BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र के परिणाम

लोकतंत्र शासन की अन्य व्यवस्थाओं से बेहतर है। तानाशाही और अन्य व्यवस्थाएँ ज्यादा दोषपूर्ण हैं। लोकतंत्र को सबसे बेहतर बताया गया था क्योंकि,

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र के परिणाम

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र के परिणाम

लोकतंत्र की चुनौतियाँ
  • समकालीन विश्व में लोकतंत्र शासन का एक प्रमुख रूप है। इसे कोई गंभीर चुनौती नहीं है और न कोई दूसरी शासन प्रणाली इसकी प्रतिद्वंद्वी है।
  • लोकतंत्र में जितनी सारी संभावनाएँ हैं दुनिया में अभी कहीं भी उन सबका लाभ नहीं उठाया गया है। लोकतंत्र का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है इसका यह मतलब भी नहीं कि उसके लिए कोई चुनौती ही नहीं है।
  • लोकतंत्र की अपनी इस किताबी यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर हमने देखा है कि दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने गंभीर चुनौतियाँ हैं। ये चुनौतियाँ किसी आम समस्या जैसी नहीं हैं। हम आम तौर पर उन्हीं मुश्किलों को 'चुनौती' कहते हैं जो महत्तवपूर्ण तो हैं, लेकिन जिन पर जीत भी हासिल की जा सकती है।
  • अगर किसी मुश्किल के भीतर ऐसी संभावना है कि उस मुश्किल से छुटकारा मिल सके तो उसे हम चुनौती कहते हैं। एक बार जब हम चुनौती से पार पा लेते हैं तो हम पहले की अपेक्षा कुछ कदम आगे बढ़ जाते हैं। अलग-अलग देशों के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ होती हैं।
  • अधिकांश स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने अपने विस्तार की चुनौती है। इसमें लोकतांत्रिक शासन के बुनियादी सिद्धांतों को सभी इलाकों, सभी सामाजिक समूहों और विभिन्न संस्थाओं में लागू करना शामिल है।
  • स्थानीय सरकारों को अधिक अधिकार - संपन्न बनाना, संघ की सभी इकाईयों के लिए संघ के सिद्धांतों को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना, महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना आदि ऐसी ही चुनौतियाँ हैं।
  • इसका यह भी मतलब है कि कम से कम ही चीजें लोकतांत्रिक नियंत्रण के बाहर रहनी चाहिए। भारत और दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में एक अमेरिका जैसे देशों के सामने भी यह चुनौती है।
  • तीसरी चुनौती लोकतंत्र को मज़बूत करने की है। हर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने किसी न किसी रूप में यह चुनौती है ही। इसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं और बरतावों को मजबूत बनाना शामिल है।
  • लेकिन, अलग-अलग समाजों में आम आदमी की लोकतंत्र से अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं इसलिए यह चुनौती दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग अर्थ और अलग स्वरूप ले लेती है।
राजनीतिक सुधारों पर विचार
  • लोकतंत्र की विभिन्न चुनौतियों के बारे में सभी सुझाव या प्रस्ताव ‘लोकतांत्रिक सुधार' या 'राजनीतिक सुधार' कहे जाते हैं।
  • अगर सभी देशों की चुनौतियाँ एक जैसी नहीं हैं तो इसका यह भी मतलब है कि राजनीतिक सुधारों के लिए हर कोई एक फार्मूले का इस्तेमाल नहीं कर सकता।
  • कुछ महत्त्वपूर्ण सवालों के जवाब राज्य या स्थानीय स्तर पर दिए जा सकते हैं। भारत में राजनीतिक सुधारों के लिए तरीका और जरिया ढूँढ़ते समय कुछ दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखा जा सकता है।
  • कानून बनाकर राजनीति को सुधारने की बात सोचना बहुत लुभावना लग सकता है। नए कानून सारी अवांछित चीज़ें खत्म कर देंगे यह सोच लेना भले ही सुखद हो लेकिन इस लालच पर लगाम लगाना ही बेहतर है। निश्चित रूप से सुधारों के मामले में कानून की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  • सावधानी से बनाए गए कानून गलत राजनीतिक आचरणों को हतोत्साहित और अच्छे कामकाज को प्रोत्साहित करेंगे। परंतु विधिक - संवैधानिक बदलावों को ला देने भर से लोकतंत्र की चुनौतियों को हल नहीं किया जा सकता।
  • कानूनी बदलाव करते हुए इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। कई बार परिण म एकदम विपरीत निकलते हैं, जैसे कई राज्यों ने दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। इसके चलते अनेक गरीब लोग और महिलाएँ लोकतांत्रिक अवसर से वंचित हुईं जबकि ऐसा करने के पीछे यह मंशा न थी।
  • आम तौर पर किसी चीज़ की मनाही करने वाले कानून राजनीति में ज्यादा सफल नहीं होते। राजनीतिक कार्यकर्ता को अच्छे काम करने के लिए बढ़ावा देने वाले या लाभ पहुँचाने वाले कानूनों के सफल होने की संभावना ज्यादा होती है। सबसे बढ़िया कानून वे हैं जो लोगों को लोकतांत्रिक सुधार करने की ताकत देते हैं।
  • सूचना का अधिकार कानून लोगों को जानकार बनाने और लोकतंत्र के रखवाले के तौर पर सक्रिय करने का अच्छा उदाहरण है। ऐसा कानून भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाता है और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने तथा कठोर दंड आयद करने वाले मौजूदा कानूनों की मदद करता है।
  • लोकतांत्रिक सुधार तो मुख्यतः राजनीतिक दल ही करते हैं। इसलिए, राजनीतिक सुधारों का ज़ोर मुख्यतः लोकतांत्रिक कामकाज को ज़्यादा मज़बूत बनाने पर होना चाहिए ।
लोकतंत्र की पुनर्परिभाषा
  • लोकतंत्र शासन का वह स्वरूप है जिसमें लोग अपने शासकों का चुनाव खुद करते हैं। लोगों द्वारा चुने गए शासक ही सारे प्रमुख फ़ैसले लें; चुनाव में लोगों को वर्तमान शासकों को बदलने और अपनी पसंद जाहिर करने का पर्याप्त अवसर और विकल्प मिलना चाहिए। ये विकल्प और अवसर हर किसी को बराबरी में उपलब्ध होने चाहिए।
  • विकल्प चुनने के इस तरीके से ऐसी सरकार का गठन होना चाहिए जो संविधान के बुनियादी नियमों और नागरिकों के अधिकारों को मानते हुए काम करे।
  • लोकतांत्रिक अधिकारों की चर्चा की और पाया कि ये अधिकार सिर्फ़ वोट देने, चुनाव लड़ने और राजनीतिक संगठन बनाने भर के नहीं हैं। कुछ ऐसे सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की चर्चा की जिन्हें एक लोकतांत्रिक शासन को अपने नागरिकों को देना ही चाहिए।
  • हमने सत्ता में हिस्सेदारी को लोकतंत्र की भावना के अनुकूल माना था और सरकारों और सामाजिक समूहों के बीच सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।
  • लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही या क्रूर शासन-व्यवस्था नहीं हो सकती और अल्पसंख्यक आवाज़ों का आदर करना लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। भेदभाव को समाप्त करना भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण काम है।

लोकतंत्र के परिणामों का मूल्यांकन

  • लोकतंत्र शासन की अन्य व्यवस्थाओं से बेहतर है। तानाशाही और अन्य व्यवस्थाएँ ज्यादा दोषपूर्ण हैं। लोकतंत्र को सबसे बेहतर बताया गया था क्योंकि,
    • यह नागरिकों में समानता को बढ़ावा देता है;
    • व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाता है;
    • इससे फ़ैसलों में बेहतरी आती है;
    • टकरावों को टालने-सँभालने का तरीका देता है; और
    • इसमें गलतियों को सुधारने की गुंजाइश होती है।
  • अधिकांश लोग अन्य किसी भी वैकल्पिक शासन व्यवस्था की में लोकतंत्र को पसंद करते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक शासन तुलना के कामकाज से संतुष्ट होने वालों की संख्या उतनी बड़ी नहीं होती। हम एक दुविधा की स्थिति में आ जाते हैं: सैद्धांतिक रूप में तो लोकतंत्र को अच्छा माना जाता है पर व्यवहार में इसे इतना अच्छा नहीं माना जाता।
  • आज दुनिया के अनेक देश किसी-न-किसी तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था चलाने का दावा करते हैं। इनका औपचारिक संविधान है, इनके यहाँ चुनाव होते हैं और राजनीतिक दल भी हैं। साथ ही, वे अपने नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकारों की गारंटी देते हैं। > लोकतंत्र के ये तत्त्व तो अधिकांश देशों में समान हैं पर सामाजिक स्थिति, अपनी आर्थिक उपलब्धि और अपनी संस्कृतियों के मामले में ये देश एक-दूसरे से काफ़ी अलग-अलग हैं।
  • स्पष्ट है कि इन सबका लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के नतीजों पर भी असर पड़ता है और एक जगह जो उपलब्धि हो वह दूसरी जगह भी उसी तरह दिखे यह ज़रूरी नहीं है ।
  • लोकतंत्र सभी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान कर सकता है और जब हमारी कुछ उम्मी होतीं तो हम लोकतंत्र की अवधारणा को ही दोष देने लगते हैं। लोकतंत्र के परिणामों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने की दिशा में पहला कदम यही है कि हम पहले यह मानें कि लोकतंत्र शासन का एक स्वरूप भर है।
  • यह कुछ चीज़ों को हासिल करने की स्थितियाँ तो बना सकता है पर नागरिकों को ही उन स्थितियों का लाभ लेकर अपने लक्ष्यों को हासिल करना होता है। इतना ही नहीं, लोकतंत्र का उन अनेक चीज़ों से ज़्यादा सरोकार नहीं होता जिनको हम बहुत मूल्यवान मानते हैं।
उत्तरदायी, जिम्मेवार और वैध शासन
  • लोकतंत्र में सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि लोगों का अपना शासक चुनने का अधिकार और शासकों पर नियंत्रण बरकरार रहे।
  • वक्त-ज़रूरत और यथासंभव इन चीज़ों के लिए लोगों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी करने में सक्षम होना चाहिए ताकि लोगों के प्रति ज़िम्मेवार सरकार बन सके और सरकार लोगों की ज़रूरतों और उम्मीदों पर ध्यान दे।
  • ऐसी सरकार की कल्पना कीजिए जो बहुत तेज़ फ़ैसले लेती है। लेकिन यह सरकार ऐसे फ़ैसले भी ले सकती है जिसे लोग स्वीकार न करें और तब ऐसे फैसलों से परेशानी हो सकती है। इसकी तुलना में लोकतांत्रिक सरकार सारी प्रक्रिया को करने पूरा में ज़्यादा समय ले सकती है।
  • इसने पूरी प्रक्रिया को माना है इसलिए इस बात की ज़्यादा संभावना है कि लोग उसके फैसलों को मानेंगे और वे ज्यादा प्रभावी होंगे। इस प्रकार लोकतंत्र में फैसला लेने में जो वक्त लगता है वह बेकार नहीं जाता।
  • दूसरा पहलू : लोकतंत्र में इस बात की व्यवस्था होती है कि फ़ैसले कुछ कायदे-कानून के अनुसार होंगे और अगर कोई नागरिक यह जानना चाहे कि फैसले लेने में नियमों का पालन हुआ है या नहीं तो वह इसका पता कर सकता है। उसे यह न सिर्फ़ जानने का अधिकार है बल्कि उसके पास इसके साधन भी उपलब्ध हैं। इसे पारदर्शिता कहते हैं।
  • यह गैर-लोकतांत्रिक सरकारों में नहीं होती इसलिए जब हम लोकतंत्र के परिणामों पर गौर कर रहे हैं तो यह उम्मीद करना - उचित है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी सरकार का गठन होगा जो नियम-कानून को मानेगी और लोगों के प्रति जवाबदेह होगी।
  • लोकतांत्रिक सरकार नागरिकों को निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाने और खुद को उनके प्रति जवाबदेह बनाने वाली कार्यविधि भी विकसित कर लेती है।
  • इन नतीजों के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को तौलना चाहते हैं तो आपको इन संस्थाओं और व्यवहारों पर गौर करना होगा: नियमित और निष्पक्ष चुनाव, प्रमुख नीतियों और नए कानूनों पर खुली सार्वजनिक चर्चा और सरकार तथा इसके कामकाज के बारे में जानकारी पाने का नागरिकों का सूचना का अधिकार ।
  • इन पैमानों पर लोकतांत्रिक शासकों का रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है। नियमित और निष्पक्ष चुनाव कराने और खुली सार्वजनिक चर्चा के लिए उपयुक्त स्थितियाँ बनाने के मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ ज्यादा सफल हुई हैं पर ऐसे चुनाव कराने में जिसमें सबको अवसर मिले अथवा हर फ़ैसले पर सार्वजनिक बहस कराने के मामले में उनका रिकॉर्ड ज्यादा अच्छा नहीं रहा है।
  • नागरिकों के साथ सूचनाओं को साझा करने के मामले में भी उनका रिकॉर्ड खराब रहा है। पर इनकी तुलना जब हम गैर-लोकतांत्रिक शासनों से करते हैं तो इन क्षेत्रों का भी उनका प्रदर्शन बेहतर ही रहता है ।
  • एक व्यापक धरातल पर लोकतांत्रिक सरकारों से यह उम्मीद करना उचित ही है कि वे लोगों की ज़रूरतों और माँगों का ध्यान रखने वाली हों और कुल मिलाकर भ्रष्टाचार से मुक्त शासन करें। इन दोनों मामलों में भी लोकतांत्रिक सरकारों का रिकॉर्ड प्रभावशाली नहीं है ।
  • एक मामले में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था निश्चित रूप से अन्य शासनों से बेहतर है : यह वैध शासन व्यवस्था है। यह सुस्त हो सकती है, कम कार्य-कुशल हो सकती है, इसमें भ्रष्टाचार हो सकता है, यह लोगों की ज़रूरतों की कुछ हद तक अनदेखी कर सकती है लेकिन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था लोगों की अपनी शासन व्यवस्था है।
आर्थिक संवृद्धि और विकास
  • हम 1950 से 2000 के बीच के सभी लोकतांत्रिक शासनों और तानाशाहियों के कामकाज की तुलना करें तो पाएँगे कि आर्थिक संवृद्धि के मामले में तानाशाहियों का रिकॉर्ड थोड़ा बेहतर है।
  • उच्चतर आर्थिक संवृद्धि हासिल करने में लोकतांत्रिक शासन की यह अक्षमता हमारे लिए चिंता का कारण है। पर अकेले इसी कारण से लोकतंत्र को खारिज नहीं किया जा सकता। जैसा कि आपने अर्थशास्त्र में पढ़ा है- आर्थिक विकास कई कारकों मसलन देश की जनसंख्या के आकार, वैश्विक स्थिति, अन्य देशों से सहयोग और देश द्वारा तय की गई आर्थिक प्राथमिकताओं पर भी निर्भर करता है।
  • तानाशाही वाले कम विकसित देशों और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले कम विकसित देशों के बीच का अंतर नगण्य सा है। तानाशाही और लोकतांत्रिक शासन वाले देशों के आर्थिक विकास दर में अंतर भले ज़्यादा हो लेकिन इसके बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था का चुनाव ही बेहतर है क्योंकि इसके अन्य अनेक सकारात्मक फ़ायदे हैं।
लोकतंत्र की आर्थिक उपलब्धियाँ
  • आर्थिक विकास के मामले में तानाशाहियों का रिकॉर्ड थोड़ा बेहतर है। लेकिन जब हम सिर्फ गरीब मुल्कों के रिकॉर्ड की ही तुलना करते हैं तो अंतर लगभग समाप्त हो जाता है।
  • लोकतांत्रिक शासन के अंदर भी भारी आर्थिक असमानता हो सकती है। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों ऊपरी 20 फ़ीसदी लोगों का ही कुल राष्ट्रीय आय के 60 फ़ीसदी हिस्से पर कब्ज़ा है जबकि सबसे नीचे के 20 फ़ीसदी लोग राष्ट्रीय आय के मात्र 3 फीसदी हिस्से पर जीवन यापन करते हैं। डेनमार्क और हंगरी जैसे मुल्क इस मामले में कहीं ज्यादा बेहतर हैं ।
असमानता और गरीबी में कमी
  • लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से यह उम्मीद रखना कहीं ज़्यादा तर्कसंगत है कि वे आर्थिक असमानता को कम करेंगी।
  • एरेस- बेस्ट लैटिन अमरीका, केगल कार्टूस लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक समानता पर आधारित होती है। प्रतिनिधियों के चुनाव में हर व्यक्ति का वज़न बराबर होता है।
  • व्यक्तियों को राजनीतिक क्षेत्र में परस्पर बराबरी का दर्जा तो मिल जाता है लेकिन इसके साथ-साथ हम आर्थिक असमानता को भी बढ़ता हुआ पाते हैं ।
  • कुछ धनी लोग आय और संपत्ति में अपने अनुपात से बहुत ज़्यादा हिस्सा पाते हैं। इतना ही नहीं, देश की कुल आय में उनका हिस्सा भी बढ़ता गया है।
  • समाज के सबसे निचले हिस्से के लोगों को जीवन बसर करने के लिए काफ़ी कम साधन मिलते हैं। उनकी आमदनी गिरती गई है। कई बार उन्हें भोजन, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में मुश्किल आती हैं।
  • वास्तविक जीवन में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आर्थिक असमानताओं को कम करने में ज़्यादा सफल नहीं हो पाई हैं। हमारे मतदाताओं में गरीबों की संख्या काफ़ी बड़ी है इसलिए कोई भी पार्टी उनके मतों से हाथ धोना नहीं चाहेगी।
सामाजिक विविधताओं में सामंजस्य
  • लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ अनेक तरह के सामाजिक विभाजनों को सँभालती हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आम तौर पर अपने अंदर की प्रतिद्वंद्विताओं को सँभालने की प्रक्रिया विकसित कर लेती हैं। इससे इन टकरावों के विस्फोटक या हिंसक रूप लेने का अंदेशा कम हो जाता है।
  • कोई भी समाज अपने विभिन्न समूहों के बीच के टकरावों को पूरी तरह और स्थायी रूप से नहीं खत्म कर सकता, पर हम इन अंतरों और विभेदों का आदर करना सीख सकते हैं और इनके बीच बातचीत से सामंजस्य बैठाने का तरीका विकसित कर सकते हैं। इस काम के लिए लोकतंत्र सबसे अच्छा है।
  • गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आमतौर पर अपने अंदरूनी सामाजिक मतभेदों को नजरअंदाज करती हैं या उन्हें दबाने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार सामाजिक अंतर, विभाजन और टकरावों को सँभालना निश्चित रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का एक बड़ा गुण है। श्रीलंका इस बात की याद दिलाता है कि इस परिणाम को हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को स्वयं भी दो शर्तों को पूरा करना होता है:
    • लोकतंत्र का सीधे-सीधे अर्थ बहुमत की राय से शासन करना नहीं है।
    • बहुमत को सदा ही अल्पमत का ध्यान रखना होता है। उसके साथ काम करने की ज़रूरत होती है। तभी, सरकार जन-सामान्य की इच्छा का प्रतिनिधित्व कर पाती है।
    • बहुमत और अल्पमत की राय कोई स्थायी चीज़ नहीं होती। यह भी समझना ज़रूरी है कि बहुमत के शासन का अर्थ धर्म, नस्ल अथवा भाषायी आधार के बहुसंख्यक समूह का शासन नहीं होता।
    • बहुमत के शासन का मतलब होता है कि हर फैसले या चुनाव में अलग-अलग लोग और समूह बहुमत का निर्माण कर सकते हैं या बहुमत में हो सकते हैं।
    • लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र रहता है जब तक, प्रत्येक नागरिक को किसी न किसी अवसर पर बहुमत का हिस्सा बनने का मौका मिलता है।
    • अगर किसी को जन्म के आधार पर बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा बनने से रोका जाता है तब लोकतांत्रिक शासन उस व्यक्ति या समूह के लिए समावेशी नहीं रह जाता ।
नागरिकों की गरिमा और आज़ादी
  • व्यक्ति की गरिमा और आज़ादी के मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी अन्य शासन प्रणाली से काफ़ी आगे है। प्रत्येक व् अपने साथ के लोगों से सम्मान पाना चाहता है। अक्सर, टकराव तभी पैदा होते हैं जब कुछ लोगों को लगता है कि उनके साथ सम्मान का व्यवहार नहीं किया गया।
  • गरिमा और आज़ादी की चाह ही लोकतंत्र का आधार है। दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ इस चीज़ को मानती हैं- कम से कम सिद्धांत के तौर पर तो ज़रूर अलग-अलग लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इन बातों पर अलग-अलग स्तर का आचरण होता है।
  • लोकतांत्रिक सरकारें सदा नागरिकों के अधिकारों का सम्मान नहीं करतीं। फिर, जो समाज लंबे समय तक गुलामी में रहे हैं उनके लिए यह एहसास करना आसान नहीं है कि सभी व्यक्ति बराबर हैं।
  • महिलाओं के लंबे संघर्ष के बाद अब जाकर यह माना जाने लगा है कि महिलाओं के साथ गरिमा और समानता का व्यवहार लोकतंत्र की ज़रूरी शर्त है और आज अगर कहीं यह हालत है तो उसका यह मतलब नहीं कि औरतों के साथ सदा से सम्मान का व्यवहार हुआ है।
  • बहरहाल, एक बार जब सिद्धांत रूप में इस बात को स्वीकार कर लिया गया है तो अब औरतों के लिए वैधानिक और नैतिक रूप से अपने प्रति गलत मान्यताओं और व्यवहारों के खिलाफ संघर्ष करना आसान हो गया है।
  • अलोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बात संभव न थी क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत आज़ादी और गरिमा न तो वैधानिक रूप से मान्य है, न नैतिक रूप से। यही बात जातिगत असमानता पर भी लागू होती है। 
  • भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था ने कमज़ोर और भेदभाव का शिकार हुई जातियों के लोगों के समान दर्जे और समान अवसर के दावे को बल दिया है। आज भी जातिगत भेदभाव और दमन के उदाहरण देखने को मिलते हैं पर इनके पक्ष में कानूनी या नैतिक बल नहीं होता।
  • लोकतंत्र की एक खासियत है कि इसकी जाँच-परख और परीक्षा कभी खत्म नहीं होती। वह एक जाँच पर खरा उतरे तो अगली जाँच आ जाती है। लोगों को जब लोकतंत्र से थोड़ा लाभ मिल जाता है तो वे और लाभों की माँग करने लगते हैं। वे लोकतंत्र से और अच्छा काम चाहते हैं।
  • यही कारण है कि जब हम उनसे लोकतंत्र के कामकाज के बारे में पूछते हैं तो वे हमेशा लोकतंत्र से जुड़ी अपनी अन्य अपेक्षाओं को देते हैं और शिकायतों का अंबार लगा देते हैं। शिकायतों का बने रहना भी लोकतंत्र की सफलता की गवाही देता है। इससे पता चलता है कि लोग सचेत हो गए हैं और वे सत्ता में बैठे लोगों के कामकाज का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने लगे हैं।
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