियाई क्षेत्रों व अफगानिस्तान की ओर अपना प्रभाव बढ़ाता जा रहा था. अतः रूस और ब्रिटिश साम्राज्य के मध्य अँग्रेज अफगानिस्तान को सुरक्षित राज्य बनाना चाहते थे, इसके साथ ही उनका उद्देश्य अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशियाई व्यापार पर नियन्त्रण भी स्थापित करना था.
3. रूस ने ईरान से 'गुलिस्तां की सन्धि' (1813 ई.) कर उस पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था. अब वह अफगानिस्तान की ओर बढ़ना चाहता था, क्योंकि ईरान की सीमाएँ अफगानिस्तान से सटी हुई थीं. अतः अँग्रेजों ने रूस के प्रभाव को अफगानिस्तान में न पड़ने देने के लिए युद्ध किया.
4. अफगानिस्तान के प्रति अँग्रेज गवर्नर लॉर्ड ऑकलैण्ड ने ‘अग्रगामी नीति' का अनुसरण किया, जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान को हमेशा-हमेशा के लिए असंगठित एवं कमजोर कर देना था. इस सन्दर्भ में उसने अफगान शासक से अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ करने के लिए 'बर्न्स' को अपना दूत बनाकर भेजा, जिसे असफलता मिलने पर ऑकलैण्ड ने अपदस्थ शासक शाहशुजा को अफगानिस्तान में ब्रिटिश सेना की मदद से शासक बनाने फैसला किया. शाहशुजा ने अँग्रेजों से यह वादा कर रखा था कि वह अँग्रेजों की अनुमति के बगैर किसी विदेशी शक्ति से सम्बन्ध स्थापित नहीं करेगा.
अब ऑकलैण्ड ने शाहशुजा को अँग्रेज सेना के साथ अफगानिस्तान भेजा, जिसने दोस्त मुहम्मद को परास्त कर काबुल पर अधिकार कर लिया, परन्तु अँग्रेज अधिकारियों के दुर्व्यव्यवहार से अफगान नाराज हो गए तथा उन्होंने 1841 ई. में बर्न्स और उसके भाई की हत्या कर दी तथा दोस्त मुहम्मद के बेटे अकबर को विद्रोहियों ने अपना नेता बना लिया, जिसने अँग्रेजों को हराकर उन्हें अपमानजनक सन्धि करने पर विवश कर दिया. इस सन्धि के अनुसार, दोस्त मुहम्मद को वापस लाकर शासक बनाना था और अँग्रेजों को अफगानिस्तान से अपनी सेना हटा लेनी थी. जनवरी, 1842 ई. में सन्धि के अनुसार जब अँग्रेज सेना वापस लौट रही थी, तब उस पर विद्रोहियों ने आक्रमण कर लगभग 16,000 फौज के सदस्यों को मार दिया तथा केवल एक व्यक्ति ब्राइडन ही जीवित लौट सका. अब ऑकलैण्ड ने इस घोर पराजय का बदला लेने के लिए एक बड़ी सेना भेजी, परन्तु उसे शीघ्र ही वापस बुला लिया गया, जिसके कारण यह सेना कोई कार्यवाही न कर सकी.
ऑकलैण्ड के बाद एलनबरो गवर्नर बनकर भारत आया और उसने 1842 ई. में जनरल पोलक और नॉट के नेतृत्व में अफगानिस्तान में सेना भेजी, जिसने विद्रोहियों का बड़ी ही कठोरता से दमन किया और काबुल पर अधिकार कर लिया, लेकिन इसी के बीच शाहशुजा की हत्या किए जाने के कारण दोस्त मुहम्मद को पुनः गद्दी पर बैठा दिया और अँग्रेज सेना वापस लौट गई. इसके बाद गवर्नर जनरल ने यह घोषणा की कि, अफगानिस्तान में वह ऐसे शासन की स्वीकृति देगा, जैसाकि अफगानी चाहेंगे. उसकी इस घोषणा से यह युद्ध समाप्त हो गया.
परिणाम — इस युद्ध के परिणाम अँग्रेजों के लिए बड़े ही निराशाजनक थे, क्योंकि उनकी एक बड़ी फौज का इस संसार से नामोनिशान तक मिट गया. इसके साथ ही इस युद्ध में अँग्रेजों को बहुत बड़ी आर्थिक क्षति हुई. इस युद्ध में अँग्रेजों द्वारा डेढ़ करोड़ रुपया फूँक देने के बाद भी कोई परिणाम हासिल न हो सका. अन्त में अँग्रेजों को दोस्त मुहम्मद को ही शासक स्वीकार करना पड़ा तथा साथ में यह भी कि जैसा अफगानी शासक चाहेंगे, वैसा शासन उन्हें स्वीकार होगा. इस युद्ध को अनेक इतिहासकारों ने इसे 'मूर्खतापूर्ण युद्ध' की संज्ञा दी है. रॉबर्ट्स के मतानुसार, “यह युद्ध भारत में अँग्रेजों द्वारा लड़े गए युद्धों में राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक विनाशकारी था तथा नैतिक आधार पर भारत में अँग्रेजों द्वारा लड़े गए युद्धों में सबसे कम न्यायोचित था. " इस प्रकार प्रथम अँग्रेज अफगान युद्ध में अँग्रेजों को सम्भवतः सबसे बड़ी पराजय दी जिसका कोई परिणाम नहीं निकला.
> अफगानिस्तान के सन्दर्भ में कुशल अकर्मण्यता की नीति
प्रथम अँग्रेज-अफगान युद्ध के बाद जब दोस्त मुहम्मद अफगानिस्तान का शासक बना, तब से लेकर 1876 ई. तक लॉर्ड लिंटन के वायसराय बनने से पूर्व अफगानिस्तान के प्रति अँग्रेजों द्वारा जिस नीति अनुसरण किया गया उसे 'कुशल अकर्मण्यता की नीति' (Policy of Masterly Inactivity) कहा जाता है. इस नीति की प्रमुख बात यह थी कि, बिना किसी विशेष बात के अँग्रेज अफगानिस्तान के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा इससे मित्रवत् सम्बन्ध बनाने के प्रयास करेंगे.
कुशल अकर्मण्यता की नीति को लॉर्ड एलनबरो ने प्रारम्भ किया था, जिसका पालन लोरेंस, मेयो और नार्थ ब्रुक के समय तक होता रहा.
लोरेंस की नीति – इसने अफगानिस्तान के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का निर्णय किया, परन्तु उसने यह भी कहा कि, यदि कोई अफगान शासक अपनी स्थिति को सुदृढ़ एवं मजबूत बनाने के लिए अँग्रेजों से सहायता की माँग करेगा तो वह उसे पूरी सहायता भी देगा. 1863 ई. में दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के बाद उठ खड़े उत्तराधिकार के संघर्ष में शेरअली ने अपने विद्रोहियों को परास्त कर जब सत्ता प्राप्त कर ली, तब 1864 ई. में लोरेंस ने उसे मान्यता प्रदान कर दी, परन्तु इससे अफगानों के संघर्ष का अन्त नहीं हुआ और 1866 ई. में अफजल को काबुल का एवं शेरअली को हेरात का शासक स्वीकार कर लिया गया, फिर इसी समय शेरअली ने अफगानिस्तान पर पूरा अधिकार कर लिया. लोरेंस ने इसे भी अपनी मान्यता प्रदान कर दी. उसने सभी शासकों को इसी प्रकार अपनी मान्यता देकर ब्रिटिश सेना को अनावश्यक युद्धों में फँसने से बचाया तथा रूस को अफगानिस्तान में प्रभाव जमाने का अवसर नहीं दिया.
ठीक इसी नीति का अनुसरण मेयो और नार्थ बुक ने भी किया, जिसके कारण अफगानों व अँग्रेजों के मध्य शान्ति बनी रही. वास्तव में इस नीति का अनुसरण करना उचित ही था, क्योंकि अफगान लोग स्वतन्त्रता प्रेमी थे तथा वे किसी का दबाव स्वीकार नहीं कर सकते थे. इस कारण से उनसे व्यर्थ में उलझना इन गवर्नरों ने उचित नहीं समझा.
> द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध के कारण व परिणाम
1876 ई. में लॉर्ड लिंटन भारत में वायसराय बनकर आया तथा आते ही उसने अफगानिस्तान के प्रति जिस नीति का अनुसरण किया उसे 'अग्रगामी नीति' कहा जाता है. उसकी इस नीति के कारण द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध लड़ा गया. इस युद्ध के कारण निम्नलिखित थे - 
1. लिंटन ने अफगानिस्तान के शासक के पास अपना एक सन्धि- प्रस्ताव दूत बेली के नेतृत्व में भेजा, जिसके अनुसार, अफगानिस्तान को रूस के विरुद्ध संरक्षण देने, एक नियमित राशि बतौर सहायता देने, काबुल में एक अँग्रेज रेजीडेण्ट रखने तथा शेरअली के पुत्र अबदुल्ला जान को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार करने की बात कही गई थी, परन्तु शेरअली ने इस दूत से बिना मिले ही इसे वापस लौटा दिया, जिससे शेरअली और अंग्रेजों के सम्बन्ध बिगड़ गए.
2. 1876 ई. में अफगानिस्तान के निकट अत्यधिक सामरिक महत्व के केन्द्र क्वेटा को क्लाट के खान से प्राप्त कर अफगानों के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया.
3. लिटन ने कश्मीर के शासक से भी सन्धि कर गिलगिट में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट की स्थापना कर दी. अब शेरअली ने समझा कि, अँग्रेज उसे घेरकर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं.
4. यूरोपीय राजनीति में तुर्की की पराजय के बाद रूस ने जनरल स्टोलीटॉक को दूत बनाकर काबुल भेजा, जिसका उद्देश्य ब्रिटेन पर दबाव डालकर पर्लिन काँग्रेस में और अधिक रियायत प्राप्त करना था.
5. लिटन ने हेरात में शेरअली से एक अँग्रेज रेजीडेण्ट रखने की माँग उसे रूसी आक्रमण का भय दिखाकर की तथा उससे यह भी कहा कि वह बिना अँग्रेजों की अनुमति के किसी विदेशी शक्ति से सम्बन्ध स्थापित नहीं करें, तो अली ने लिंटन की इन शर्तों को जब ठुकरा दिया. तब दोनों पक्षों में युद्ध होना अनिवार्य हो गया.
युद्ध — लिंटन ने अब सैनिक कार्यवाही को प्रारम्भ करते हुए अफगानिस्तान के विरुद्ध नवम्बर, 1878 ई. को खैबर, पीवर और बोलन दर्रों के मार्ग से आक्रमण कर दिया तथा अँग्रेजी सेना का शीघ्र ही काबुल पर अधिकार हो गया. शेरअली भागकर रूसी तुर्किस्तान चला गया. जहाँ कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई.
शेरअली के पुत्र याकूब खाँ ने 26 मई, 1879 ई. गंडमक की सन्धि कर ली, जिसके अनुसार, अँगेजों को काबुल तथा हेरात में स्थायी रेजीडेण्ट रखने की आज्ञा मिल गई और साथ-ही-साथ अँग्रेजों को कुर्रम और मिशनी दर्रों का नियन्त्रण व कुर्रम, पिशनी और शिबी जिलों के प्रशासन को चलाने का अधिकार भी मिल गया. यहाँ अनेक अँग्रेज अधिकारियों की नियुक्ति कर दी गई. इससे अफगानिस्तान की विदेश नीति पर अँग्रेजों का नियन्त्रण स्थापित हो गया.
इन सभी के बदले याकूब को सुरक्षा का आश्वासन एवं 6 लाख रुपए वार्षिक मिलना तय हुआ.
परन्तु कुछ समय बाद अफगानिस्तानी जो इस व्यवस्था से अत्यन्त क्षुब्ध थे, ने विद्रोह कर दिया तथा 3 दिसम्बर, 1879 ई. को अँग्रेज रेजीडेण्ट केवेग्नेरी तथा कई अन्य अँग्रेजों की हत्या कर दी. इसके प्रतिरोधस्वरूप लिटन ने अफगानिस्तान में एक सेना भेजी जिसने कान्धार एवं काबुल पर अधिकार कर लिया तथा याकूब को गिरफ्तार करके देहरादून भेज दिया. अफगानिस्तान को लिटन ने दो भागों में बाँट देने का निश्चय कर लिया, लेकिन 1880 ई. में उसे वापस जाना पड़ा.
वास्तव में द्वितीय अफगान युद्ध जिन उद्देश्यों को लेकर लड़ा गया था, वे इस युद्ध के बाद पूरे नहीं हो सके. हालांकि इससे अंग्रेजों को लाभ ही हुआ. उनकी शर्तों का अक्षरशः पालन याकूब द्वारा किया गया था तथा रूस समर्थक शेरअली को अफगानिस्तान से बाहर खदेड़ दिया गया, फिर भी नैतिक दृष्टि से यह युद्ध एक थोपा गया युद्ध था.
> तृतीय आंग्ल-अफगान युद्ध : टिप्पणी
तृतीय अफगान का मुख्य कारण रूस का इस क्षेत्र की ओर बढ़ता प्रभाव था. उसने 1884-85 ई. में मर्प और पंजदेह पर अधिकार कर लिया तथा पेशद से लेकर तेहरान तक की संचार व्यवस्था को नष्ट कर दिया. इससे रूस और ब्रिटेन के सम्बन्ध बिगड़ गए. विश्व युद्ध (1905) के समय रूस ने अफगान सीमा पर रेलवे लाइन बिछा दी, परन्तु 1907 ई. के आंग्ल-रूसी समझौते में जिसमें रूस ने अफगानिस्तान को अपने प्रभाव क्षेत्र से बाहर माना था, स्थिति को बेहतर कर दिया और रूस-अफगानिस्तान के सन्दर्भ में अलग हट गया.
अफगानिस्तान के शासक हबीबुल्लाह ने जोकि पश्चिमीकरण का समर्थक था, अफगानिस्तान का पश्चिमीकरण प्रारम्भ कर दिया. इससे अंग्रेजों में उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया होनी प्रारम्भ हो गई, परन्तु इसी बीच उसकी हत्या कर अमानुल्ला 20 फरवरी, 1919 ई. को अफगानिस्तान का शासक बन गया.
अमानुल्ला एक स्वतन्त्र विचारधारा वाला व्यक्ति होने के कारण वह अफगानिस्तान में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करता था. उसकी आन्तरिक परिस्थिति भी इस समय सन्तोषजनक नहीं थी. अतः उसने जनता का ध्यान हटाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष प्रारम्भ कर दिया और ब्रिटिश क्षेत्रों में लूट-पाट मचाने लगा, परन्तु अँग्रेजी सेना ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया. इसी के साथ इस युद्ध का अन्त हो गया और अमानुल्ला ने वायसराय चेम्सफोर्ड से सन्धि कर ली.
> रावलपिण्डी की सन्धि (8 अगस्त, 1921 ई.)
इस सन्धि से अफगानिस्तान को अँग्रेजों द्वारा सहायता मिलनी बन्द हो गई तथा उसकी विदेश नीति पर पूर्ण रूप से अँग्रेजों ने नियन्त्रण स्थापित कर लिया. लन्दन में एक अफगान-मन्त्री की नियुक्ति की गई और अफगानों को अपना माल भारतीय बन्दरगाहों को बिना चुंगी दिए देश से बाहर ले जाने का अधिकार मिल गया. दोनों पक्षों में इसके द्वारा मित्रता स्थापित हो गई और अँग्रेजों ने अब अफगानिस्तान के मामलों में हस्तक्षेप करना बन्द कर दिया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस युद्ध के द्वारा अँग्रेजों ने अफगानिस्तान को रूस से पृथक् कर दिया.
अँग्रेज- ईरान सम्बन्ध (The Anglo-Persian Relation)
> भारतीय सन्दर्भ में आंग्लपर्शिया सम्बन्ध
ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से ईरान का स्थान बहुत अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि मध्य एशियाई व्यापार पर यदि नियन्त्रण करना था, तो ईरान का अँग्रेजों के लिए उनका मित्र होना आवश्यक था. अँग्रेज मध्य एशिया में रूसी विस्तार को भी रोकना आवश्यक समझते थे. अतः अँग्रेजों द्वारा पर्शिया या ईरान के प्रति एक निश्चित नीति को अपनाना आवश्यक हो गया.
पार्शिया को केन्द्रित कर सर्वप्रथम गवर्नर जनरल वेलेजली ने ईरान से सम्बन्धों की शुरूआत की. इस हेतु उसने एक ईरानी व्यक्ति 'मेहदी अलीखाँ' को अपना दूत बनाकर फारस के शाह के पास भेजा, जिसने अफगानिस्तान के शासक जमानशाह को ईरान के साथ संघर्ष में उलझा दिया, परन्तु इससे अधिक सफलता नहीं मिल सकी तथा इस क्षेत्र में रूसी प्रभाव में वृद्धि होती रही. अतः वेलेजली ने अपने दूत मैलकम द्वारा 1801 ई. में व्यापारिक और राजनीतिक सन्धियाँ की, जिसके अनुसार अँग्रेज व भारतीय व्यापारियों को फारस में बसने और व्यापार करने की आज्ञा शाह द्वारा प्रदान की गयी.
लॉर्ड मिण्टो के समय ईरान के शाह ने फ्रांसीसियों की तरफ अपना झुकाव बढ़ा लिया. इस समय नेपोलियन पूर्व की ओर अपना प्रसार करना चाहता था. अतः मिण्टो ने मैलकम को पुनः दूत बनाकर ईरान भेजा और ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का एक दूत ईरान भी गया, परन्तु दोनों को ही निराश लौटना पड़ा. बाद में मिण्टो ने हरफोर्ड जोंस को दूत बनाकर ईरान भेजा, जिसने शाह के साथ एक प्रारम्भिक सन्धि करने में सफलता प्राप्त की.
लॉर्ड हेस्टिंग्स और तेहरान की सन्धि - लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 1809 ई. की सन्धि को आधार बनाकर 24 नवम्बर, 1824 ई. को 'तेहरान की सन्धि' की, जिसके अनुसार शाह ने इंग्लैण्ड के शत्रुओं से की गयी सभी सन्धियों को भंग कर दिया तथा अँग्रेज विरोधी सभी सेनाओं का ईरान में प्रवेश बन्द हो गया. यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान और ईरान के मध्य होने वाले संघर्ष में अँग्रेज अलग रहेंगे और यदि अफगानिस्तान का अंग्रेजों से संघर्ष हुआ तो ईरान अँग्रेजों को सहायता देगा. इसी प्रकार अँग्रेजों ने भी यह आश्वासन दिया कि यदि किसी यूरोपीय शक्ति में ईरान पर आक्रमण किया तो अँग्रेज ईरान की सहायता करेंगे.
आंग्ल- ईरान सम्बन्धों में कटुता — 1827 ई. में रूस ने जब फारस पर आक्रमण किया तब शाह ने तेहरान की सन्धि के अनुसार फारस ने अँग्रेजों से सहायता माँगी, जिसे अंग्रेजों ने ठुकरा दिया फलस्वरूप शाह की पराजय हो गयी. इससे अँग्रेज व ईरान के सम्बन्ध बिगड़ गये. अब ईरान ने अफगानिस्तान की ओर ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया तथा हेरात पर अधिकार कर लिया. इसे अँग्रेजों ने अपने लिए खतरा मानकर फारस की खाड़ी में युद्धपोत भेज दिया, जिससे ईरान को हेरात खाली करना पड़ा और अँग्रेजों से समझौता करना पड़ा. इस समय गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैण्ड था. इसके बाद भी दोनों पक्षों में सम्बन्ध सन्तोषजनकं बने रहे .
लॉर्ड कर्जन और ईरान- ईरान में अपने-अपने स्वार्थों से प्रेरित होकर फ्रांस, रूस, तुर्की, इंटली, जर्मनी आदि देश अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे तथा अँग्रेज इस क्षेत्र में किसी अन्य शक्ति की उपस्थिति को पसन्द नहीं करते थे. इसी बीच 1898 ई. में फ्रांसीसियों ने ओमान के सुल्तान से 'जिस्साह' नामक स्थान कोयला स्टेशन के रूप में ले लिया, जिससे अँग्रेजों को अत्यधिक चिन्ता हुई. इस पर लॉर्ड कर्जन स्वयं 1903 ई. में ईरान गया और खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने के उद्देश्य से बन्दरगाहों और व्यापारिक केन्द्रों पर अपने दूतावास स्थापित किये, सीमा चौकियों को बताया गया व रेलवे का विस्तार किया गया. ओमान पर दबाव डाला गया कि वह फ्रांसीसियों को सहायता और व्यापारिक सुविधा देना बन्द करे, इसके लिए उसने एक युद्धपोत भी भेजा, जिससे डरकर ओमान की सरकार ने फ्रांस को दी गयी सारी सुविधाएँ वापस ले लीं.
इस प्रकार कर्जन ने फारस में अन्य किसी यूरोपीय शक्ति को अपना प्रभाव जमाने का अवसर नहीं दिया.
फारस का विभाजन – 1907 ई. में इंग्लैण्ड व रूस ने आपस में समझौता कर फारस को तीन क्षेत्रों में बाँट दिया. प्रथम क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी भाग पर इंग्लैण्ड तथा द्वितीय क्षेत्र उत्तरी भाग पर रूस का प्रभाव क्षेत्र माना गया तथा तीसरा क्षेत्र दक्षिणी फारस और खाड़ी के किनारे वाले प्रदेश को तटस्थ क्षेत्र स्वीकार कर लिया गया और यह व्यवस्था प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ होने तक चलती रही.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड ने फारस से एक समझौता 1919 ई. में कर उसकी एकता और अखण्डता का आश्वासन दिया और उसकी सैनिक और आर्थिक मामलों पर नियन्त्रण कायम कर लिया. इस सन्धि के विरुद्ध ईरान में प्रतिक्रिया हुई, जिसके कारण इसे समाप्त कर रूस के साथ फारस ने रक्षात्मक सन्धि कर ली.
1942 ई. में विश्व युद्ध के दौरान रूस, इंग्लैण्ड और ईरान के मध्य एक सन्धि हुई, जिसमें ईरान की स्वतन्त्रता व अखण्डता को बनाये रखने की बात स्वीकार की गई. 1943 ई. में ब्रिटेन, अमरीका और रूस का शिखर सम्मेलन तेहरान में हुआ, जिसमें 1942 ई. की बातों को पुनः दोहराया गया. इंग्लैण्ड ने अपनी फौजों को युद्ध की समाप्ति पर 1945 ई. में हटा लिया, उसके बाद अमरीका तथा रूस ने भी अपनी फौजें हटा लीं. इस प्रकार से ईरान पूर्ण रूप से पश्चिमी राष्ट्रों के चंगुल से मुक्त हो गया. कि इंग्लैण्ड ने अपने
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है भारतीय साम्राज्य की रक्षा करने एवं मध्य एशिया के व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित करने के उद्देश्य से ईरान से सम्बन्धों को प्रारम्भ कर वहाँ किसी भी अन्य यूरोपीय शक्ति को जमने नहीं दिया, परन्तु अन्य यूरोपीय शक्तियों के कारण ही ईरान की स्वतन्त्रता और अखण्डता बची रही.
आंग्ल-नेपाल सम्बन्ध (The Anglo-Nepalease Relation)
1768 ई. में नेपाल में पृथ्वीनारायण नामक व्यक्ति ने सत्ता सँभाली तभी से नेपाल में गोरखों की शक्ति बढ़ने लगी तथा उनके राज्य का विस्तार होने लगा. 1792 ई. में अँग्रेजों तथा गोरखों के मध्य एक व्यापारिक सन्धि हुई, परन्तु इसी समय नेपाल में विद्रोह हो जाने के कारण यह क्रियान्वित न हो सकी. गोरखों ने अपने राज्य का विस्तार जारी रखा और कम्पनी ने भी इसी नीति के तहत गोरखपुर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया, जिससे नेपाल और कम्पनी की सीमाएँ एक-दूसरे से टकराने लगीं. 1802 ई. में कप्तान नॉक्स के नेतृत्व में अँग्रेजों ने गोरखों से एक अन्य व्यापारिक सन्धि की, परन्तु दोनों पक्षों के सम्बन्धों में कोई विशेष सुधार न आने के कारण इसे कम्पनी द्वारा भंग कर दिया गया. इससे दोनों पक्षों के सम्बन्ध और अधिक बिगड़ गये. हेस्टिंग्स (1813–23 ई.) ने गोरखों की शक्ति को कुचल देने का निश्चय किया तथा इस हेतु उसने गोरखों के विरुद्ध आक्रमण की घोषणा कर दी तथा एक बड़ी सेना 1814 ई. में कर्नल निकोलस तथा गार्डनर के नेतृत्व में नेपाली क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए भेजी. गोरखों ने अनेक स्थानों पर अँग्रेजों को परास्त कर दिया, किन्तु बाद में अँग्रेजों ने कुमायूँ' लॉर्ड कर पर अधिकार कर लिया. गोरखों के सेनापति अमरसिंह थापा को मलाऊ के किले में आत्मसमर्पण करने के लिए दिया. अँग्रेजों ने गोरखों को अपनी सेना में भर्ती कर नेपाली शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया, जिसके कारण दोनों पक्षों में संघर्ष वार्ता प्रारम्भ हुई.
हेस्टिंग्स ने नेपाल के सम्मुख कड़ी शर्तें प्रस्तुत कीं, परन्तु नेपालियों ने उन्हें अस्वीकार कर पुनः संघर्ष प्रारम्भ कर दिया, परन्तु पुनः अँग्रेजों ने उनके अनेक केन्द्रों पर अधिकार कर सन्धि करने के लिए विवश कर दिया. अतः अँग्रेजों और गोरखों के मध्य सुगौली की सन्धि के साथ ही शान्ति स्थापित हो गयी.
> सुगौली की सन्धि (1816 ई.)
इस सन्धि के अनुसार नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में गोरखों ने एक अँग्रेज रेजीडेण्ट का रहना स्वीकार कर लिया तथा गढ़वाल व कुमायूँ के जिले अँग्रेजों को मिल गए. इसके साथ सिक्किम व तराई के क्षेत्रों से गोरखों ने अपना दावा हटा लिया. गोरखों ने यह भी वचन दिया कि वे बिना अँग्रेजों की आज्ञा के किसी भी अन्य यूरोपीय को नेपाल में बसने नहीं देंगे.
यह सन्धि नेपाल के लिए अत्यन्त अपमानजनक एवं हानिकारक थी तथा नेपाल की स्वतन्त्रता का हनन इस सन्धि द्वारा कर लिया गया, परन्तु अँग्रेजों के लिए यह सन्धि अत्यन्त लाभदायक थी. उन्हें अनेक ऐसे पहाड़ी स्थान मिले जिसे उन्होंने अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया; जैसेनैनीताल, शिमला आदि. इसके साथ ही अँग्रेजों ने गोरखा जैसी बहादुर जाति को अपनी सेना में भर्ती किया, जिन्होंने राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. इस सन्धि से दोनों पक्षों के सम्बन्ध भारत की स्वतन्त्रता तक मैत्रीपूर्ण ही रहे.
आंग्ल-बर्मा सम्बन्ध (The Anglo-Burmese Relation)
> प्रथम आंग्ल - बर्मा युद्ध के कारण एवं स्वरूप
देशों की साम्राज्यवादी नीतियाँ और स्वार्थ प्रमुख रूप से अँग्रेजों व बर्मा के मध्य युद्ध का प्रमुख कारण दोनों उत्तरदायी थे. फिर भी निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत संघर्ष के कारणों को विभाजित किया जा सकता है-
(1) बर्मा की विस्तारवादी नीति — बर्मा ने अपनी साम्राज्यवादी नीति के कारण अपने राज्य का बहुत अधिक विस्तार कर दिया था तथा 1813 ई. तक उनके राज्य में मणिपुर, अराकान आदि प्रदेशों को शामिल कर लिया गया था. 1821-22 व 1823 ई. में उन्होंने आसाम के अहोम राज्य पर तथा चटगाँव के निकट शाहपुरी द्वीप पर अधिकार कर अँग्रेजों से चटगाँव, कासिम बाजार तथा मुर्शिदाबाद की माँग की जिससे दोनों पक्षों में तनाव उत्पन्न होना स्वाभाविक था.
(2) बर्मी अपराधियों का अँग्रेजों द्वारा शरण देना — अंग्रेजों ने चटगाँव में अराकान के भगोड़े अपराधियों को शरण दे रखी थी, जो सदैव अराकान पर आक्रमण करते रहते थे. अतः बर्मा की सरकार ने इन्हें सौंप देने के लिए अँग्रेजों से कहा जिसे अँग्रेजों ने ठुकरा दिया, इससे दोनों पक्षों में तनाव उत्पन्न हो गया.
(3) बर्मी एवं अँग्रेज दोनों ही युद्ध के लिए अवसर की तलाश में थे. अँग्रेज अपनी सीमा पर शक्तिशाली राज्य को सहन नहीं कर सकते थे तथा उन्होंने इसे नष्ट करने का अब निश्चय कर लिया था. इधर बर्मी सरकार को अपनी ताकत का अत्यधिक घमण्ड था. साथ ही बर्मी सरकार यह भी सोचती थी कि यदि उनका अंग्रेजों से संघर्ष हुआ, तो भारतीय शक्तियों को अँग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने का अवसर मिलेगा.
(4) मणिपुर एवं असम की विजय के बाद बर्मियों का साहस बढ़ गया था. अतः इसे रोकने के लिए अँग्रेजों ने कचार पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया जिसने बर्मा के लोगों को अँग्रेजों से युद्ध करना अनिवार्य कर दिया.
युद्ध का स्वरूप - 24 फरवरी, 1824 ई. को अँग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड एमहर्स्ट ने बर्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर जल एवं थल मार्ग से बर्मा के विरुद्ध सेना भेज दी. अँग्रेजी सेना ने बर्मियों को मणिपुर, असम, कचार और अराकान से बाहर निकाल दिया और 1824 ई. में जल सेना ने रंगून पर अधिकार कर लिया. इधर बर्मी सेनापति महाबुन्देला ने अँग्रेजों को चटगाँव की सीमा पर बुरी तरह से पराजित कर दिया. अब बर्मी सेना ने छापामार युद्ध द्वारा अँग्रेजों को खूब परेशान करना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु सेनापति निचले बर्मा की राजधानी प्रोम के लिए हुए युद्ध में 1825 ई. में मारा गया और अँग्रेजों ने उस पर अधिकार कर लिया. इससे बर्मी सेना सन्धि के लिए तैयार हो गई और यांडबू की सन्धि के साथ ही युद्ध को समाप्त कर दिया गया.
यांडबू की सन्धि (24 फरवरी, 1826 ई.) – इस सन्धि के अनुसार बर्मा ने अंग्रेजों को तीनासरीम व अराकान प्रदेश देना स्वीकार कर लिया, इसके अलावा उन्होंने असम, कचार तथा जयंशिया पर अपना दावा छोड़ दिया. मणिपुर को स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया गया. बर्मा में एक अँग्रेज रेजीडेण्ट तथा कलकत्ता में एक बर्मी दूत रखने पर दोनों पक्षों में सहमति हो गयी. युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में बर्मा ने कम्पनी को एक करोड़ रुपये देना स्वीकार कर लिया. दोनों पक्षों में व्यापारिक समझौता भी हुआ.
> द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण एवं स्वरूप
द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध अँग्रेजों की व्यापारिक नीतियों एवं गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति का स्वाभाविक परिणाम था, फिर भी उसके कारणों को निम्नलिखित शीर्षकों में बाँटा जा सकता है-
(1) 1826 ई. की यांडबू सन्धि को बर्मा द्वारा अस्वीकार करना—बर्मा के नये शासक थेरावदी (1837-45 ई.) ने यह कहकर कि 'याडबू की सन्धि' उनके भाई द्वारा की गई है जिसे वह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ा दिया.
(2) व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता – यांडबू की सन्धि के बाद अँग्रेजों ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों को बर्मा में बहुत अधिक बढ़ा दिया था. बर्मा में अंग्रेजों ने लकड़ी के व्यापार पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने के लिए पूरे बर्मा में इसका व्यापार करने की अनुमति माँगी. जिसे बर्मा की सरकार ने ठुकरा दिया. इसलिए अँग्रेज व्यापारियों ने यह शिकायत की कि रंगून का गवर्नर उन्हें पेरशान करता है. उन्होंने कलकत्ता कौंसिल में यह सूचना भिजवाई कि यदि शीघ्र ही बर्मा के अधिकारियों पर नियन्त्रण नहीं लगाया गया, तो उन्हें बर्मा खाली करना पड़ेगा.
(3) डलहौजी की नीति — लॉर्ड डलहौजी ने अपनी विस्तारवादी नीति के अनुसार इस घटना का लाभ उठाने के लिए अँग्रेज व्यापारियों की शिकायत के आधार पर नवम्बर, 1851 ई. में अपने जंगी जहाजों को एक दूत के साथ रंगून रवाना कर दिया. अँग्रेजी दूत लैवर्ट ने अभद्रतापूर्ण व्यवहार के साथ रंगून के गवर्नर को हटाने की माँग की. उसकी यह माँग स्वीकार कर ली गई, परन्तु उसने 150 को नष्ट कर दिया. बर्मी सरकार ने क्षतिपूर्ति तथा बर्मा में एक अँग्रेज रेजीडेण्ट रखने का आश्वासन दिया, परन्तु डलहौजी जो युद्ध पर उतारू था, ने हर्जाने की रकम को एक हजार से बढ़ाकर एक लाख पौण्ड कर दिया और गवर्नर (रंगून) को हराने के साथ-साथ क्षमा माँगने का एक नया प्रस्ताव भेज दिया, जिसे बर्मा के शासक ने स्वीकार नहीं किया. अतः अब युद्ध होना आवश्यक हो गया.
युद्ध का स्वरूप अँग्रेजी सेना ने अप्रैल 1852 ई. में रंगून पर अधिकार कर लिया तथा नवम्बर 1852 ई. के आते-आते अँग्रेजों ने इरावदी नदी के उत्तर-पश्चिम में स्थित बेसिन, प्रोम, पेगु आदि पर अधिकार कर लिया. बर्मा का राजा मिंडन अपनी आन्तरिक परिस्थितियों के कारण युद्ध करने की स्थिति में नहीं था. अतः बिना किसी सन्धि के ही यह युद्ध समाप्त हो गया पेगू ower irma) को अँग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया.
> तृतीय आंग्ल - बर्मा युद्ध के कारण, स्वरूप एवं महत्व की विवेचना
वायसराय लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल में 1885 ई. में तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध लड़ा गया, जिसके कारण निम्नलिखित थे - 
(1) फ्रांस का बर्मा की ओर आकर्षित होना – बर्मा के राजा मिंडन के बाद 1878 ई. में थिबू बर्मा का राजा बना. उसके समय में अंग्रेजों ने उसके विरोधियों को अपने यहाँ शरण देना प्रारम्भ कर दिया और बर्मा के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे. इससे नाराज होकर थिबू ने इटली, फ्रांस और जर्मनी से अपने सम्बन्ध बढ़ाने प्रारम्भ कर दिये. थिबू ने बर्मी मिशन फ्रांस भेजे. इस समय फ्रांस भी बर्मी मामलों में दिलचस्पी लेने लगा और उसने बर्मा से एक व्यापारिक सन्धि भी कर ली. मांडले में एक फ्रांसीसी बैंक की स्थापना हुई तथा मांडले से लेकर ब्रिटिश बर्मा तक एक रेलवे लाइन बिछाने की योजना भी बनी. इससे अँग्रेज आशंकित हो गये तथा उन्होंने अब पूरे बर्मा पर अपना अधिकार करके फ्रांसीसी प्रभाव को समाप्त करना आवश्यक समझा.
(2) अँग्रेजों के व्यापारिक एवं आर्थिक हित — अँग्रेज व्यापारियों के आर्थिक हित बर्मा के हितों से निरन्तर टकरा रहे थे. अँग्रेज व्यापारी बर्मा के द्वारा चीन से अपने व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ाना चाहते थे. इस हेतु उन्होंने रंगून और इंग्लैण्ड में आन्दोलन किये, जिसके फलस्वरूप 1862 ई. की सन्धि हुई, जिसके अनुसार अँग्रेजों को बर्मा में कहीं भी बसने और इरावदी नदी तक जहाज ले जाने की सुविधा मिली. अँग्रेज अब बर्मा सरकार के गेहूँ, कपास और हाथीदाँत के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए माँग करने लगे जिसे थिबू ने 1882 ई. में स्वीकार कर लिया. अँग्रेज व्यापारी भारत सरकार पर यह दबाव भी बना रहे थे कि उनके हितों की रक्षा के लिए पूरे बर्मा पर अधिकार कर लिया जाये. 
(3) बम्बई बर्मा व्यापारिक कम्पनी का मामला – बम्बई बर्मा व्यापरिक कम्पनी को बर्मा में सागवान की लकड़ी काटने का ठेका (Contract) मिला हुआ था, लेकिन जब थिबू सरकार को यह पता चला कि फ्रांसीसी भी इस तरह का ठेका लेने को तैयार हैं, तब उसने इस कम्पनी पर यह आरोप लगाया कि उसने निर्धारित मात्रा से अधिक लकड़ी बर्मी अधिकारियों को रिश्वत देकर काट ली है, इसलिए उस पर 10 लाख रुपये जुर्माना कर दिया.
डफरिन ने थिबू से अनुरोध किया कि मामले की सत्यता की जाँच करके ही वह जुर्माना ले, लेकिन थिबू ने इससे इन्कार कर दिया. इस पर डफरिन ने थिबू को यह आदेश भेजा कि वह मांडले में एक ब्रिटिश राजदूत रखे तथा राजदूत के मांडले पहुँचने तक कम्पनी के विरुद्ध सारी कार्यवाही स्थगित रखे. बर्मा की विदेश नीति अँग्रेजों की सहमति से निर्धारित हो और बर्मा से होकर चीन से व्यापार करने की अनुमति प्रदान की जाये. थिबू अनुमति प्रदान की जाये. थिबू ने जब इसे मानने से इनकार कर दिया, तब दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ हो गया.
युद्ध का स्वरूप – 13 नवम्बर, 1885 ई. को रंगून में पहले से ही उपलब्ध सेना ने आगे बढ़ना प्रारम्भ कर दिया तथा शीघ्र ही इसने मांडले पर अपना अधिकार जमा लिया. इस समय थिबू के लिए बर्मा की आन्तरिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं. अतः थिबू अँग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आगे जारी नहीं रख सका और उसने अँग्रेजों के समक्ष 28 नवम्बर, 1885 ई. को आत्मसमर्पण कर दिया. अब लॉर्ड डफरिन ने बर्मा को अँग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी.
> युद्ध का महत्व
इस युद्ध के परिणामस्वरूप बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बन गया, हालांकि यह कार्य सर्वथा अनुचित था, परन्तु अँग्रेजों ने अपने राज्य का विस्तार एवं सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह कार्य किया. बर्मा पर अधिकार हो जाने से अँग्रेजों को चीन के साथ व्यापार करने में सुविधा हो गयी.
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here