राजस्व प्रशासन, अकाल नीति एवं श्रमिक आन्दोलन

राजस्व प्रशासन, अकाल नीति एवं श्रमिक आन्दोलन

राजस्व प्रशासन, अकाल नीति एवं श्रमिक आन्दोलन

> भूमि राजस्व प्रशासन
अंग्रेजों ने भारत में अपने अधिकार वाले अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग व्यवस्था भू-राजस्व वसूलने के लिए की. मुख्य रूप से उन्होंने भारत में तीन प्रकार की प्रणाली का गठन किया – 
(1) जमींदारी,
(2) महालवाड़ी,
(3) रैयतवाड़ी.
इन उपरोक्त तीनों व्यवस्थाओं का अलग-अलग विवरण इस प्रकार है
(i) स्थाई जमींदारी व्यवस्था (The Permanent Jamidari Settlement )
स्थाई जमींदारी व्यवस्था को जागीरदारी, मालगुजारी आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है. इसके अन्तर्गत राज्यों की माँग सदैव के लिए निश्चित कर दी जाती थी.
इस पद्धति के अनुसार जमींदार को प्रायः भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया जाता था. जमींदार भूमि को बेच, रहन या दान दे सकता था. राज्य भूमि-कर देने के लिए केवल जमींदार को ही उत्तरदायी समझता था. तथा कर न देने की स्थिति में उसकी भूमि राज्य द्वारा जब्त कर ली जाती थी.
इस व्यवस्था में भूमि-कर का निर्धारण बहुत ऊँची दर पर किया गया. उदाहरणस्वरूप यह कर बंगाल में उपज का 89% था.
इस व्यवस्था का सबसे हानिकर पक्ष यह था कि इसमें सरकार की माँग को तो स्थायी कर दिया गया था, लेकिन जो कर जमींदार कृषक से वसूलता था, वह स्थायी नहीं था, जिसके कारण जमींदार कृषक से मनचाहा कर वसूलता था और कर न देने की स्थिति में उसे जमीन से बेदखल कर देता था
(ii) महालवाड़ी व्यवस्था (The Mahalwari System )
इस व्यवस्था में भू-राजस्व प्राप्त करने के लिए भूमि कर की इकाई कृषक के खेत को न बनाकर एक पूरे ग्राम अथवा महाल, जोकि जागीर का एक भाग ही होता था को बनाया गया. यह भूमि समस्त ग्राम सभा का सम्मिलित रूप होती थी, जिसको भागीदारों का समूह कहते थे और यही लोग सम्मिलित रूप से कर देने के लिए उत्तरदायी थे. यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि छोड़ देता था, तो ग्राम-समाज इस भूमि को सम्हाल लेता था. यह ग्राम-समाज ही सम्मिलित भूमि तथा अन्य भूमि का स्वामी होता था. इस व्यवस्था के प्रवर्त्तक मार्टिन बर्ड थे.
इस व्यवस्था के एक भाग की भूमि का सर्वेक्षण किया जाता था, जिसमें खेती की परिधियाँ निश्चित की जाती थीं और बंजर तथा उपजाऊ भूमि स्पष्ट की जाती थी. इसके निश्चित किया जाता था. प्रत्येक ग्राम अथवा महाल के पश्चात् समस्त भाग का और फिर समस्त ग्राम का भूमि कर अधिकारियों को स्थानीय आवश्यकता के अनुसार समायोजन करने का अधिकार होता था तथा कर का निर्धारण उपज का 66% किया गया तथा यह व्यवस्था 1833 ई. से लेकर 1853 ई. तक चलती रही. 1855 ई. में लॉर्ड डलहौजी ने इस कर को घटाकर 50% करने का सुझाव दिया, परन्तु अधिकारियों ने इस नियम को स्थगित करने का सुझाव दिया और 50% कर के स्थान पर 'सम्भावित तथा शम्य' (Prospecticve and Potential) कर लिया जिसके कारण किसानों की और अधिक दयनीय स्थिति हो गयी, जिसके कारण इस व्यवस्था के क्षेत्र के लोगों ने 1857 ई. के विद्रोह में भाग लिया.
(iii) रैयतवाड़ी पद्धति (The Ryatwari System)
इस व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत किसान को भूमि कर देने के लिए उत्तरदायी बनाया गया तथा उसे अपनी जमीन गिरवीं एवं बेचने का अधिकार दिया गया. इस व्यवस्था का मद्रास तथा बम्बई प्रान्तों में अलग-अलग समय पर अलगअलग तरीके से लागू किया गया, जिसका विवरण निम्नलिखित है-
(1) मद्रास की भू-व्यवस्था—मद्रास में रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू करने का श्रेय टामस मुनरो को है. इस व्यवस्था को 1825 ई. में लागू किया गया जिसमें उपज का 30% कर को निर्धारण किया गया. यह कर धन के रूप में देना पड़ता था जिसका कि वास्तविक उपज और मण्डी में प्रचलित भावों में कोई सम्बन्ध नहीं था. इस कारण से किसानों का जमकर आर्थिक शोषण हुआ और कृषक शाहूकारों (चेट्टियों) के चंगुल में फँस गये.
(2) बम्बई में भू-व्यवस्था— इस व्यवस्था में मुख्य रूप से जिले के भूमि-कर की माँग उस जिले के इतिहास तथा उस जिले के लोगों की अवस्था अर्थात् जनता के देने की शक्ति पर निर्भर थी. इसके बाद समस्त जिले की माँग को व्यक्तिगत खेतों पर बाँटा गया. प्राचीन समानता पर आधारित पद्धति के स्थान पर माँग भूमि की भू-गर्भ (Geological) अवस्था पर निर्धारित की गयी. इसके अतिरिक्त कर भू-खण्डों पर निश्चित किया गया, न कि उस कृषक की समस्त भूमि पर जिससे कोई भी कृषक जिस खेत को चाहे छोड़ सकता था और चाहे जोत सकता था. यह व्यवस्था 50 वर्षों के लिए की गयी.
इस व्यवस्था का पुनः निर्धारण 30 वर्षों बाद 1868 ई. में किया गया तथा कर को बढ़कार 90% तक कर दिया गया तथा कठोरता से वसूलने का कार्य किया गया. इससे 1875 ई. में कृषक उपद्रव हुए.
> अंग्रेजी भू-राजस्व व्यवस्था के प्रभाव
अंग्रेजी भू-राजस्व व्यवस्था में अत्यधिक कर तथा नवीन प्रशासनिक एवं न्यायिक प्रणाली के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी. ग्राम पंचायतों के मुख्य कार्य, भूमि व्यवस्था तथा न्यायिक कार्य समाप्त हो चुके थे तथा इस समय में पाटिल सरकार की ओर से केवल राजस्व संग्रहकर्ता ही रह गया था. इस प्रकार ग्रामों में प्राचीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी. भारतीय कुटीर-उद्योग लगभग समाप्त हो गये. इस प्रकार की भू-व्यवस्था से भूमि तथा कृषक दोनों ही गतिशील (Mobile) हो गये थे, जिसके कारण ग्रामों में साहूकार तथा अन्यत्र भूमिपति (Absente Land holders) उत्पन्न हो गये.
समाज में जमींदार तथा साहूकार जिनकी ग्राम निवासियों को अब अधिक आवश्यकता होने लगी थी, महत्वपूर्ण व्यक्ति हो गये. अब ग्रामीण श्रमिक वर्ग जिसमें छोटे छोटे किसान, मुजारे तथा भूमिहीन किसान सम्मिलित थे. उनकी संख्या बढ़ गयी. सहकारिता के स्थान पर आपसी प्रतिद्वन्द्विता तथा व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला तथा पूँजीवाद के पूर्वाकांक्षित तत्व उत्पन्न हो गये. अब उत्पादन के नये साधनों जिनमें धन की आवश्यकता होती थी, मुद्रा अर्थव्यवस्था, कृषि का वाणिज्यीकरण, संचार अवस्था में सुधार तथा विश्व मण्डियों के साथ सम्पर्क इन सभी तत्वों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तथा भारतीय कृषि को एक नया रूप दे दिया.
> अंग्रेजों की नीति भारतीय उद्योगों के पतन के लिए किस प्रकार से उत्तरदायी थी 
भारत का आर्थिक शोषण जितना अंग्रेजों ने किया उतना अन्य किसी काल में नहीं हुआ. ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपनी प्रमुख नीति यह अपनाई कि किसी भी तरह से भारतीय उद्योग-धन्धों को चौपट कर दिया जाये तथा भारत में अंग्रेजी माल की बिक्री को बढ़ाया जाये. इसके लिए अंग्रेजों ने भारत में मुक्त व्यापार की नीति का अनुसरण किया.
इस नीति के तहत बाहर से भारत आने वाली वस्तुओं पर किसी भी प्रकार प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया. बिना चुंगी दिये ही ब्रिटिश माल भारत आता था और यहाँ के बाजारों में बेचा जाता था, लेकिन यह छूट किसी अन्य देश को नहीं थी. यूरोपीय तथा अन्य देशों में अपने देशी माल की सुरक्षा के लिए बाहर से आने वाली वस्तुओं के विरुद्ध चुंगी की दीवार खड़ी कर दी जाती थी, जिससे आयात में बाधा पहुँचती थी. बाहर से आयी हुई वस्तुएँ इससे मँहगी हो जाती थीं, परन्तु कम्पनी ने ऐसी कोई नीति नहीं अपनाई. इसका परिणाम यह हुआ कि लोहा, शीशा, कागज, वस्त्र आदि से भारतीय उद्योगों को घाटा होने लगा और धीरे-धीरे इन्हें बन्द करना पड़ा. वस्त्र उधोग पर तो 18वीं सदी के प्रारम्भ में ही कम्पनी द्वारा कुठाराघात प्रारम्भ कर दिया गया था.
1700-1820 ई. के मध्य ब्रिटेन में लोगों से अपील की गयी कि वे लोग भारतीय सूती वस्त्रों का उपयोग न करें, इसका मुख्य कारण यह था कि भारतीय सूती वस्त्र ने ब्रिटेन के मार्केट पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रखा था, जिससे वहाँ के वस्त्र उद्योग को काफी घाटा हो रहा था. भारत से जो सूती वस्त्र इंग्लैण्ड जाता था उसे यूरोप के अन्य देशों में भेज दिया जाता था, लेकिन जब यूरोप में नेपोलियन युद्ध छिड़ा तब यह भी बन्द हो गया. इससे भारतीय वस्त्र उद्योग को काफी धक्का लगा.
औद्योगिक क्रान्ति ने इंग्लैण्ड के वस्त्र उद्योग को उन्नत बना दिया. 1783 ई के बाद इंग्लिश मशीनों द्वारा निर्मित माल बंगाल भेजा जाने लगा, इसके बाद गाँठ-के-गाँठ सूती कपड़े इंगलैण्ड से भारत आने लगे. इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सूती वस्त्र का निर्माण बन्द हो गया तथा इसके अलावा पोत-निर्माण उद्योग को भी धक्का लगा, क्योंकि जब भारत का विदेशी व्यापार लगभग समाप्त कर दिया गया तब पोत- निर्माण की आवश्यकता ही नहीं रही.
ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज प्रशासकों की यही नीति रही कि भारत से निर्मित वस्तुओं का निर्यात कम-से-कम हो तथा कच्चे माल जैसे रेशम, रुई, नील आदि का अधिक-सेअधिक निर्यात हो. इस प्रकार अंग्रेजों की नीति ने भारतीय उद्योगों को चौपट कर दिया.
> भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन के समय पड़े अकाल एवं राहत कार्य : टिप्पणी
भारत में कम्पनी के शासनकाल के अन्तर्गत भारत के भिन्न-भिन्न भागों में कम-से-कम 12 अकाल और 4 भीषण सूखे पड़े. सबसे पहले 1769-70 ई. में बंगाल में एक भीषण अकाल पड़ा, जिसमें प्रान्त की लगभग 1/3 जनसंख्या नष्ट हो गयी तथा इस अकाल से निबटने के लिए कम्पनी द्वारा कोई भी राहत कार्य नहीं किये गये. इसके बाद 1781-82 ई. में मद्रास क्षेत्र में सूखा पड़ा. 1784 ई. में उत्तरी भारत में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी. 1792 ई. के दुर्भिक्ष में मद्रास में कम्पनी ने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कार्य आरम्भ किये.
जब 1803 ई. में आधुनिक उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में अकाल पड़ा. इस अकाल से निपटने के लिए सरकार ने अनेक कार्य किये; जैसे—किसानों को ऋण देना, करों में छूट आदि. बनारस, इलाहाबाद, तथा फतेहगढ़ में समस्त आयातित अन्न पर सरकार की ओर से विशेष पुरस्कार तथा पैसा दिया गया. 1803 ई. जैसा ही अकाल 1837 ई. में पड़ा इसमें कम्पनी द्वारा अकालग्रस्त लोगों से सार्वजनिक कार्य करवाये गये परन्तु अधिकांश जनता को राहत पहुँचाने का कार्य धर्मार्थ संस्थाओं का ही रहा.
कम्पनी के शासनकाल में अकाल से निपटने के लिए किसी विशेष योजना का निर्माण नहीं किया गया. प्रत्येक सरकार और जिला प्रशासन भिन्न-भिन्न योजनाएँ; जैसे— अन्न का सुरक्षित भण्डार जमाखोरी पर दण्ड, अन्य आयात पुरस्कार, कुएँ इत्यादि के लिए कर्ज देना इत्यादि चलाई गयी. परन्तु ये सभी कार्य अत्यन्त ही अल्प मात्रा में किये गये.
> स्ट्रेची आयोग की सिफारिशें
बार पड़ने वाले अकालों एवं सूखे से निपटने के लिए सुझाव 1880 ई. में भारत के वायसराय लॉर्ड लिटन ने बारदेने हेतु एक आयोग का गठन सर स्ट्रेची की अध्यक्षता में किया, जिसने निम्नलिखित सिफारिशें इस सन्दर्भ में प्रस्तुत की —
1. भूख से प्रभावित होने से पूर्व ही लोगों को काम मिले और उनकी मजदूरी समय-समय पर पुनः निश्चित की जाये, ताकि लोगों को खाना मिल सके.
2. निस्सहाय और निर्धनों को भोजन देना सरकार का कर्त्तव्य है और इसके लिए भिन्न-भिन्न वर्गों की सूची तैयार की जाये. यह सहायता पके हुए भोजन, खाद्यान्न एवं पैसे के रूप में हो सकती है.
3. अकालग्रस्त क्षेत्रों में अन्न भण्डारण पर नजर रखनी चाहिए तथा निजी व्यापारियों पर विश्वास रखना चाहिए. अन्न का निर्यात् तभी रोकना चाहिए जब यह निश्चित हो जाये कि ऐसा करना समस्त देश की अन्न स्थिति ठीक रहेगी.
4. भूमि- कर तथा अल्प किरायों में कमी एवं छूट की नीति निर्धारित की गयी.
5. अकाल सहायता का व्यय प्रान्तीय सरकारों को सहना होगा. यद्यपि आवश्यकता होने पर केन्द्र सहायता भी दी जा सकेगी.
6. अत्यधिक गम्भीर सूखे की स्थिति में दुधारू पशुओं को हरे प्रदेशों में स्थानान्तरित करने की व्यवस्था होनी चाहिए.
सरकार ने इस आयोग की सिफारिशों को साधारणतया स्वीकार कर लिया तथा अकाल कोष की स्थापना के लिए राजस्व के अन्य स्रोतों का पता लगाने का प्रयत्न किया. 1883 ई. में अकाल संहिता (Famine Code) भी निश्चित की गयी और यही प्रान्तीय अकाल संहिता का आधार बनी. इस संहिता में साधारण अवस्था में अकाल से बचने एवं राहत कार्यों के आरम्भ करने सम्बन्धी सुझाव दिये गये थे.
इस प्रकार स्पष्ट है कि अकाल से निपटने के लिए प्रथम गम्भीर प्रयास लॉर्ड लिंटन के काल में किया गया.
> मैकडोनाल्ड आयोग की सिफारिशें
अकाल से निपटने के लिए लार्ड कर्जन ने सर एण्टोनी मैकडोनाल्ड की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया. जिसने 1901 ई में अपनी रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में सहायता के स्वीकृत नियमों का संक्षिप्त में वर्णन किया गया था. इसमें नैतिक नीति के लाभों, पशु तथा बीजों के लिए शीघ्रता से धन बाँटने तथा अस्थाई कुएँ खोदने की व्यवस्था के लाभों पर बल दिया गया. इसने अकाल प्रभावित क्षेत्रों में एक दुर्भिक्ष आयुक्त की नियुक्ति का सुझाव दिया. इसने गैरसरकारी सहायता का अधिक मात्रा में उपयोग करने और बड़े-बड़े कार्यों के स्थान पर ग्राम स्तर के कार्यों को आरम्भ करने का सुझाव दिया. आयोग ने अधिक अच्छी परिवहन सुविधाओं, कृषक बैंकों, सिंचाई व्यवस्था तथा उत्तम कृषि साधनों की आवश्यकता पर भी बल दिया.
इस आयोग की मुख्य सिफारिशें स्वीकार कर ली गयीं और इसके आधार पर अकाल से निपटने के लिए कई कार्य किये गये.
> भारत के औद्योगिक विकास के लिए अंग्रेजों की नीति
अंग्रेजों ने भारत के औद्योगिक विकास में कोई भी रुचि नहीं ली, अपितु उनका प्रयास तो पहले से भारत में प्रचलित शिल्प एवं कुटीर उद्योग-धन्धों को समाप्त करने का ही रहा. उनका प्रयास यह रहा कि भारत इंग्लैण्ड के लिए एक बड़े कृषि-क्षेत्र की तरह कार्य करे.
अंग्रेजों की साम्राज्यवाद की व्यवस्था तथा शोषण की भावना के कारण उन्हें यहाँ सड़कें, रेलवे, डाक-तार, बन्दरगाहों का विकास, सिंचाई योजनाएँ, बैंक, विनिमय तथा बीमा कम्पनियाँ बनानी पड़ीं, जो अन्ततोगत्वा भारत के औद्योगिक विकास का साधन बनीं.
1846 ई. में लॉर्ड हार्डिंग ने रेलवे की योजना भारत में इसलिए बनाई कि यदि कहीं पर विद्रोह हो, तो उसे आसानी से दबाया जा सके. इसी तरह 1853 ई. में लार्ड डलहौजी ने कपास की इंग्लैण्ड में अत्यधिक आवश्यकता को देखते हुए भारत में संचार-व्यवस्था को तीव्र करने का सुझाव दिया. उसने इस बात पर भी जोर दिया कि यदि व्यापारिक बढ़ोत्तरी हुई है तो इंग्लैण्ड भारत का व्यापार भी बढ़ा है. फिर भी रेलवे के बनने से भारत में बहुत से उद्योगों को बढ़ावा मिला
इस प्रकार अंग्रेजों ने बेमन से और न चाहते हुए भी भारत के औद्योगिकीकरण की शुरूआत कर दी.
अंग्रेजी पूँजीवाद ने भारतीय उद्योगों को अपना मुकाबला करने की कभी-भी अनुमति प्रदान नहीं की और जब भी आवश्यक हुआ इसके प्राकृतिक विकास को रोका. इस स्वतन्त्र एवं साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा से भारत में औद्योगिक विकास बहुत ही धीमी गति से प्रारम्भ हुआ.
भारतीय उद्योगों को कई प्रकार के अवरोधों; जैसे— ब्रिटेन द्वारा लगाये गये पक्षपाती कर और उत्पादन कर, विदेशी माल को बिना चुंगी दिये भारत आने की अनुमति और तैयार भारतीय माल पर अत्यधिक -कर.
इसके बावजूद भारतीय व्यापारी और उद्योगपति वर्ग ने अपनी दक्षता का परिचय दिया और विदेशी आन्दोलन (1905 ई.) कारण उनके उत्पादन की खपत देश में अधिक होने से उन्हें अत्यधिक सहारा मिला और वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपना अस्तित्व कायम रख सके.
> भारत में श्रमिक वर्ग का उदय
प्रारम्भ में कुटीर एवं हस्तशिल्प उद्योगों का ही बोलबाला था, परन्तु अंग्रेजों के आगमन के बाद उनके संगठित शोषण के कारण भारतीय उद्योग-धन्धों का पतन हो गया. उसके बाद अंग्रेजों ने भारत में अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उद्योगों की शुरूआत रेलवे के द्वारा जिसके लिए प्रचुर मात्रा में कोयले के उत्पादन की आवश्यकता थी, की. फलतः कोयला खान के लिए हजारों श्रमिकों को खान में लगाया गया और यही भारत का श्रमिक वर्ग का प्रारम्भिक उदय था.
1854 ई. में बम्बई में वस्त्र उद्योग को प्रारम्भ किया गया और इसी वर्ष कलकत्ता में पटसन उद्योग स्थापित किया गया. इन उद्योगों में कुछ ही वर्षों में हजारों की संख्या में श्रमिक कार्य करने लगे.
भारतीय श्रमिक वर्ग को कम मजदूरी, लम्बे कार्य के घण्टे, मिलों का अस्वस्थ वातावरण, बालकों से काम लेना तथा किसी भी प्रकार की सुविधाओं का न होना. इत्यादि सभी के शोषणों से निपटना था. इसके अलावा उपनिवेशक राज्य का दुर्व्यवहार को भी सहन करना था.
इस सारी व्यवस्थाओं के कारण भारतीय श्रमिक वर्ग भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का एक अंग बन गया और विभिन्न संगठनों के माध्यम से स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए संघर्षशील हो गया.
> भारत में श्रमिक आन्दोलन का विस्तार
लंकाशायर के कपड़ा मिल मालिकों की माँग पर भारत में एक आयोग श्रमिकों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए गठित किया गया, जिसकी सिफारिश पर 1881 ई. में प्रथम कारखाना अधिनियम पारित किया गया, जिसमें 7 से 12 वर्ष तक के बच्चों के लिए काम के घण्टों का निर्धारण किया गया. इसी प्रकार अनेक अधिनियम 1891, 1909, 1911 ई. आदि में पारित किये गये, जिससे मजदूरों की दशा में कुछ सुधार हुआ. इसी बीच तिलक के जेल जाने पर भारतीय मजदूरों ने प्रथम बार राजनीतिक हड़ताल भी की. इन सभी से भारत का श्रमिक वर्ग जागरूक एवं संघर्षशील हो गया.
गांधीजी के भारतीय राजनीति में रंग-मंच पर आ जाने के बाद उन्होंने मजदूर आन्दोलन को विस्तृत आधार देने का प्रयास किया और अनुभव किया कि श्रमिकों को राष्ट्रीय व्यापार संघ में संगठित किया जाये और उन्हें भी राष्ट्रीय आन्दोलन में लाया जाये. इसी समय रूस में अक्टूबर क्रान्ति हुई और अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी दल का गठन हुआ, जिन्होंने सारे संसार के श्रमिकों का आह्वान किया कि उद्योगपतियों को उनके उद्योगों से वंचित कर दो.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ (League of Nations) का अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का गठन हुआ, जिससे श्रमिकों की समस्या को अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका मिल गयी. अतः भारत में भी इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप 31 अक्टूबर, 1920 ई. को A.I.T.U.C. ( एटक - All India Trade Union Congress ) का गठन किया गया और लाला लाजपत राय इसके प्रथम अध्यक्ष बने. 1927 ई. तक इसमें 57 श्रमिक संघ और सम्मिलित हो गये.
1926-27 में एटक में दो गुट – 'सुधारवादी' और 'क्रान्तिकारी' बन गये. इसमें सुधारवादी चाहते थे कि वे अन्तर्राष्ट्रीय फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन से अपने आपको संलग्न कराये, जिसका मुख्य कार्यालय एम्सटर्डम में था और दूसरे दल की इच्छा थी कि वह अपने आपको लाल अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ संलग्न कराये; जिसका संचालन मास्को से होता था.
इसके परिणामस्वरूप 1928 ई. के वर्ष में देश में अनेक श्रमिक हड़तालें आयोजित की गयीं. इनमें साम्यवादी लोगों का बहुमत स्थापित हो गया. जिसके कारण संलग्नता के प्रश्न पर एटक में 1929 ई. में विभाजन हो गया और सुधारवादियों ने एक अलग संगठन 'अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन' की स्थापना की.
1929 ई. में श्रमिक विवाद अधिनियम बना, जिसमें आवश्यक सेवाओं; जैसे— डाक, तार, पानी, बिजली आदि से जुड़े श्रमिक हड़ताल नहीं कर सकते थे. इसी वर्ष 'एटक' में एक और विभाजन हुआ, जिसमें साम्यवादी लोगों ने पृथक् होकर 'लाल ट्रेड यूनियन कांग्रेस का गठन कर लिया.
1929-33 ई. के मध्य मेरठ षड्यन्त्र केस में चले 33 श्रमिक नेताओं पर मुकदमे ने भारत के श्रमिक आन्दोलन को एक नया जीवन प्रदान किया तथा इन नेताओं के समर्थन में एक लाख से अधिक मजदूरों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल की.
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय 1930-31 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, लाल ट्रेड यूनियन, राष्ट्रीय फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियनिज्म मिलकर एक बने और उनकी यह एकता 1938 ई. तक कायम रही.
1937 ई. के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की जीत ने श्रमिक आन्दोलन को अत्यधिक बढ़ावा दिया और कांग्रेस सरकारों ने श्रमिकों के प्रति उदार नीति का अनुसरण किया, जिसके परिणामस्वरूप अनेक अधिनियम उनके कल्याण के लिए पारित किये गये.
इसी बीच द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ हो जाने के बाद कीमतों में वृद्धि होने लगी एवं श्रमिकों की मजदूरी यथावत् रहने के कारण श्रमिकों ने भारत में अंग्रेजों का समर्थन नहीं करने का प्रस्ताव 1940 ई. में वापस किया और अनेक आम हड़तालों का अयोजन किया.
एम. एन. राय ने एटक से अलग होकर 'इण्डियन फेडरेशन ऑफ लेबर पार्टी की स्थापना की तथा अंग्रेज सरकार के समर्थक बन गये. इसी प्रकार एटक का साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित वर्ग रूस पर आक्रमण होते ही विरोध सरकार समर्थक बन गया. राष्ट्रवादी लोग सरकार करते रहे और अनेक कष्टों को झेलते रहे.
अन्त में सरदार बल्लभभाई पटेल ने राष्ट्रवादी नेताओं के साथ मिलकर 'राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की. इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय तक श्रमिक आन्दोलन विभिन्न विचारधाराओं में बँट गया.
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