स्थानीय प्रशासन का विकास

स्थानीय प्रशासन का विकास

स्थानीय प्रशासन का विकास

> भारत में स्थानीय स्वायत्त शासन का विकास
भारत में पंचायतों के माध्यम से स्थानीय स्वायत्त शासन का इतिहास अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रारम्भ होता है अर्थात् मौर्यकाल में इसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं, परन्तु वर्तमान प्रणाली का स्थानीय शासन अँग्रेजों की ही देन है.
भारत में अँग्रेजों के आगमन के बाद सर्वप्रथम स्थानीय संस्थाओं का विकास प्रेसीडेन्सी नगरों; जैसे—कलकत्ता, मद्रास, बम्बई आदि में हुआ. 1687 ई. में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने मद्रास में एक नगर निगम बनाने की अनुमति दी, जिसमें अँग्रेज व भारतीय दोनों सम्मिलित थे और इन्हें एक श्रेणी मण्डल (Guildhall), एक जेल, एक विद्यालय बनाने व नगरपालिका के कर्मचारियों आदि के वेतन व नगर में अन्य सुविधाओं का विकास करने के लिए कर लगाने की अनुमति दी गयी. इस पर मेयर ने चुंगी लगाने की डायरेक्टर्स से अनुमति माँगी, ताकि नगर में सफाई व्यवस्था का प्रबन्ध समुचित ढंग से किया जा सके. 1726 ई. में मेयर के लिए एक न्यायालय की स्थापना की गयी. इसी प्रकार के न्यायालय बम्बई तथा कलकत्ता में भी खोले गये.
1793 ई. में चार्टर एक्ट में स्थानीय संस्थाओं को वैधानिक आधार प्रदान किया गया तथा प्रेसीडेंसी नगरों में गवर्नर जनरल को एक शान्ति अधिकारी (Justices of Peace) को नियुक्त करने का अधिकार मिला. यह शान्ति अधिकारी पुलिस, सफाई, सड़कों की मरम्मत आदि कार्यों के लिए 5% गृहकर के रूप में किराये अथवा भाटक (Rental Value) पर लगाता था. नगरपालिका में स्थानीय करदाताओं को ही केवल सदस्य चुनने का अधिकार दिया गया.
> 1842 ई. का बंगाल अधिनियम
इस अधिनियम द्वारा प्रेसीडेंसी नगरों के अतिरिक्त, अन्य स्थानों पर स्थानीय निकायों के विस्तार का प्रावधान किया गया तथा इसका उद्देश्य भी प्रेसीडेंसी निगमों के समान ही था. इस अधिनियम द्वारा किसी भी नगर के 2/3 लोगों द्वारा प्रार्थना करने पर संस्था या निगम का गठन किया जा सकता था. 1850 ई. में यही नियम पूरे ब्रिटिश भारत में लागू किया गया. नगरपालिकाओं को अप्रत्यक्ष कर लगाने की आज्ञा प्रदान कर दी गयी. इससे बहुत-से नगरों में नागरिक संस्थाओं का गठन कर दिया गया.
> मेयों का प्रस्ताव (1870 ई.)
1861 ई. के भारत परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत वैधानिक विकेन्द्रीयकरण की नीति के आधार पर लॉर्ड मेयों ने 1870 ई. में वित्तीय विकेन्द्रीयकरण का प्रावधान किया, जिसके अन्तर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सड़कों आदि का प्रबन्ध प्रान्तों को दिया गया तथा इनके लिए स्थानीय कर लगाने की अनुमति प्रदान की गई, जिससे स्थानीय वित्त का जन्म हुआ. इस प्रस्ताव में यह भी सुझाव दिया गया था. स्थानीय स्वायत्त शासन को सुदृढ़ बनाया जाये और अँग्रेजों तथा भारतीयों के सहयोग से नगरपालिकाओं का विकास किया जाये.
> रिपन का प्रस्ताव (1882 ई.)
लॉर्ड रिपन के समय में उसके द्वारा लाया गया 1882 ई. का प्रस्ताव स्वायत्त शासन के विकास में उल्लेखनीय प्रस्ताव था. इस प्रस्ताव में स्थानीय बोर्डों को कुछ निश्चित कार्य एवं निश्चित आय के साधन दिये गये. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तालुका बोर्ड एवं जिला बोर्ड का गठन किया गया. इनके अन्दर जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों का बहुमत होता था तथा सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम होता था. नीति निर्धारण के क्षेत्र में इन संस्थाओं को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने का प्रयास इसमें किया गया. ऋण लेने, नागरिक सम्पत्ति के हस्तान्तरण, नये कर तथा एक निश्चित राशि से अधिक व्यय करने के लिए सरकार की अनुमति लेनी आवश्यक होती थी.
इस प्रस्ताव को क्रियान्वित करने के लिए 1883 ई. व 1884 ई. में कई अधिनियम पारित कर नागरिक संस्थाओं का संविधान एवं उनके कार्य क्षेत्र को परिवर्तित कर दिया गया.
> विकेन्द्रीयकरण आयोग की रिपोर्ट (1908 ई.)
स्थानीय स्वायत्त शासन के विकास के इतिहास में इस रिपोर्ट का अत्यधिक महत्व है. इसने अपनी रिपोर्ट में 'धन के अभाव' को स्थानीय संस्थाओं के प्रभावशाली कार्य न कर पाने को प्रमुख बाधा माना.
इसने जिला बोर्डों, उपजिला बोर्डों तथा ग्राम पंचायतों के विकास पर विशेष बल देते हुए उनके अधिक शक्तियाँ सौंपने की अनुशंसा की. इस हेतु दीवानी व फौजदारी मामलों के छोटे विवाद, ग्राम सफाई व शिक्षा, ईंधन, चारे आदि के लिए ग्राम पंचायतों को विशेष अधिकार देने को कहा. इस रिपोर्ट में नगरपालिकाओं पर किसी प्रकार से उनकी कर लगाने की शक्तियों पर नियन्त्रण न लगाने का सुझाव दिया तथा इनको अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार से प्रान्तीय सरकार द्वारा वित्तीय सहायता न देने की भी सिफारिश की.
> मई 1918 का प्रस्ताव
इस प्रस्ताव में यह कहा गया था कि स्थानीय संस्थाओं और नगरपालिकाओं तथा जिला बोर्डों एवं उप-जिला बोर्डों आदि प्रतिनिधि संस्थानों में बदल दिया जाये तथा नगरपालिकाओं को और अधिक स्वतन्त्रता कर लगाने के मामले में दी जाये. ग्राम-पंचायतों का उद्देश्य ग्राम्य-जीवन का सम्पूर्ण रूप से तथा सहयोग से विकास करना चाहिए.
> द्वैध शासन के अन्तर्गत विकास
1919 ई. के भारत परिषद् अधिनियम के अनुसार स्थानीय स्वायत्त शासन का विषय हस्तान्तरित विषय हो गया, जिसका नियन्त्रण प्रान्तों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा के अधीन कर दिया गया तथा अब प्रत्येक प्रान्त अपनी आव श्यकतानुसार अब स्थानीय संस्थाओं का विकास कर सकता था. अनुसूचित करों के नियमों (Scheduled Taxes Rules) के अनुसार स्थानीय करों और प्रान्तीय करों की सूची को पृथक् कर दिया गया. चूँकि इस समय वित्त आरक्षित विषय था. अतः भारतमन्त्री इस विषय में कुछ भी नहीं कर सके. साइमन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में द्वैध शासन के समय में स्थानीय स्वायत्त शासन पर विशेष उल्लेख करते हुए सुझाव दिया कि इनके ऊपर सरकार का नियन्त्रण बढ़ा देना चाहिए, क्योंकि इनको कोई विशेष उन्नति अभी तक नहीं मिली है. और द्वैध शासन के दौरान इन संस्थाओं की दशा और अधिक बिगड़ गयी है.
> 1935 ई. का भारत सरकार अधिनियम
इस अधिनियम से स्थानीय संस्थाओं के विकास को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिला. वित्त पर प्रान्तों का नियन्त्रण होने के कारण इन संस्थाओं को अधिक धन मिलने लगा तथा इन संस्थाओं को पहले से अधिक कार्यभार दे दिया गया, परन्तु उनकी कर लगाने की शक्ति में कोई परिवर्तन विशेष रूप से नहीं किया गया तथा उनकी चुंगी, व्यापार, व्यवसाय एवं सम्पत्ति आदि पर कर लगाने की शक्ति को कम कर दिया गया. स्वतन्त्रता के समय तक यही व्यवस्था चलती रही तथा नये करों को लगाने के लिए इन संस्थाओं को प्रान्तीय सरकार की अनुमति पर निर्भर रहना पड़ता था.
स्वतन्त्रता के बाद देश के अन्दर पंचायती राज्य व्यवस्था लागू करने की बात देश के संविधान की धारा 40 में कही गयी. जिससे आज हमें हमारी नवीन पंचायती राज्य व्यवस्था देखने को मिलती है.
> कम्पनी के प्रशासन के अन्तर्गत 1773 ई. से भारत का संवैधानिक विकास
भारत में कम्पनी प्रशासन के अन्तर्गत संवैधानिक विकास का प्रारम्भ रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773) से प्रारम्भ हुआ जिसके तथा यह एक्ट कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, प्रावधान निम्नलिखित थे—
1. बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल बनाकर मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सियों को इसके अधीन कर दिया गया. 
2. गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक समिति का गठन किया गया.
3. गवर्नर जनरल को एक निर्णायक वोट देने का अधिकार दिया गया तथा सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लेने की व्यवस्था की गयी. इस प्रकार एक केन्द्रीय कार्यकारिणी का विकास हुआ जिसका आगे क्रमागत विकास होता गया.
4. इस एक्ट के द्वारा कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय के स्थापित करने की व्यवस्था की गई जिसमें एक प्रधान न्यायाधीश तथा तीन सहायक न्यायाधीश थे.
5. इस एक्ट में ब्रिटिश भारत के लिए गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल (परिषद्) को कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया. इस प्रकार केन्द्रीय व्यवस्थापिका का भी प्रादुर्भाव यहीं से होता है.
6. इस एक्ट से कम्पनी के संगठन में भी न्यूनाधिक परिवर्तन किया गया. अभी तक कम्पनी के उन सभी हिस्सेदारों को कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के चुनाव में भाग लेने का अधिकार था, जिनका कम-से-कम 500 पौण्ड का हिस्सा था, परन्तु अब केवल उन्हीं को मत देने का अधिकार रह गया, जिनका हिस्सा कम-से-कम 1000 पौण्ड का था.
7. इस एक्ट से पूर्व डायरेक्टरों का चुनाव प्रतिवर्ष होता था, परन्तु अब उनका कार्यकाल 4 वर्ष के लिए कर दिया गया.
8. इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के डायरेक्टरों को यह आदेश दिया गया कि वे प्रतिवर्ष भारतीय राजस्व सम्बन्धी सभी पत्र-व्यवहार इंग्लैण्ड के राजस्व विभाग के सम्मुख उपस्थित करें तथा सैनिक और शासन सम्बन्धी विषयों की सूचना एक सरकारी मन्त्री को दिया करें.
इस प्रकार इंग्लैण्ड की सरकार के कम्पनी के संवैधानिक विकास में 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट का विशेष महत्व है, क्योंकि इससे इंग्लैण्ड की सरकार ने कम्पनी के राजस्व सेना तथा शासन सभी पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया.
> पिट्स इण्डिया ऐक्ट (1784 ई.)
कम्पनी के संवैधानिक विकास के क्रम में दूसरे कदम के रूप में सन् 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट को पारित किया गया, जिसके प्रावधान निम्नलिखित थे –
1. इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के शासन पर नियन्त्रण रखने के लिए इंग्लैण्ड में 6 सदस्यों की एक समिति बनाई गई, जिसका नाम ‘बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल' रखा गया तथा इसके सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा किये जाने का प्रावधान बनाया गया. इन सदस्यों का पद अवैतनिक था. बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञा का पालन बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के लिए अनिवार्य कर दिया गया.
2. इस ऐक्ट के द्वारा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति बना दी गयी, जिसके द्वारा भारत में गोपनीय आज्ञाओं के भेजने की व्यवस्था की गयी.
3. इस ऐक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल की परिषद् के सदस्यों की संख्या को घटाकर चार से तीन कर दिया गया, जिसमें एक सदस्य प्रधान सेनापति को बनाया गया.
4. बम्बई तथा मद्रास की प्रत्येक प्रेसीडेंसी के लिए गवर्नर 'को मिलाकर तीन सदस्यों की एक कौसिल बना दी गयी, जिनमें से एक प्रधान सेनापति होगा. सन्धि, युद्ध तथा राजस्व के मामलों में बम्बई तथा मद्रास के गवर्नर, भारत के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिये गये.
5. इस ऐक्ट के द्वारा यह भी निश्चित किया गया कि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की स्वीकृति के बिना गवर्नर जनरल किसी के साथ सन्धि या युद्ध नहीं कर सकेगा.
पिट्स इण्डिया ऐक्ट का कम्पनी के संवैधानिक विकास में बहुत बड़ा महत्व है. इसके द्वारा रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अधिकांश दोषों को दूर कर दिया गया है, जो शासनव्यवस्था इस ऐक्ट द्वारा लागू की गयी, वह न्यूनाधिक रूप से कम्पनी के जीवनकाल के अन्त तक अर्थात् 1857 ई. तक चलती रही.
> विभिन्न चार्टर ऐक्टों द्वारा किये गये संशोधन
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में व्यापार करने के लिए इंग्लैण्ड की सरकार से आज्ञा पत्र लेना पड़ता था, जो चार्टर कहलाता था. 1773 ई. के उपरान्त प्रत्येक 20वें वर्ष यह चार्टर तब तक जारी होता रहा, जब तक कि भारत में कम्पनी का शासन समाप्त न हो गया. जब ये चार्टर पारित किये जाते थे, तब कुछ संवैधानिक परिवर्तन भी कर दिये जाते थे. जिनका विवरण निम्नलिखित है-
> (I) 1793 ई. का प्रथम चार्टर ऐक्ट
इसके द्वारा किये गये प्रावधान निम्नलिखित थे-
1. इस ऐक्ट द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अगले 20 वर्षों तक भारत में और व्यापार करने का अधिकार दिया गया.
2. ‘बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल' के सदस्यों का पद अभी तक अवैतनिक था, परन्तु इस एक्ट से उनका पद वैतनिक बना दिया गया तथा उनका वेतन भारत के कोष से देना तय किया गया.
3. इस ऐक्ट के द्वारा 'कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स' को यह आदेश दिया गया कि कम्पनी की आय और व्यय का विवरण वह प्रति वर्ष पार्लियामेण्ट के सम्मुख उपस्थित करे.
4. इस ऐक्ट के द्वारा 'बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल' को यह अधिकार दिया गया कि वह सम्राट की सेना को भारत में भेज सके तथा उसका व्यय भारतीय खजाने से करने की व्यवस्था कर सके.
5. भारत के गवर्नर जनरल की तरह ही बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों को इस ऐक्ट द्वारा यह अधिकार मिला कि वे भी अब अपनी कौंसिल के बहुमत के निर्णय को रद्द कर सकते थे.
> (II) 1813 ई. का चार्टर एक्ट
इस ऐक्ट के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे—
1. इस ऐक्ट के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक बार फिर बीस वर्षों के लिए व्यापार का अधिकार दिया गया, परन्तु उसके एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा समस्त ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनियों को भारत से व्यापार करने की अनुमति प्रदान की गई.
2. अब कम्पनी अपने 'कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स' के सदस्यों की नियुक्ति सम्राट तथा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों की अनुमति से ही कर सकती थी.
3. भारत में शिक्षा का प्रसार करने के लिए एक लाख रुपया मंजूर किया गया.
4. कम्पनी में नौकरी में प्रवेश करने से पूर्व कर्मचारियों के लिए ट्रेनिंग एवं शिक्षा की व्यवस्था की गयी.
5. ईसाई पादरियों को भारत में आकर अपने धर्म का प्रचार करने की छूट दी गई और कलकत्ता में एक विशप की नियुक्ति करने का प्रावधान इसमें किया गया था.
> (III) 1833 ई. का चार्टर एक्ट
इसमें निम्नलिखित तथ्यों को सम्मिलित किया गया है-
1. इस ऐक्ट के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक बार पुनः 20 वर्षों के लिए भारत से व्यापार की अनुमति दी गयी, परन्तु भारत व चीन के साथ उसके चाय के व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया.
2. इस एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद् में एक ॐ चौथा सदस्य विधि सदस्य जोड़ दिया गया.
3. कानून बनाने के इस ऐक्ट के द्वारा प्रान्तों के गवर्नरों के अधिकार को समाप्त कर दिया गया.
4. इसके द्वारा आगरा को एक नया प्रान्त बनाया गया.
5. इस ऐक्ट की सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह थी कि रूप-रंग, वंश, जाति-भेद के बिना भारतीयों के लिए भी ऊँची नौकरियों का प्रावधान किया गया था.
> (IV) 1853 ई. का चार्टर ऐक्ट
यह कम्पनी का अन्तिम चार्टर एक्ट था, क्योंकि 1857 ई. के बाद कम्पनी का अस्तित्व समाप्त हो गया. इसके प्रावधान निम्नलिखित थे – 
1. इस ऐक्ट के द्वारा ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स' की सदस्य संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी तथा इसमें से 6 की नियुक्ति सम्राट द्वारा होनी थी.
2. कम्पनी में नौकरी प्राप्त करने हेतु प्रतियोगिता परीक्षा की गयी.
3. कम्पनी के लिए एक लेफ्टिनेण्ट गवर्नर की व्यवस्था की गयी तथा गवर्नर-जनरल की परिषद् के विधि सदस्य को स्थायी कर दिया गया. इसके साथ ही उसकी परिषद् में कानून बनाने के लिए 6 अतिरिक्त सदस्य जोड़ दिये गये.
1858 ई. में जब कम्पनी का अस्तित्व समाप्त हो गया, तब भारत में ब्रिटेन के सम्राट और उसकी पार्लियामेण्ट ही विधि-निर्माण की सर्वोच्च संस्था हो गयी तथा उसके द्वारा पारित नियम भारत-परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत आने लगे.
> 1909 ई. का अधिनियम अथवा मार्ले-मिण्टो सुधारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन
> 1909 ई. के भारत परिषद् अधिनियम के पारित होने की पृष्ठभूमि
1909 ई. से पूर्व भारत में ऐसी राजनीतिक स्थितियाँ उत्पन्न हो गयी थीं कि अँग्रेजों को यह अधिनियम पारित करना पड़ा. लॉर्ड कर्जन की स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश नीति ने बंगाल, पंजाब आदि राज्यों में आतंकवादी आन्दोलन को तीव्र कर दिया. साथ ही तिलक गोखले एवं लाला लाजपतराय जैसे नेताओं को इस बात का दुःख था कि व्यवस्थापिका सभा और प्रान्तीय सभाओं में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत ही सीमित है. अतः अँग्रेजों को यह विश्वास हुआ कि इस प्रकार के विरोध को केवल दमन-चक्र से समाप्त नहीं किया जा सकता है, इसके लिए कुछ संवैधानिक सुधारों का होना आवश्यक है.
अतः इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए 1909 ई. का अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पास किया गया.
> 1909 ई. के अधिनियम की प्रमुख धाराएँ -
इस अधिनियम के द्वारा व्यवस्थापिका सभा एवं प्रान्तीय परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी. इनमें से अधिकांश सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता था. केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रान्तीय परिषदों, जमींदारों एवं चैम्बर ऑफ कॉमर्स द्वारा होता था. उदाहरणस्वरूप——केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में कुल 68 सदस्य थे; जिनमें से 36 सरकारी सदस्य थे व 5 मनोनीत सदस्य होते थे, मनोनीत सदस्य सरकारी सदस्य नहीं होते थे. शेष 27 सदस्यों का निर्वाचन किया जाता था. इनमें से भी 6 सदस्य जमींदारों के तथा 2 सदस्य चैम्बर ऑफ कॉमर्स के होते थे. निर्वाचन का अधिकार प्रान्तीय परिषदों के लिए यूनिवर्सिटी, नगरपालिकाओं तथा जिला परिषदों के सदस्यों को दिया गया. इन प्रान्तीय परिषदों में निर्वाचित और गैरसरकारी सदस्यों का बहुमत था तथा कुछ गैर-सरकारी सदस्यों को गवर्नर द्वारा मनोनीत किया जाता था.
इस अधिनियम में केन्द्रीय व्यवस्थापिका तथा प्रान्तीय परिषदों में सभी मुसलमानों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्रों का गठन किया गया था. इस कार्य को अँग्रेजों ने मुसलमानों की सुरक्षा बताया, क्योंकि वे देश में अल्पसंख्यक थे. इस व्यवस्था ने देश की साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ाने में अत्यधिक योगदान किया.
मुसलमानों को इस अधिनियम द्वारा पृथक् से निर्वाचित क्षेत्र देने के कारण अन्य समुदायों के सदस्य; जैसे— सिख, ईसाई आदि भी अपने लिए ऐसे पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की माँग करने लगे.
> सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि
इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय एवं प्रान्तीय परिषदों के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि की गयी केन्द्रीय व्यवस्थापिका परिषद् में राजस्व विधेयक पर अब सदस्य वाद-विवाद कर सकते थे, परन्तु अभी उन्हें मत देने का अधिकार नहीं था. भारतीय सेना, विदेश नीति एवं देशी राज्यों के मामलों में सदस्यों को प्रस्ताव लाने, वाद-विवाद एवं प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया था, परन्तु साथ में गवर्नर को यह भी अधिकार दिया गया कि वह किसी प्रस्ताव को अथवा उसके किसी अंश को बिना किसी कारण बताये रद्द कर सकता था.
> मूल्यांकन
इस अधिनियम के द्वारा राष्ट्रवादियों की आकांक्षाएँ पूरी नहीं हो सकीं, क्योंकि उनकी माँग उत्तरदायी सरकार की थी, जबकि 1892 ई. में परिषद् अधिनियम को दूसरे रूप में अँग्रेजों ने इसे 1909 ई. में प्रस्तुत कर दिया था. इस अधिनियम द्वारा अप्रत्यक्ष विधि से निर्वाचन की व्यवस्था होने के कारण सदस्यों का आम जनता से कोई सम्पर्क नहीं था.
इस अधिनियम की सर्वाधिक उल्लेखनीय बात पृथक् से साम्प्रदायिक आधार पर मुसलमानों के लिए निर्वाचन की व्यवस्था थी, जिससे भारत में साम्प्रदायिकता का विकास हुआ. अन्य वर्गों ने भी इस व्यवस्था की अपने लिए की. केन्द्रीय व्यवस्थापिका परिषद् में सरकारी सदस्यों के बहुमत को बनाये रखा गया था, इससे भारतीय शिक्षित वर्ग में अत्यधिक असन्तोष था. इसी तरह से प्रान्तीय परिषदों में मनोनीत एवं सरकारी सदस्य तथा कुछ अन्य सदस्य मिलकर बहुमत प्राप्त कर लेते थे.
इस अधिनियम की एक प्रमुख कमी यह थी कि इसमें स्त्रियों के लिए कोई स्थान नहीं था. इस अधिनियम का स्वरूप संसदात्मक होने के उपरान्त भी इसमें उत्तरदायित्व का अभाव था. इस अधिनियम द्वारा जनता को केवल 'छाया मात्र' ही सुधार प्राप्त हुए वास्तविकता में कुछ भी नहीं मिला. इस अधिनियम द्वारा विधानमण्डल तथा कार्यकारिणी के मध्य कटुता बढ़ी तथा अँग्रेजी सरकार एवं भारतीयों के मध्य और अधिक वैमनस्य उत्पन्न हो गया.
> मोण्टेस्क्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों (1919 ई.) की प्रमुख विशेषताएँ
1909 ई. में भारत परिषद् अधिनियम ने भारत के राष्ट्रवादी तत्वों की आकांक्षाओं को जब पूरा न कर सका तथा मुसलमानों ने अँग्रेजों की कूटनीति को समझ लिया तब काँग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों एक-दूसरे के अधिक निकट आ गये और 1916 ई. के लखनऊ के समझौते के तहत दोनों संगठनों ने संवैधानिक सुधारों की माँग की. ऐसी परिस्थिति में भारतीय नेताओं को सन्तुष्ट करने के लिए 20 अगस्त, 1917 को मोण्टेस्क्यू ने यह घोषणा की कि, “भारतवासियों को देश के शासन में भाग लेने का अधिकाधिक अवसर प्रदान किया जायेगा और स्वायत्तशासी संस्थाओं को और अधिक शक्तिशाली बनाया जायेगा."
अपनी घोषणा को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से भारत सचिव मोण्टेस्क्यू 10 नवम्बर, 1917 ई. को भारत आये तथा लार्ड चेम्सफोर्ड, काँग्रेस, मुस्लिम लीग व कुछ अन्य नेताओं से विचार-विमर्श कर उन्होंने मोण्टेस्क्यू-चेम्सफोर्ड योजना बनाई, जो 1919 ई. के अधिनियम का प्रमुख आधार बनी.
1919 के भारत सरकार अधिनियम या मोण्टेस्क्यूचेम्सफोर्ड सुधारों की प्रमुख विशेषताएँ –
1. गृह सरकार में परिवर्तन – इंग्लैण्ड में भारत सचिव के अधिकारों में परिवर्तन कर दिया गया तथा अब हस्तान्तरित विषयों पर से उसका नियन्त्रण हटा दिया गया. केन्द्रीय तथा रक्षित विषयों पर उसका नियन्त्रण बना रहा.
2. भारत के हितों को इंग्लैण्ड तथा अन्य स्थानों पर रक्षा करने के लिए हाई कमिश्नर के पद का सृजन किया गया. इसकी नियुक्ति गवर्नर अपनी परिषद् से राय लेकर करता था.
3. गवर्नर जनरल की केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् में कोई भी भारतीय वकील जिसने 10 वर्ष तक वकालत की हो, अब कानून सदस्य बन सकता था तथा अन्य सदस्यों के लिए कोई योग्यता का निर्धारण नहीं किया गया. इस परिषद् में. भारतीय सदस्यों की संख्या एक से बढ़ाकर तीन कर दी गयी.
4. केन्द्र सरकार का इस अधिनियम द्वारा प्रान्तों पर नियन्त्रण कम कर दिया गया तथा सभी विषयों को केन्द्रीय सूची तथा प्रान्तीय सूची नामक दो भागों में बाँट दिया गया तथा प्रान्तों को पर्याप्त स्वतन्त्रता दे दी गयी. उसके राजस्व के साधन तय कर दिये गये.
5. इस अधिनियम के अनुसार केंन्द्रीय व्यवस्थापिक सभा को दो भागों में बाँट दिया गया – (i) राज्य परिषद्, (ii) केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेम्बली.
6. केन्द्रीय धारा सभी के सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुनने की व्यवस्था की गयी.
7. इस अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन की स्थापना की गई, जिसमें कुछ विषय रक्षित तथा कुछ हस्तान्तरित थे. हस्तान्तरित विषयों का प्रबन्ध गवर्नर अपने मन्त्रियों की सहायता से करता था, जबकि रक्षित विषयों का प्रबन्ध गवर्नर अपनी परिषद् की सहायता से करता था.
8. इस अधिनियम के अनुसार प्रान्तीय विधानसभा का गठन कर उसमें अनके सुधार किये गये प्रान्तीय विधानसभा प्रान्त की सुव्यवस्था तथा सुशासन के लिए प्रान्तीय सूची के सभी विषयों पर कानून बना सकती थी, किन्तु कुछ विषयों पर गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त होने पर ही विधेयक विधानसभा में उपस्थित कर सकती थी तथा ग्रह कानून तभी बन सकता था, जब उसे गवर्नर जनरल द्वारा स्वीकृत कर दिया जाता.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह प्रथम अधिनियम था, जिसमें उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गयी, परन्तु साथ ही इसमें गवर्नर जनरल को अधिक अधिकार देकर उत्तरदायित्व को सीमित कर दिया गया. यही कारण था कि यह अधिनियम अपने उद्देश्यों में असफल रहा. 
> 1935 ई. के भारत सरकार अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ
इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
1. इस अधिनियम में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ही सर्वोपरि संस्था रही तथा इस अधिनियम में केन्द्रीय या प्रान्तीय विधानसभा कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी.
2. इस अधिनियम के अनुसार इण्डिया कौंसिल को समाप्त कर भारत सचिव की सहायता के लिए कुछ परामर्शदाता नियुक्त कर दिये गये, जिनकी संख्या 3 से 6 थी.
3. इस अधिनियम के अनुसार ब्रिटिश प्रान्तों तथा देशी राज्यों के लिए संघ शासन स्थापित करने की व्यवस्था की गई. देशी राज्य इस संघ में सम्मिलित होने के लिए बाध्य नहीं थे. वे अपनी स्वेच्छा से इसमें शामिल हो सकते थे.
4. इस अधिनियम के अनुसार संघ तथा प्रान्तों के मध्य विषयों का बँटवारा कर दिया गया तथा विषयों की तीन सूचियाँ बनाई गईं —
(1) संघ सूची–59 विषय,
(2) प्रान्तीय सूची – 54 विषय, 
(3) समवर्ती सूची 23 विषय रखे गये. केन्द्रीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया —
(1) रक्षित तथा (2) हस्तान्तरित.
इसके साथ ही केन्द्र में दो सदन बनाये गये – 
(1) केन्द्रीय विधानसभा, (2) राज्य परिषद्.
5. इस अधिनियम के अनुसार एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, जो मुकदमों की सुनवाई, अपील पर निर्णय तथा परामर्श देने का कार्य करता था. इसके साथ ही 1935 ई. के अधिनियम की व्याख्या करने वाला अन्तिम प्राधिकारी था. 
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को उत्तरदायी शासन सौंपने का गम्भीर प्रयास किया, परन्तु गवर्नर-जनरल को विशेषाधिकार देकर अपनी निरंकुशता का प्रतिरूप भी कायम रखा था.
इस अधिनियम में संघीय विधानसभा तथा प्रान्तीय विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को इस संविधान में संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया, इसलिए इसे हम अनैतिक और अलोकतान्त्रिक कह सकते हैं. इसके साथ ही देशी राज्यों को संघ में न रहने की छूट के कारण संघीय विधानसभा का गठन ही न हो सका था.
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