कृषि एवं भू-सुधार (भाग-I)
1. स्वतंत्रता के बाद कृषि तथा भूमि सुधार (किसानों की स्थिति तथा चुनौतियां)
आजादी मिलने के बाद सरकार के सामने जो सबसे बड़ा प्रश्न था वो किसान तथा कृषि संबंधित मुद्दों को हल करना था। भारत आरम्भ से ही कृषि प्रधान देश रहा था तथा जब अंग्रेजों ने हस्तशिल्प तथा भारत की ग्रामीण औद्योगिक श्रृंखला को नष्ट कर दिया तो भारत की खेती पर बोझ बढ़ गया तथा कृषि की स्थिति बहुत की खराब हो गयी। जो व्यक्ति हस्त शिल्प उद्योग तथा कुटीर उद्योग में काम करते थे, वह भी अब कृषि पर निर्भर हो गए तथा आजादी के बाद सरकार के सामने इन बढ़े हुए बोझ को संतुलित करने के लिए कृषि में सुधार की आवश्यकता महसूस हुई।
सरकार ने कृषि की भूमिका को आमजन के जीवन में बढ़ाने के लिए न्याय के साथ कृषि के विकास की योजना बनायी जिसमें भूमि सुधार को सबसे महत्वपूर्ण माना गया तथा सरकार ने 'भूमि सुधार' को दो चरणों के लिए विकसित करने की योजना बनायी।
भूमि सुधार का पहला चरण आजादी के तुरंत बाद आरम्भ होकर 1960 तक चला जिसकी विभिन्न विशेषताएं थीं। जिसमें प्रमुख हैं
1. जमींदार, भागीदार की समाप्ति तथा बिचौलियों की समाप्ति।
2. " काश्तकारी - सुधार अधिनियम जिनमें काश्तकारों को जोत की सुरक्षा प्रदान की गई भूमि कर कम किया गया और काश्तकारी के स्वामित्व के अधिकार प्रदान किये गए।
3. भूमि के मामलों में हदबंदी आरम्भ की गयी तथा इसे नियमित करने की शुरूआत हुई।
4. सहकारी और सामुदायिक विकास कार्यक्रम।
इस दौर को संस्थागत सुधारों का दौर भी कहा गया है। पहले चरण में सिर्फ संस्थागत सुधारों को ही मजबूत करने की कोशिश की गई। तथा कृषि के मामलों में भूमि सुधार की प्रक्रिया को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश भर हुई।
दूसरे चरण को 1966 के आस-पास की शुरूआत माना जा सकता है। यह चरण हरित क्रांति तथा तकनीकि की सुधारों से संबंधित रहा है।
यदि इन दोनों चरणों को एक साथ देखे तो हमें यह यह समझ लेना जरूरी है कि इन चरणों में काफी समानताएं हैं। इनकी पुनरावृत्ति आवश्यक रूप में नहीं वरण् प्राकृतिक रूप से हुई है पर कई सुधारों को हम इन दो चरणों से जोड़कर देख सकते हैं।
हमें आजादी के बाद उन सुधारों को क्रमवार देखने की आवश्यकता है जिन्होंने सीढ़ी बनकर कृषि व्यवस्था को भारत में एक अनुशासित व्यवस्था तथा सामाजिक आर्थिक रूप से संतुलन का केन्द्र बनाया।
जमींदारी उन्मूलन
स्वतंत्रता के बाद यानी 1949 में जमींदारी उन्मूलन की विशेषताओं में विभिन्न कार्य किए गए। इनके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जमींदारी उन्मूलन विधेयक तथा साथ में ही भूमि काश्तकारी कानून कई प्रदेशों में बनाए गए। जैसे:- मध्य प्रदेश, मद्रास, बंबई, उत्तर प्रदेश, असम, बिहार इत्यादि ।
उत्तर प्रदेश में जी.बी. पंत की अध्यक्षता में जमींदारी उन्मूलन समिति बनायी गयी जिसने एक उदाहरण का कार्य किया तथा इन समिति की रिपोर्ट को आधार मानकर कई प्रदेशों ने अपनी जमींदारी उन्मूलन नीति को कागजी रूप प्रदान किया। संविधान की बैठकों में इस बात पर सरदार पटेल ने चिंता जाहिर की कि जमींदार अपनी संपत्ति बचाने के लिए आंदोलन करेंगे तथा मुआवजे की मांग करेंगे। इसी बात को ध्यान में रखकर संविधान में आवश्यक प्रावधान किए गए तथा विभिन्न विधान सभाओं ने भी इस बिल को तय मुआवजे के साथ पेश तथा पास करवाने की उम्मीद दिखायी। जमींदारी उन्मूलन प्रक्रियाओं को सर्वसम्पति न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में बाहर रखा गया। जमींदारों को दी जाने वाली मुआवजे की रकम को सर्वसम्मति से पास किया गया तथा इसे वाणिज्यिक तथा औद्योगिक संपत्ति से दूर रखा गया । औद्योगिक तथा वाणिज्यिक संपत्ति के अधिग्रहण की विशेषताओं को अधिग्रहण के मामलों में अगले भाग में अलग तरीके से रखने पर विचार किया गया।
जितना आसान इन सभी बातों को समझा जा रहा था, यह उतनी आसान बात नहीं थी। देश के विभिन्न हिस्सों की जमींदारी के पैरोंकार तथा जमींदारों ने इन जमींदारी उन्मूलन को अवैध माना तथा पटना हाई कोर्ट ने इसे नयी आवाज दी। जमींदारी उन्मूलन के खिलाफ अपील की सुनवाई के लिए पटना उच्च न्यायालय तैयार हो गया। कांग्रेस सरकार इस मुद्दे को न्यायालय से दूर रखना चाहती थी, इसलिए सरकार ने इन मामलों में प्रथम संशोधन पेश किया तथा 1951 में प्रथम संविधान संशोधन तथा 1955 में चौथा संविधान संशोधन पेश किया। इन संशोधनों का उद्देश्य जमींदारी उन्मूलन लागू करने के लिए राज्य विधायिकाओं के हाथ मजबूत करना, और मूलभूत अधिकारों एवं मुआवजों के प्रश्नों को अदालतों की परिधि से बाहर रखना था।
इसके बाद बाद जमींदार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील करते रहे। इनका उद्देश्य कम-से-कम अपनी संपत्ति के अधिग्रहण में बाधा उत्पन्न करना था तथा चाहत थी कि अधिग्रहण में देरी हो। इसके समर्थन में कोई नहीं आया तथा जनतंत्र में राजनीतिक तंग के ढांचे को मजबूत करने के लिए सभी धड़ में भूमि सुधार के समर्थन में लहर थी ।
1956 में जमींदारी उन्मूलन एक्ट अधिकतर राज्यों में पास हो चुका था लेकिन उन्हें लागू करने में एक बड़ी दिक्कत भूमि संबंधी पर्याप्त रिकार्डों का अभाव था। फिर भी, 1956 तक अंग्रेजी राज के जमाने के बिचौलियों, तथा जमीदारों का उन्मूलन करना जा चुका था।
इसका आधार स्वतंत्रता संघर्ष के तौर पर देखा जा सकता है। जब जमींदारों को एक तरफ कर दिया गया क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष जमींदारों को साम्राज्यवादी समूह का माना जाता था। इन जमींदारों को एक सामाजिक खलनायक के रूप में देखा जाता था तथा इसे एक महान विरोध बार-बार झेलना पड़ता था।
जमींदारी उन्मूलन का मतलब था कि करीब दो करोड़ काश्तकारों का भू-स्वामी बनना व काश्त परिवारों की संख्या और उनके तहत क्षेत्र संबंधी आंकड़ों पर निश्चित भरोसा नहीं किया जा सकता था। क्योंकि कई क्षेत्र में बटाई देने का काम मौखिक तौर पर होता था और इसलिए उनके कोई रिकॉर्ड नहीं है।
काश्तकारी का क्षेत्र 1950-51 में 42 प्रतिशत से घटकर 1960-70 के बीच 20-25 प्रतिशत तक रह गया। लेकिन काश्तकारी या बटाईदारी से कमी और स्वयं खेती करने में बढ़ोत्तरी सिर्फ काश्तकारों के भू-स्वामी बनने का नतीजा नहीं था, बल्कि वर्तमान काश्तकारों को भूस्वामियों द्वारा बेदखल करने का भी नतीजा था ।
वास्तव में जमींदारों को दिया गया मुआवजा आम तौर पर कम था। इनमें अलगाव अधिक था। कहीं किसी क्षेत्र में अधिक था तो किसी क्षेत्र में कम था। यह किसान आंदोलन की शक्ति और भू-स्वामियों एवं किसानों के बीच वर्ग संतुलन पर निर्भर था। साथ ही, यह कांग्रेस नेतृत्व तथा विधायिका की विचारधारा के चरित्र पर भी निर्भर था।
कश्मीर जैसे राज्य में कोई मुआवजा नहीं दिया। पंजाब में पटियाला के दखल करने वाले काश्तकारों को कुछ भी नहीं मिला। छोटे काश्तकारों को कुछ भी नहीं मिला। छोटे काश्तकारों को दी भी गई तो कम राशि दी गई। अकसर कई वर्षों में अदा की जाने वाली प्रथम किश्त दी। अधिकतर राज्यों में यू.पी. के नमूने के विभिन्न प्रकार अपनाए गए। उत्तर प्रदेश में मुआवजे की राशि आकार के विपरीत अनुपात में दी गयी। छोटे जमींदारों को अकसर खाते-पीते किसानों से अलग करना मुश्किल था। भूमि सुधारों को लागू नहीं किया गया। ऐसे भू-स्वामियों को जो 25 रुपये तक का भूमि शुल्क देते थे, मुआवजे के रूप में अपनी वास्तविक वार्षिक आय के 20 गुणा मिलना दूसरी ओर 2000 से 10,000 रु. तक भू-राजस्व अदा करने वाले बड़े जमींदारों को अपनी वास्तविक वार्षिक आय का मात्र दो में चार गुणा ही मुआवजा मिला। इसके अलावा, मुआवजा काफी लम्बी अवधि के लिए मिलना था, कभी-कभी तो 40 वर्षों के दौरान। एक अध्ययन के अनुसार बड़े जमींदारों को मिलने वाला मुआवजा उनके पहले की आय का मात्र चालीसवां हिस्सा था।
6 अरब 70 करोड़ रुपये के कुल बकाया में से 1961 तक मात्र 1 अरब 64 करोड़ बीस लाख रुपये ही दिए गए। यह एक छोटा आंकड़ा था। तुलना के लिए एक हिसाब के अनुसार, भारत ने 1946-53 में सिर्फ अनाज आयात में 10 अरब खर्च किए गए।
जमींदारी उन्मूलन के नकारात्मक पक्ष को हम देखें तो इसमें कानून के तौर पर बहुत ही खामियां थीं। जहां उत्तर प्रदेश में जमींदारों को वे जमीने अपने पास रखने की इजाजत दे दी गई जिन्हें उन्होंने अपनी व्यक्तिगत खेती घोषित कर दिया था। इसमें कोई भी जमींदार अपनी जगह बना सकता था। इसमें किसी प्रकार की समानता लाने तथा संतुलन बिठाने की कोई बात ही नहीं थी। इसके आलावा उत्तर प्रदेश, बिहार और मद्रास जैसे राज्यों में व्यक्तिगत खेती की कोई सीमा नहीं थी। यह सीमा तब बनी जब हदबंदी कानून पेश किए गए। दूसरी ओर कांग्रेस की कृषि सुधार समिति जो कुमारप्पा समिति भी कहलाती थी उसने अपनी रिपोर्ट में व्यक्तिगत खेती की परिभाषा कुछ और ही दी थी जो कम-से-कम कुछ शारीरिक तौर पर खेत में काम करते हैं तथा वास्तविक कृषि प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं। साथ ही समिति ने या तगत प्रयोग में शामिल की जाने वाली भूमि की सीमा बांध दी थी । वह सीमा किसी भी हालत में काश्तकार के लिए न्यूनतम आर्थिक सीमा से नीचे नहीं होनी चाहिए।
इसका परिणाम हुआ कि वास्तव में वे जमींदार भी जो अनुपस्थित भू-स्वामी थे, अब बड़ी जमीनों के मालिक बन सकते थे। कई इलाकों में जमींदार अपनी व्यक्तिगत जोत को अधिक से अधिक बड़ा दिखाने के लिए काश्तकारों खासकर छोटे काश्तकारों को बड़े पैमाने पर बेदखल करने लगे। इसके बाद हदबंदी और काश्तकारी कानूनों के लागू होने पर बेदखली के और दौर चले। इससे कुल मिलाकर भारत में भूमि सुधारों पर लगाम लग गयी।
फिर कई तौर पर कई जमींदारों ने अपनी खेती को व्यक्तिगत खेती के तौर पर बनाए रखा, वहां भी नियमित रूप से उन्होंने उसमें निवेश किया और अपने क्षेत्रों में पूंजीवादी खेती की ओर अग्रसर हुए। यह भूमि सुधारों के उद्देश्यों में से एक था। ‘व्यक्तिगत जोत' का तरीका जमींदारी उन्मूलन से बचने के कई तरीकों में एक मार्ग था। वैसे इससे बचने के कई तरीके और भी थे। जब विधान सभाओं में पेश किया गया तो जमींदार अपनी शक्ति का प्रयोग कर इसे लागू होने पर रोकते थे। प्रवर समिति को भोजन चर्चा में लम्बे समय से खींचना तथा कानूनी रूप से अढ़चन डालना जैसे कदमों से इसे पास करने में कितने समय बर्बाद हो गए तथा वर्षों तक इंतजार होता रहा।
जब कानून पास भी हो गया तथा जमींदारों ने न्यायालय की शरण लेनी शुरू कर दी। जमींदार सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गए। बिहार जैसे राज्य में जमींदारों ने सबसे अधिक विरोध किया। दो बार सर्वोच्च न्यायालय से हार के बाद भी उन्होंने कानून पर अमल रोकने की कोशिश की। अब जमींदारों ने अपना रिकॉर्ड देने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप सरकार को अधिक विलंब करना पड़ा तथा नया रिकॉर्ड फिर से तैयार करना पड़ा। सबसे अधिक दिक्कत स्थानीय स्तर पर हुई। राजस्व अधिकारी और जमींदारों के बीच जो सांठ-गांठ थी, वह सबसे अधिक समस्या पैदा कर रही थी।
भू - स्वामियों ने वैधानिक रूप से तथा न्यायिक रूप से हरेक स्तर पर विरोध किया तथा इस कानून को न लागू करने के लिए कई प्रयास किए |
1951-52 के चुनाव घोषणा पत्र में कांग्रेस ने जमींदारी उन्मूलन को अपना लक्ष्य बनाया था। 1954 में कांग्रेस के सभी मुख्यामंत्रियों को यह कहा गया था कि जमींदारी उन्मूलन को प्राथमिकता देकर काम करने की कोशिश की जाए। कांग्रेस को इसे लागू करना मजबूरी थी क्योंकि अब लोकतांत्रिक पद्धति में वयस्क मताधिकार आ गया था। मताधिकार में आम आदमी का वोट सबसे अधिक था तथा जमींदारों की स्थिति पूरी तरह पतन की ओर हो गई थी।
कांग्रेस ने जमींदारी उन्मूलन का काम किया तथा इनके लिए संवैधानिक संशोधन भी करवाया । कांग्रेस ने 1951 तथा 1955 में संवैधानिक संशोधन कार भू-स्वामियों तथा आम आदमी के बीच संतुलन कायम करने की भी कोशिश की। कांग्रेस की सरकार ने 1951-60 बीच जमींदारों के प्रतिरोध के बावजूद जमींदारी उन्मूलन के लक्ष्य को अधिकतर जगहों पर पूरा किया तथा इसमें संतुलन कायम कर सकने की कोशिश की। बिहार को छोड़कर यह उन्मूलन बहुत जगह पूरा हो गया था। 1960 तक देखा जाए तो सामंतवाद समाप्त हो गया। बड़े भू-स्वामियों को भारी - हानि उठानी पड़ी। बड़े भू-स्वामी अब अपनी जमीन खो बैठे।
जमींदारी उन्मूलन का सबसे अधिक लाभ काश्तकारों का हुआ जिन्हें लंबे काल से जमींदारों से सीधी जमीन मिली थी। वे अब अपनी जमीन के मालिक हो गए। ये ऐसे काश्तकार थे जो बटाई पर दी हुई जमीन जोतते थे। इनके पास कम अधिकार थे। ऐसे छोटे काश्तकारों के साथ मौखिक समझौते ही होते थे जो जमींदारों की इच्छा पर ही निर्भर थे । अब काश्तकार स्वतंत्र हो गए।
काश्तकारी सुधार
जमींदारी उन्मूलन के बाद भी जमींदारी क्षेत्रों में मौखिक और बिना रिकॉर्ड वाले काश्तकारी के मुद्दे बने रहे। इस प्रकार की काश्तकारी उन भूतपूर्व जमींदारों की जमीन पर जारी रही जिनकी जमीनें अब व्यक्तिगत खेती की श्रेणी में बताई जाने लगी। साथ ही यह उन भूतपूर्व लंबे समय से अवस्थित काश्तकारों की जमीनों पर लगातार जारी रही जो अपनी जमीनें बटाई पर लगाने लगे।
इसके अलावा स्वतंत्रता के समय सिर्फ आधी भूमि ही जमींदारी व्यवस्था के तहत थी। बाकी जो आधी जमीन बची थी वह रैयतवारी के अन्तर्गत थी। जहां भू स्वामि की समस्याएं, असुरक्षा, भारी लगान वाली काश्तकारी इत्यादि समस्याएं अत्यंत व्यापक थीं।
इसलिए भूमि सुधारों का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य था- 'काश्तकारी कानून' का निर्माण। लेकिन सबसे बड़ी समस्या थी विभिन्न राज्यों में अलग-अलग कानून तथा लागू करने की परिस्थिति में भारी अंतर। फिर भी उनमें कुछ समान उद्देश्य थे और समय के साथ आम तौर पर उनके बीच से एक मिलती-जुलती रूप रेखा उभरी। इन्हीं मिलती-जुलती रूप रेखा की विशेषता को आगे रखकर यह कार्य किया गया।
2. काश्तकारी सुधार की विशेषताएं
1. उन काश्तकारों के लिए काश्तकारी की गारंटी देना जिन्होंने 6 वर्ष से अधिक उस पर खेती की हो।
2. काश्तकारों द्वारा दिए गए लगान को एक उचित स्तर पर लाना जो कुल उत्पादन के 1/4 से 1/6 के बीच था।
3. काश्तकार को उसके द्वारा जोती गई जमीन के स्वामित्व का अधिकार मिलना। लेकिन इसमें कुछ सीमाएं थी। जिसमें लगान अदा करना तथा बाजार भाव की स्थिति से उसे तारतम्य स्थापित करना ।
काश्तकारों की स्थिति सुधारने की कोशिश से भारत के काश्तकारी कानूनों ने आम तौर पर भू-स्वामी खासकर छोटे भू-स्वामी और काश्तकार के हितों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयत्न किया। भारत के अधिकतर हिस्सों में अनुप स्थित भू-स्वामियों द्वारा किए व्यक्तिगत खेती का काम आरम्भ करने की स्वीकृति दी गई। साथ में काश्तकारों को जोती जा रही जमीन का अधिकार भी दिया गया। यह व्यवस्था हदबंदियों और स्तरों के विभिन्न संतुलनों की जटिल प्रणाली के जरिए काम कर रही थी।
जमीन पर अनुपस्थित भू-स्वामी का अधिकार फिर से स्थापित करने की सीमा तय की गई। यह प्रश्न बड़े भू-स्वा. मियों से संबंधित था। प्रत्येक राज्य द्वारा तय की गई एक विशेष सीमा से अधिक फिर खेती आरंभ नहीं की जा सकती थी। प्रथम योजना से पारिवारिक भू-संपत्ति की तीन गुना की सीमा तय की गई। पारिवारिक भू-संपत्ति का अर्थ एक हाथ द्वारा जोती जाने वाली भूमि तथा पाया गया फिर भी खेती प्रारंभ करके भू-स्वामी काश्तकार से सारी जमीन वापस नहीं ले सकता था। केरल, उड़ीसा, गुजराज हिमालय प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में काश्तकार के लिए उसे दी गई जमीन का कम-से-कम आधा छोड़ा जाना चाहिए था। बिहार जैसे कुछ राज्यों में काश्तकरी की जोत का आधा या कम से कम 5 एकड़ इनमें से जो भी कम हो । प० बंगाल में 2ऋ एकड़ सीमा थी।
इसके विपरीत, छोटे भूस्वामियों हक में यह निर्णय लिया गया कि भू-स्वामी की सारी जर्म नहीं ली जानी चाहिए और काश्तकार की जमीन प्रत्येक राज्य द्वारा तय हदबंदी से अधिक नहीं होनी चाहिए।
दूसरी पंचवर्षीय योजना में यह कहा गया कि "छोटे किसानों की आर्थिक परिस्थितियां काश्तकारों से इतनी अलग नहीं है कि काश्तकारी कानून उन्हें हानि पहुंचाए। इसलिए इस योजना में यह कहा गया कि बहुत छोटे भू-स्वामी अपनी भारी जमीन पर फिर से खुद खेती कर सकते थे। लेकिन काश्तकारी कानूनों का वास्तविक अमल कहीं अधिक जटिल था। "
तीसरी योजना में यह भी कहा गया कि बड़े भू-स्वामी ने अपनी जमीने संबंधियों एवं अन्य लोगों के नाम लिख दी। जिससे वे छोटे भू-स्वामी कहलाएं। फिर उन्होंने छोटे मालिकों के लिए बनाए गए कानूनों का प्रयोग इन जमीनों से काश्तकारों को बेदखल करने के लिए किया।
विपीन चन्द्रा काश्तकारी सुधार के मामलों में लिखते हैं कि "बेदखली के विरोध में कानूनी संरक्षण मिलने से पहले ही काश्तकारों को बड़े पैमाने पर बेदखल किया जाने लगा। उदाहरण के लिए, भूभि सुधार संबंधी योजना। कमिशन के पैमाना ने 1956 में नोट किया कि 1948 तथा 1951 के बीच संरक्षित काश्तक की संख्या बताई राज्य में 17 लाख से हटकर 13 लाख हो गई अर्थात 23 प्रतिशत की गिरावट आई । हैदराबाद संबंधी एक और विस्तृत अध्ययन में पाया गया कि 1951 में संरक्षण पाए प्रत्येक 100 काश्तकारों में 1954 में मात्र 45.4 प्रतिशत ही अपनी स्थिति बनाए रख पाए। 12.4 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण के अधिकार का प्रयोग करके भू-स्वामी बन गए। 2.6 प्रतिशत को कानूनी तरीके से बेदखल किये गये तथा 22.1 प्रतिशत को गैर कानूनी तरीके से बेदखल किया गया और 17.5 प्रतिशत ने जमीन पर अपना अधिकार स्वयं ही छोड़ दिया। लेकिन यह स्वयं ही छोड़ने की बात वास्तव में धमकी देकर निकाल बाहर करने के एक आवरण मात्र था।
यह तरीका इतना व्यापक हो गया कि चौथी योजना में यह कहना पड़ा कि सारी बची जमीनें सरकार को ही सौपी जाए, तो फिर उचित व्यक्तियों को इसका बंटवारा करेगी। कुछ ही राज्यों ने इसे माना। " काश्तकारी कानून की विफलता के बाद लगभग 67.8 प्रतिशत काश्तकार अब सुरक्षित थे। कई जगह तो काश्तकारी चुपचाप तौर पर चलती रही। भूमि सुधार के समय में काश्तकारों को बटाईदार में बदल दिया जाता था। लेकिन यह सही है कि बटाईदरों को काश्तकार नहीं माना जाता था। इसलिए कुछ राज्यों में काश्तकारी कानून के तहत उन्हें कोई सुरक्षा नहीं मिलती।
यह बात साफ कर देना आवश्यक है कि अब पैसे के रूप में लगान देने वालों को ही काश्तकार माना जाता था और अनाज में लगान देने वालों को काश्तकार का दर्जा नहीं दिया जाता था। बटाईदार को भी काश्तकार नहीं माना जाता था। काश्तकारों की असुरक्षा का सबसे बड़ा कारण अधिकतर काश्तकारी का मौखिक एवं अनौपचारिक होना था। काश्तकारी के बारे में कोई रिकॉर्ड लिखित तौर पर नहीं था। अब कानून के बाद भी इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता दिखा।
1971 में जब जनसंख्या जनगणना की रिपोर्ट आयी उसमें यह पाया गया कि उपज की जमीन का 91.6 प्रतिशत मालिकों को जोत के तहत है। बिहार में यह तो 99.6 प्रतिशत के आस-पास था जो अन्य सभी राज्यों के मुकाबले कहीं अधिक था। बिहार में तो रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि मात्र 0.22 प्रतिशत खेती बटाईदार लायक है तथा कुल जोती जाने वाली जमीन का मात्र 0.17 प्रतिशत है। 1961 की जनगणना में यह आंकड़ा 36.65 बताया जा रहा था। 1961 और 1971 की जनगणनाओं के बीच कोई अधिक काश्तकारियों का रिकॉर्ड नहीं किया जाना इसी का कारण बइ गई। इसका परिण शाम यह हुआ कि काश्तकार असुरक्षित ही रह गए। 1961 के जनगणना के अनुसार देश की 82 प्रतिशत काश्तकारियां असुरक्षित रह गई थी |
उचित रिकॉर्ड का न होना यू०पी० में जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार एक्ट के आरंभिक वर्षों में अनाज में कमी बड़ी बाधा साबित हुई तत्कालीन राजस्व मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इसके लिए बड़ा कदम उठाया। बाद के वर्षों में कुछ क्षेत्रों में ऐसे अभियान वामपंथियों की पहल पर चलाए गए। इसके कारण सभी तरह के काश्तकारों को बहुत लाभ हुए। इसके उदाहरण केरल और पश्चिम बंगाल में भी मिलते हैं। केरल में झोपड़पट्टी में रहने वालों को पट्टा देने का व्यापक अभियान चलाया गया। यह अभियान काफी सक्षम रहा। इसमें किसान संगठन काफी सक्रिय रहे।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार ने 1977 के जून में जब आया तो बरगा अभियान चलाया गया। जिसे 'ऑपरेशन बरगा' कहा गया। एक विशेष अवधि के अंदर अंदर बरगादारों का पंजीयन करना जिससे कि वे अपने कानूनी अधिकार प्राप्त कर सकें।
ये अधिकार थे–स्थायी जोत तथा उसके उत्तराधिकार का अधिकार और भू-स्वामी तथा बटाईदार के बीच फसल का 1:3 का बंटवारा। पश्चिम बंगाल में अनुमानित 24 लाख बरगादरों में से जून 1978 तक सिर्फ 4 लाख रिकॉर्ड किए गए थे। लेकिन बरगा अभियान के रिकॉर्ड किए गए बरगादार की संख्या अक्तूबर 1979 में 7 लाख से बढ़कर नवम्बर, 1990 में करीब 14 लाख हो गई।
केरल की तरह पश्चिम बंगाल में बरगा अभियान का एक और महत्वपूर्ण पहलू ग्रामीण क्षेत्र की अभावग्रस्त जनता को इसके समर्थन में लाना था। इनमें खास स्तर पर बदगादार शामिल थे, जिन्हें इससे फायदा पहुंचा था। सुधारों की प्रक्रिया में उनका समर्थन विशेष तौर पर लिया गया। इसके सुधारों में बाधा पहुंचाने वालों, खास तौर से पटवारियों जैसे निन्म-स्तरीय राजस्व विभागीय अधिकारियों पर लगाम लगाने में हर संभव मदद मिली। पश्चिम बंगाल में गरीबों को अधिक जागरुक तथा राजस्व अधिकारियों की सोच में परिवर्तन के लिए अच्छा तरीका अपनाया। उसने बरगा अभियान के दौरान प्रशिक्षण कैंप लगाए जिनमें 30 से 40 खेतिहर मजदूर और बरगादार तथा 10-15 भूमि सुधार एवं अन्य विभागों के अधिकारी भाग लेते। वे सभी सुदूर ग्रामीण इलाकों में एक साथ एक ही जगह रहते, खाते पीते थे, विचार-विमर्शकरते थे। इनसे इन दोनों समूहों के बीच समन्वय बन गया।
आरम्भ में इस अभियान के परिणाम में बहुत बड़े स्तर पर बरगादारों को रिकॉर्ड किया गया। और उन्हें उसी प्रकार सुरक्षा मिली। लेकिन यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। 50 प्रतिशत के ऊपर काम होने पर यह प्रक्रिया रुक गई। इसके पीछे बहुत बड़े कारण थे। एक इसे आगे जारी रखना राजनैतिक रूप से हानिकारक और नैतिक रूप से असमर्थनीय पाया गया। यह तब हुआ जब भू स्वामी अपने अधिकार को लेकर सामने आने लगे। इन भू-स्वामी को भी उत्पाद का एक मात्र एक चौथाई मिलता था बाकी हिस्सा बरगादारों को देना पड़ता था।
“ पश्चिम बंगाल में देखा गया कि सामान्य रूप से छोटे खेतिहरों की संख्या बड़े स्तर पर थी। जिनके पास 5 एकड़ से भी कम जमीन थी। ऐसी स्थिति में बंटवारे संबंधी आगे कदम उठाना कठिन था।" 'वर्ग दुश्मन' छोटी जोतों के समुद्र में विलीन हो गया। यहां भी वही दुविधा थी जो भारत के अन्य भागों में थी, अर्थात् छोटे मालिकों और काश्तकारों के हितों के बीच संतुलन बनाए रखना। जैसा कि हम कह चुके हैं, काश्तकारी कानून में आम तौर पर कम पहलू का ध्यान रखा गया है और उसी अनुसार कानून में प्रावधान किए गए हैं। (विपीन चन्द्रा के अनुसार)
पश्चिम बंगाल में कुछ और समस्याएं थीं। जैसे- भूमि व्यक्ति कर अनुपात । बंगाल में यह समस्या ऐसे रूप में थी जिसमें भू-स्वामी एक ही जमीन के हिस्से को एक से अधिक बरगादारों को बारी-बारी से बटाई पर देता था। इस प्रकार काश्तकारी अधिकारों के एक से अधिक दावेदार होते थे। एक को पंजीकृत करता तो दूसरा बाहर हो जाता। इसके अलावा ऐसी स्थिति में यदि सारे बरगादार को पंजीकृत किया जाता तो प्रति खेतिहर जोत का आकार अनुत्पादक हो सकता था। इन कारणों से बरगा अभियान की राजनीतिक एवं आर्थिक सीमाएं थीं। वस्तुगत परिस्थितियां जोतने वालों को जमीनें देने या हर जोतदार को पूर्ण सुरक्षा देने के पूरी तरह अनुसार नहीं थी।
काश्तकारी सुधारों की सफलता समिति ही रही। सभी काश्तकारों को सुरक्षा नहीं मिल सकी। केरल और पश्चिम बंगाल में काश्तकारों को सुरक्षा तो मिली पर अभी भी बहुत ऐसे थे जो असुरक्षित थे। केरल और बंगाल में सफलता के बावजूद बिना सुरक्षा के काश्तकारी, देश के अधिकतर भागों में जारी रही। सही तौर पर अधिकतर कठगेना (ठीका) पैसे पर था । बटाईदारी (अनाज का 1/2) चलती रही बड़ी संख्या में असुरक्षित काश्तकारों के बने रहने से काश्तकारी कानून का दूसरा उद्देश्य, अर्थात् भू- कर को 'उचित' स्तर पर लाना, पूरा करना लगभग असंभव हो गया। बाजार की स्थिति अर्थात् प्रतिफल भूमि व्यक्ति अनुपात के कारण जो औपनिवेशिक भारत उत्पन्न हुआ, भू- कर बढ़ने लगा। ऐसी स्थिति में कानूनी 'उचित' भू-कर केवल उन्हीं काश्तकारों पर लागू हो सकता था, जो सुरक्षित थे और जिन्हें जो कर अधिकार मिला हुआ था, मतलब उन्हें हटाया या बदला नहीं जा सकता था।
खेती करने वाले काश्तकारों द्वारा अदा किए जाने किराए को नियमित करने के विधान सभी राज्यों में बनाए गए। अधिकतर राज्यों ने प्रथम तथा द्वितीय योजनाओं द्वारा तय अधिकतर भूमि कर अपनाए अर्थात् कुल उत्पादन का 20 से 25 प्रतिशत। पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने करों को 33.2 तथा 40 प्रतिशत के बीच ही रखा। देश में औसतन यह उत्पादन के 50 प्रतिशत के आस-पास बना रहा। इतना ही नहीं, काश्तकार को कई बार उत्पादन के खर्चे आंशिक या पूर्ण रूप से उठाने पड़ते।
60 के दशक के अंत में देश के कुछ भागों में चल रही हरित क्रांति ने समस्या को और हवा दे दी। पंजाब में जहां हरित क्रांति का प्रभाव अधिक था, जमीन कर कीमते और किराए बढ़ने लगे। पंजाब में वे बढ़कर 70 प्रतिशत हो गए। सबसे गंभीर बात यह थी कि गरीब असुरक्षित काश्तकार या बटाईदार ही थे जिन्हें बाजार भाव अदा करना पड़ता था। सिर्फ काश्तकारों के वे ऊपरी तबके ही जिन्हें जोत के अधिकार मिल गए थे और जो अकसर ही भू-स्वामी से अलग पहचाने नहीं जा सकते थे, कानूनी किराए की आदायगी लागू करवा सकने की स्थिति में थे।
भारत में काश्तकारी कानून का तीसरा उद्देश्य काश्तकारों को स्वामित्व का अधिकार दिलवाना था। यह भी आंशिक रूप से ही लागू हो पाया। लेकिन जमींदारी उन्मूलन, काश्तकारी कानूनों और हदबंदी कानूनों को कुल मिलाकर काफी प्रभाव पड़ा। इसके कारण भूमि सुधारों के एक मुख्य उद्देश्य अर्थात् निवेश करने वाले तथा उत्पादक प्रगतिशील किसानों का तबका तैयार करने में काफी मदद मिली। भारत के भूमिक सुधारों के एक गहन अध्ययन से यह पता चला कि लाखों काश्तकार अब बालिन बन गए।
लगभग 2 करोड़ काश्तकार भू-स्वामी बन गए। कई अनुपस्थित जमींदार फिर से खेती में शामिल हुए और अपनी व्यक्तिगत खेती आरम्भ की। रैयतवारी इलाकों में तकरीबन आधे काश्तकार जैसे बंबई और गुजरात में भू-स्वामी बन गए। इसके अलावा करीब आधे (बम्बई में करीब 70 प्रतिशत) ऐसे जमीन का प्रयोग जिन पर काश्तकारों को बेदखल किया गया उन्हें पूर्व रैयवारी इलाकों में बहुत बड़ी संख्या में छोटे काश्तकारों को जोत का अधिकार मिला।
पश्चिम बंगाल जैसे भूतपूर्व जमींदारी इलाकों में भी करीब आधे बरगादारों को स्थायी जोत का अधिकार मिला। इनमें उन तीस से 50 लाख खेतिहरों को भी जोड़ा जाना चाहिए। जिन्हें हदबंदी से बची अतिरिक्त जमीन मिली।
काश्तकार और बटाईदार जिन्हें जोत के अधिकार मिले और जो कम दर वाले कर दे रहे थे, काश्तकार जिन्हें स्वामित्व के अधिकार मिले, भूमिहीन जिन्हें हदबंदी से फाजिल जमीन मिली, अनुपतिस्थित भू-स्वामी जो प्रत्यक्ष खेतिहर बने। इनमें से कई अब अपने स्रोतों या वित्तीय संस्थाओं से करों के आधार पर प्रगतिशील किसान बने। ये संस्थागत स्रोत अधिकाधिक गरीब किसानों के लिए उपलब्ध थे।
3. भूमि - हदबंदी
'भूमि - हदबंदी' भूमि सुधार का एक प्रमुख पक्ष था। इसका उद्देश्य भूमि का वितरण अधिक समान बनाना था। इस सवाल पर सामाजिक सहमति थी तो परन्तु यह सहमति बहुत कमजोर स्तर की थी। इसका प्रतिबिम्बित रूप भूमि हदबंदी को लागू करने में दिखा जब सामाजिक स्तर पर आंदोलन का सामना करना पड़ा।
नवम्बर 1947 में कांग्रेस ने एक आर्थिक समिति का गठन किया। यह समिति आर्थिक कार्यक्रम तैयार करने के लिए बनाई गई थी। यह समिति जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनाई गई थी। इस समिति ने सुझाव दिया कि भूमि कं. अधिकतम सीमा तय की जानी चाहिए। इस सीमा से अधिक भूमि का अधिग्रहण करके ग्राम सहकारिता को सौंप देन चाहिए। कांग्रेस की कृषि सुधार समिति ने जुलाई 1949 में रिपोर्ट पेश की जिसकी अध्यक्षता जे०सी० कुमात्या ने की थी। कहा कि भूमि-हदबंदी आवश्यक है। इस समिति ने आर्थिक हदबंदी का तीन गुना होने का सुझाव दिया था। आर्थिक हदबंदी वह हदबंदी थी जो खेतिहर को उचित जीवन स्तर प्रदान करे, सामान्य आकार के परिवार को पूर्ण रोजगार दे और हरेक किसान को दो बैल और हल दे।
अखिल भारतीय किसान सभा ने 1946 में प्रति भू-स्वामी 25 एकड़ की अधिकतम भू स्वामितत्व की सीमा का समर्थन किया था। कांग्रेस ने भी 1947 में भू-हदबंदी के बारे में सकारात्मक प्रतिक्रिया ही दी । प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह विशेष रूप से ख्याल रखा गया था कि किसी व्यक्ति द्वारा रखी जाने वाली भूमि की अधिकतम सीमा तय हो । इस योजना में सामान्यतः कुमारत्या समिति के द्वारा सुझायी गयी अधिकतम सीमा को सही माना। पर यह कहा कि 'अधिकतम सीमा' क्या हो? इसका फैसला राज्य अपने अनुसार करे। इसमें उन्होंने एक सहायता की तथा सलाह दी कि भूस्वामित्व और खेती संबंधी जानकारी जनगणना 1953 में प्रस्तावित है जिसके द्वारा इसके लिए विशेष आंकड़े मिल सकते हैं।
यह सही है कि उस समय अचानक से भूमि हदबंदी लागू करने का कोई कार्यक्रम नहीं था। प्रथम योजना का अंदाजा था कि आवश्यक सर्वे करने के लिए तथा हदबंदी कानून प्रभावशाली तरीके से लागू करवाने के लिए दो से तीन वर्षों की जरूरत होगी।
इसलिए इसमें अचरच नहीं कि आरम्भ में इसमें संबंधित संकल्प के प्रस्ताव के बाद भी स्वतंत्रता के बाद कुछ वर्षों में हदबंदी के सवाल पर अधिक प्रगति नहीं हुई। इसे कांग्रेस ने स्वीकार किया। 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद का गठन किया। इसके तहत नेहरू की अध्यक्षता में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री ने इस मामले पर चर्चा की। 1957 में राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थायी समिति ने तय किया कि उन राज्यों में हदबंदी संबंधी कार्य 1960 के अंत तक पूरा किया जाए जहां ऐसे कानून बनाए जा चुके थे और अन्य राज्यों में 1958-59 में इससे संबंधित कानून पास कर लिये जाएं।
1960 के आस-पास देश के विभिन्न भागों में विभिन्न संस्थानों के द्वारा हदबंदी का विरोध होने लगा था। जैसे-मी. डिया, संसद, राज्य विधानसभा, और इससे अधिक कांग्रेस के अंदर भी । भू-स्वामियों और शहरी निहित स्वार्थों को निजी संपत्ति के लिए खतरा दीख पड़ने की स्थिति आ गयी। कांग्रेस कमेटी की विशेष समिति ने हदबंदी का विरोध किया। इसके बावजूद नागपुर कांग्रेस अधिवेशन ने एक प्रस्ताव पास किया तथा कहा कि हदबंदी संबंधी कानून 1959 तक बन जाना चाहिए। इस अधिवेशन में यह भी कहा गया कि हदबंदी से बची जमीन पंजायतों को दी जानी चाहिए और उनका प्रबंधन भूमिहीन मजदूरों की सहकारी संस्थाएं करें।
इस अधिवेशन में लिए गए निर्णयों की आलोचना हुई तथा कांग्रेस संसदीय पार्टी के सचिव एम०सी० रंगा ने दिसम्बर, 1958 में संसद के 100 कांग्रेस सदस्यों द्वारा हस्तांतरित एक पत्र नेहरू को भेजा गया जिसमें हदबंदी का विरोध किया गया। फरवरी, 1959 में कांग्रेस से रंगा ने इस्तीफ दे दिया।
इतिहासकार विपीनचन्द्रा के अनुसार "नागपुर प्रस्ताव के फलस्वरूप देश के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में दक्षिणपंथी शक्तियों का काफी सुदृढ़ीकरण हुआ। एम०सी० रंगा और सी० राजगोपालाचारी ने भूमि हदबंदी तथा अनिवार्य सहकारिकता के खतरों से काफी चिंता व्यक्त थी। वे अब मीनु मसानी के साथ मिल गए तथा (Forum for free enterprise के नेता) जून, 1959 एक स्वतंत्रता पार्टी बनायी। जिसके अध्यक्ष रंगा थे। वे काश्तकार भी जिन्हें जमींदारी उन्मूलन से फायदा हुआ था और जब भू-स्वामी बन चुके थे। भूमि सुधार के अगले कदम के खिलाफ खड़े हो गए थे। यह कदम था हदबंदी से फाजिल जमीन का पुनर्वितरण ।" लेकिन हदबंदी कानूनों की विशेष सफलता राज्यों के स्तर पर ही मिली क्योंकि राज्यों में ही ये कानून बनाए और लागू किए जाते थे राज्य विधायिकाओं की बैठकें नागपुर अधिवेशन के बाद ही हुई। उन्होंने नागपुर प्रस्ताव लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इस प्रकार हदबंदी का सवाल टलता रहा। अधिकतर राज्यों ने इस दिशा में कानून 1961 के अंत तक ही बनाए, अर्थात् अधिकारिक तौर पर यह विचार पेश किए जाने के करीब 14 वर्षों बाद ही बनाए गए।
4. हदबंदी कानून की सीमाएं
हदबंदी कानून का प्रभाव प्रभावी रूप से नहीं पड़ा। जमीन के पुनर्वितरण के लिए बहुत कम जमीन निकल पाई। अधिकतर राज्यों में हदबंदी कानूनों के अंतर्गत कुछ कमियां रह गई। ऐसी स्थिति में जहां भारत में 70 प्रतिशत से अधिक भू-संपत्तियां 5 एकड़ से कम की थी, राज्यों द्वारा तय की गई हदबंदियां काफी अधिक थी। उदाहरणस्वरूप आंध्र प्रदेश में भूमि के स्वरूप के अनुसार 27 से 32 एकड़ के बीच थी। पंजाब में 30 से 60 एकड़ के बीच थी। बंगाल में 25 एकड़ थी। महाराष्ट्र में 18 एकड़ थी।
इसके अतिरिक्त अधिकतर राज्यों में हदबंदी व्यक्तिगत आधार पर लागू की गई ना कि पारिवारिक भू-संपत्ति के आधार पर। इससे जमीन के मालिकों को अपनी संपत्ति को हदबंदी से बचाने के लिए परिवार के सदस्यों को नाम अलग-अलग कर देने का मौका मिल गया। इसके अलावा कई राज्यों में हदबंदी, बढ़ाई भी जा सकती थी, जैसे- मध्य प्रदेश में 90 प्रतिशत केरल में 67 प्रतिशत मद्रास और महाराष्ट्र में 100 प्रतिशत, त्रिपुरा में 140 प्रतिशत, पर यह बढ़ाने की राय जब परिवार के सदस्य 5 से अधिक होते थे तब होती थी।
दूसरी पंचवर्षीय योजना ने यह सुझाव दिए कि भूमि की कुछ श्रेणियों को हदबंदी से छूट दी जा सकती है। इसका फायदा उठाकर अधिकतर राज्यों में बड़ी छूट दी गई। इनमें चाय, कॉफी तथा रबर के बगान, बगीचे, पशु-पालन से प्रजनन, दूध आदि के उत्पादन, ऊन उत्पादन इत्यादि से संबंधित विशेष फार्मों जैसी श्रेणियों से छूट दी गई।
इसका स्पष्ट उद्देश्य था कि बड़े स्तर पर प्रगतिशील तथा पूंजीधारी कृषि का विकास हो तथा जनता को उद्यमों से कृषि के द्वारा आय हो। इसके अलावा इसका उद्देश्य था काश्तकारों एवं बटाईदारों के जरिए भूमि स्वामियों का अनुपस्थित कर समाप्त करना। परन्तु उपरोक्त छूट अत्यधिक अजीबों गरीब थी। जैसे तमिलनाडु में 26 प्रकार की छूटें दी गयी थीं और इसके साथ अच्छी तरह प्रतिबंध फार्म की बात अपने में इतनी अस्पष्ट थी कि बड़ी संख्या में भू-स्वामियों ने स्वयं को अच्छा प्रबंधक दिखाकर छूटें हासिल कर ली । इसी प्रकार, सहकारिताओं की भूमि का भी दुरुपयोग किया गया। उदा. हरण के लिए मद्रास सरकार ने सहकारी फार्मों का प्रस्ताव रखा। इसके परिणामस्वरूप भूमि के स्वामी ने फर्जी सहकारी संस्थाएं बनाकर जमीन अपने आप हस्तांतरित कर ली। साथ ही कुछ ऐसे उदाहरण भी सामने आए जिसमें कम से कम कुछ भू स्वामियों ने भूमि खोने के खतरे से डरकर सचमुच अच्छी खेती की।
सबसे बड़ी बात यह कि हदबंदी कानून बनाने में बहुत देर होने से इसका उद्देश्य काफी हद तक पूरा नहीं हो पाया। इस देरी के कारण बड़े जमींदारों को अपनी जमीन को अपने सगे-संबंधी के नाम करने में आसानी हो गयी। इसके अलावा, भू-स्वामियों ने बड़े पैमानों पर काश्तकारों को बेदखलकर किया और अपनी खेती कम-से-कम हदबंदी सीमाओं तक फिर से नियमित कर ली। इसके अलावा इन्होंने अपनी देखरेख में प्रगतिशील खेती फिर से आरम्भ कर दी। इस प्रकार जब तक हदबंदी कानून लागू होने लगे, तब बहुत कम ही अतिरिक्त जमीन बच पा रही थी। इस प्रकार फिर से बंटवारे के लिए बहुत ही कम जमीन निकली इस तथ्य को कांग्रेस नेतृत्व तथा तीसरी योजना ने भी स्वीकार किया।
सत्य तो यह था कि 1961 तक अतिकतर राज्यों के द्वारा हदबंदी कानून पास कर दिया गया था। फिर भी 1970 तक बिहार, मैसूर, केरल, उड़ीसा, राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में एक भी एकड़ अतिरिक्त घोषित नहीं किया गया। आंध्र प्रदेश में मात्र 1400 एकड़ जमीन हदबंदी के बाद बची घोषित की गई, लेकिन कोई भी जमीन बांटी नहीं गई। सिर्फ जम्मू-कश्मीर ही ऐसा राज्य था जहां 1955 के मध्य तक हदबंदी कानून पूरी तरह लागू कर दिया गया। काश्तकारों और भूमिहीन मजदूरों की 2,30,000 एकड़ अतिरिक्त जमीन का बंटवारा किया गया और वह भी बिना मुआवजा दिए ।
देश के हरेक कोने में 1970 के अंत तक सिर्फ 24 लाख एकड़ जमीन अतिरिक्त घोषित की गई। बांटी गई जमीन इस जमीन का मात्र आधा थी, जो भारत में कुल जोती जाने वाली जमीन का मात्र 0.30 : थी। हदबंदी और भूमि - वितरण में खराब रिकॉर्ड तथा ग्रामीण क्षेत्र में 60 के दशक के मध्य में तेजी से बढ़ते ध्रुवीकरण की स्थिति में भूमि सुधार में नई पहल की जरूरत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वामी खेतिहर धनी किसानों के हितों का सुदृढीकरण हुआ। इसका प्रतिबिंब स्पष्ट राजनीतिक आवाज के रूप में हुआ । जैसे- भारतीय क्रांति दल की स्थापना । इसका निर्माण 1967 में यू०पी० में सी० बी० गुप्ता के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के गिरने के बाद चरण सिंह द्वारा किया गया था। बाद में बी०के०डी० का विलय स्वतंत्र पार्टी में हुआ तथा भारतीय लोकदल की स्थापना 1974 में हुई।
भारतीय लोकदल उस जनता दल का मुख्य हिस्सा था जो आपालकाल के बाद 1977 में सत्ता में आई । इस प्रकार स्वामी खेतिहर धनी किसानों के हितों का प्रभाव, जो अब तक राज्यों में दीख पड़ता था। अब केन्द्रीय था राष्ट्रीय स्तर पर महसूस किया जाने लगा।
1960 के दशक में तथा 1970 के आरम्भ में भूमि सुधार का दूसरा चरण आरम्भ हुआ। राष्ट्रीय विकास परिषद की भूमि सुधार अकाल कमिटी की बैठक जून 1964 में हुई। इसने मुख्यमंत्रियों को यह सलाह दी कि भूमि सुधार के कानून की कमियां दूर हो तथा यह प्रभावकारी ढंग से लागू हो ।
1970 ई० में इंदिरा गांधी ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में जोर देकर कहा कि भूमि सुधार की बची हुई परिस्थितियों पर सुधार किया जाए। श्रीमती गांधी ने कहा कि भूमि सुधार में किसानों, काश्तकारों, भूमिहीनों तथा मजदूरों को हिस्सा मिलना बहुत ही आवश्यक है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने खेती की नई साझेदारी में समाजवाद की स्थिति को बढ़ाने की वकालत की।
अधिकतर मुख्यमंत्रियों ने सम्मेलनों में अधिकतर हदबंदी की सीमा बढ़ाने से साफ इनकार कर दिया। अगर मगर की स्थिति में इस मामले को केन्द्रीय भूमि सुधार समिति के सुपुर्द किया गया। समिति के काम सम्मेलन में इस प्रकार तथा अन्य विवादस्पदविषयों पर विचार करना था।
केंद्रीय सुधार समिति (भूमि) ने 1971 में अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिए । इस सुझाव में हदबंदी सीमा घटाने, अच्छी या यंत्रीकृत फार्मों को दी गई रियायतें वापस लाने तथा व्यक्तियों के अनुसार बल्कि परिवारों के आधार पर हदबंदी लागू करने के सुझाव शामिल थे।
1971 के चुनाव में कांग्रेस की महान सफलता के बाद मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में राष्ट्रीय मार्गदर्शन तैयार हुआ तथा भारत में हदबंदी कानून के मुख्य बिन्दुओं पर सहमति बनी। जैसे:
1. दो फसलों वाली नियमित सिंचाई की भूमि पर हदबंदी 10 से 18 एकड़ के बीच तय की गई ।
2. एक फसल वाली के लिए 27 एकड़
3. निम्न स्तर पर 54 एकड़
4. दृढ़बंदी के लिए 5 स्तर पर 5 सदस्यों के एक परिवार को सीमा माना गया।
5. एक फसल वाली खेती की हदबंदी 27 एकड़ को माना गया।
6. हदबंदी से जो जमीन बची वहां बंटवारे के भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को प्राथमिकता दी गई।
7. अतिरिक्त भूमि के लिए मुआवजा बाजार के भाव से काफी कम तय किया गया।
अब अधिकतर राज्यों ने इस संशोधित हदबंदी कानून को नया रूप से दिया। फिर भी हदबंदी को एक मजबूरी ही माना जा रहा था। पूरे देश में हदबंदी से जुड़े हुए मुकदमे चल रहे थे। सिर्फ आंध्र प्रदेश में ही लाखों मुकदमे चल रहे थे। इन झंझावातों से बचने के लिए सरकार ने संसद में 1974 में 34वां संविधान संशोधन पास करवाया । इसे पानी - हद. बंदी कानूनों की 9वीं अनुसूची में शामिल करवाया गया। जिससे कोई इसे संवैधानिक अधिकार पर चुनौती न दे सके। इसी काम ने पूरे देश में लगभग 22 लाख एकड़ से ऊपर जमीन बांटी गयी। लगभग करोड़ों जमीन बचा ली गई तथा इधर- उधर कर दी गई।
मार्च 1985 तक 72 लाख एकड़ जमीन अतिरिक्त थी। इसमें से 43 लाख एकड़ 33 लाख लोगों में बांट दी गयी। हदबंदी कानूनों को लागू करने के संबंध में भारी विभिन्नता अलग-अलग राज्यों में थी। जिन राज्यों में किसान जागरुक थे, वहां अधिक ही लाभ मिला।
हदबंदी कानून के कारण भू-बाजार खत्म हो गया तथा संकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया रुक गयी । पुनर्वितरण के लिए बड़े पैमाने पर अतिरिक्त भूमि अतिगृहित करने की स्थिति देर से बनी तथा गलत भी थी। अब पीढ़ी बढ़ने तथा बदलने से जमीन के टुकड़े होने लगे तथा धीरे-धीरे जोतों का आकार छोटा होता चला गया। अब देश के कुछ हिस्सों को छोड़कर जमींदारी शब्द भूतकाल की बात हो गई ।
अभी भी भारत में कृषि जमीन पर वितरण सही तौर पर नहीं है तथा ऊपर से विकास के नाम पर तथा शहरीकरण के नाम पर भूमि-अधिग्रहण काफी अधिक हो जाता है। सरकार ने उस समय परिस्थितियों से सीख लेकर किसानों को लगातार भूमि मुहैया कराने की बात की है फिर भी कृषिगत स्तर पर छोटे किसान बटाई वाली जमीन से ही अपनी खेती चलाते हैं। सरकार के द्वारा ऐसे किसानों को ग्रामीण स्तर पर खेती के अलावा रोजगार, पशुपालन, बागवानी तथा वृक्षारोपण का भी कार्य दिया जा रहा है। दूसरे भाग में हम भू-दान-आंदोलन और सहकारिता तथा हरित क्रांति की चर्चा करेंगे।
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