General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | गुप्तोत्तर काल

गुप्तोत्तर काल में गुप्त साम्राज्य के गुप्त अवशेष पर उत्तर भारत में कई सारे राजवंशों का उदय हुआ ।

General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | गुप्तोत्तर काल

General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | गुप्तोत्तर काल

गुप्तोत्तर काल

गुप्तोत्तर काल में गुप्त साम्राज्य के गुप्त अवशेष पर उत्तर भारत में कई सारे राजवंशों का उदय हुआ ।
जैसे-
(1) थानेश्वर (हरियाणा)- वर्धन वंश
(2) कन्नौज (उत्तरप्रदेश)- मैखरी वंश
(3) पल्लभी (गुजरात) - मैत्रक वंश
(4) पंजाब- हुण वंश
(5) बंगाल- चंद्रवंश
(6) मालवा (मध्यप्रदेश ) - यशोधर्मन वंश
(7) कामरूप / प्रांता ज्येतिषपुर (असम) - वर्मन वंश

-: वर्धन वंश :-

इस वंश की स्थापना पुष्सभूतिवर्द्धन ने किया और उन्होनें अपनी राजधानी थानेश्वर को बनाया । इस वंश के प्रथम प्रभावशाली शासक के रूप में प्रभाकर वर्ध्दन का वर्णन मिलता है । जिन्होनें सर्वप्रथम परमभट्टारक और महराजाधिराज जैसी उपाधि धारण किया। इनकी पत्नी यशोमति थी, जिनसे इन्हें दो पुत्र राजवर्द्धन और हर्षवर्द्धन तथा एक पुत्री राज्यश्री की प्राप्ति हुई ।
राज्यग्री का विवाह कन्नौज के मोखरी वंश के शासक ग्रहवर्मा के साथ हुआ । ग्रहवर्मा की हत्या मालवा के शासक देवगुप्त ने कर दिया और राज्यग्री को बना लिया तत्पश्चात् राजवर्द्धन ने देवगुप्त की हत्या कर दिया लेकिन शंशांक के द्वारा धोखा से राज्यवर्द्धन मारा गया । अशोक कट्टर शैव धर्माम्वलंबी था। जिन्होनें बोध गया के बोधी वृक्ष को कटवा दिया ।

-: हर्षवर्धन (606–647) :-

हर्षवर्धन को अंतिम हिन्दू शासक माना जाता है तथा इनके निधन को भारतीय इतिहास के परिवर्तन बिन्दू की संज्ञा इतिहासकार V. A स्मिथ ने दिया ।
हर्षवर्धन 606 ई. में गद्दी पर बैठा था। इनका शासन 647 ई. तक रहा। यह अंतिम हिन्दू साम्राज्य था जो पूरे उत्तर भारत पर शासन किया था । हर्षवर्धन को शीलादित्य के नाम से भी जाना जाता है । हर्षवर्धन ने 611 ई. में कन्नौज (उत्तरप्रदेश) को अपनी राजधानी बनाया। हर्षवर्धन के काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग 629 ई. में भारत की यात्रा पर आया था। ह्वेनसांग को यात्रियों में राजकुमार निती का पंडित तथा वर्तमान शाक्य मुनी के नाम से जाना जाता है। हवेनसांग बौद्ध धर्म से संबंधित विषय में जानकारी एकत्रित करने के लिए भारत आया था ।
उन्हानें नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन और अध्यापन का काम किया था। हवेनसांग के समय नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य शीलभद्र थें। आज भी हमलोग हवेसांग को उनकी रचना सी-यू-की के लिए याद करते हैं। इस ग्रंथ से हमें हर्षकालीन भारत के बारें में जानकारी मिलती है। हवेसांग ने हर्षवर्धन को वैश्य जाति का बताया है तथा हवेसांग ने आरोप लगाया है कि हर्षकालीन भारत में चोर और डाकुओं का बोलबाला है। हर्षवर्धन, पूरे उत्तर भारत के उपर शासन किया। इसके साम्राज्य में मात्र एक उत्तर भारतीय राज्य कश्मीर शामिल नहीं था । हर्षवर्धन बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय को मानता हर्षवर्धन प्रत्येक 5 वर्षो पर प्रयाग में एक धार्मिक सभा का आयोजन किया करता था जिसे महामोक्षपरिषद कहा जाता है। हर्षवर्धन के शासन काल में बौद्ध धर्म का एक सम्मेलन कन्नौज में हुआ जिसे 5वीं बौद्ध सम्मेलन का संज्ञा दिया जाता है । इस सम्मेलन में हर्षवर्धन ने बौद्ध भिक्षुओं को काफी दान में दिया था। 
हर्षवर्धन पूरे उत्तर भारत को जीतने के बाद दक्षिण भारत को जीतने की चेष्टा किया इसी क्रम में हर्षवर्धन नर्मदा नदी के पर हर्षवर्धन और चालुक्य वंशी शासक पुलकेशीन द्वितीय के बीच युध् हुआ। जिसमें हर्षवर्धन को पराजय सामना करना पड़ा। इस युद्ध के विषय में जानकारी हमें एहोल प्रस्सति अभिलेख से मिलती है। जिसकी रचना पुलकेशीन द्वितीय के राजकवि रविकृति ने संस्कृत भाषा में किया ।
हर्षवर्धन एक विद्वान शासक था जिन्होनें प्रिय-दर्शिका, नागानंद और रत्नावली नामक ग्रंथ की रचना किया। इनके दरबारी कवि वाणभट्ट था जिन्होनें हर्षचरित, कादम्बरी नामक ग्रंथ की रचना किया। जिससे हमें हर्षकालीन भारतीय साम्राज्य की जानकारी प्राप्त होती है। इनके शासनकाल में मथुरा सुती वस्त्र उद्योग का प्रमुख केंद्र था ।
हर्ष के प्रशासन में अवन्ति युद्ध एवं शांति का अधिकारी था। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारीः-
(1) सिघानंद - सेनापति 
(2) कुन्तल - अश्वसेना का प्रधान
(3) स्कंदगुप्त- हस्तसेना का प्रधान
(4) सामत महाराज - नागरिक प्रशासन का प्रमुख
हर्ष 641 ई. में अपना दुत चीन भेजा तत्पश्चात् 643 और 645 ई. में चीनी दुत भारत की यात्रा पर आया। हर्ष का निधन 647 ई. में हो गया इसके निधन को भारतीय इतिहास में एक परिवर्तन बिंदु की संज्ञा दी जाती है । हर्ष का कोई अपना पुत्र नहीं था । उसके उत्तराधिकारी के रूप में अजून नामक स्थनीय अधिकारी का वर्णन मिलता है। जो काफी अयोग्य था इसी कारण कुछ ही दिनों के पश्चात् वर्धन वंश का पतन हो गया।
नोट- पाँचवी बौद्ध सम्मेलन कन्नौज (रप्रदेश) हुआ था ।
शशांक की मृत्यु 616 ई. में हो गई।
चीनी यात्री हवेनसांग बताया है कि हर्ष की राजकीय आय चार भागों में बाँटी जाती थी । एक भाग राजा के खर्चे के खर्चे के लिए रखा जाता था, दूसरा भाग विद्वानों के लिए, तीसरा भाग पदाधिकारियों के लिए और चौथा भाग धार्मिक कार्यो के लिए । उसने यह भी बताया है कि राज्य के मंत्री और ऊँचे अधिकारियों को जागीर दी जाती थी । लगता है, अधिकारियों को वेतन और पुरस्कार के रूप में भूमि देने की सामंती प्रथा हर्ष ही शुरू की ।

-: दक्षिण भारत का इतिहास :-

-: संगम काल (100 ई से 250 ई.) :-

संगम का अर्थ सभा, परिषद या संगोष्ठि होता है। यह एक तमिल भाषा का शब्द है।
संगम काल के विषय में जानकारी हमें संगम साहित्य से मिलती है जिसकी रचना तीन संगमों के दौरान हुआ ।

प्रथम संगम

  • स्थल- मदुरै (तामिलनाडु)
  • अध्यक्ष- अंगरत्त ऋषि
  • सदस्य - 89
  • अवधि - 4400 वर्ष
  • उपलब्ध ग्रंथ— नहीं है । (क्योंकि मदुरै शहर समुद्र में विलीन हो जाने के कारण )

द्वितीय संगम

  • स्थल- कटापुरम
  • अध्यक्ष– अगत ऋषि लेकिन बाद में उनका शिष्य तोलका - पिय्यर बना ।
  • सदस्य- 59
  • अवधि - 3700
  • उपलब्ध ग्रंथ— तौलकापियम, जो एक तमिल व्याकरण ग्रंथ है जिसकी रचना तोलकापियर द्वारा किया गया है।

तृतीय संगम

  • स्थल- उत्तरी मदुरै
  • अध्यक्ष- नककीरर
  • सदस्य- 49
  • अवधि - 1850
तीनों संगमों को संरक्षण पाण्ड्य शासकों ने दिया था ।
संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि दक्षिण में आर्य सभ्यता का प्रसार ऋषि अगस्त ने किया । इनका जन्म काशी में हुआ था। इन्हें “तलिल साहित्य के जनक" के रूप में जाना जाता है ।
तमिल प्रदेश के विषय में जानकारी हमें तमिल महाकाव्य से मिलती है ।
(1) शिल्पादिकारमः-
  • रचियेताः- इलांगेअदिगंल (चेर शासक शेन गुट्टबन का भाई) 
♦ इससे हमें (पाजेबा पायल) की कहानी का विवरण मिलता है ।
  • नायक:- केवलम् (वसाय)
  • सहनायक:- नडुजेलियन
  • नायिकाः– कण्णगी (कन्या)
  • सह–नायिकाः- माधवी (वेश्या)
इसकी कथा कावेरीपट्टनम से संबंधित है।
शिल्पादिकारम् को तमिल साहित्य का इलियड माना जाता है। इस ग्रंथ का संबंधता बौद्ध धर्म से है ।
(2) मणिमेखलै (मणियुक्त कंगन):-
  • लेखकः- सीतलैसतनार
  • नायिकाः- मणिमेखलै (माधवी की पुत्री (बौद्ध भिक्षुणी बन गई ) (माधवी की भी पुत्री)
  • नायक:- उदयन कुमार / अक्षय कुमार
यह ग्रंथ भी बौद्ध ग्रंथ से संबंधित है।
इस ग्रंथ को तमिल साहित्य का ओडीसी कहा जाता है।
(3) जीवक चिंतामणिः-
  • लेखक:- तिरूतकक देवर (जैन सन्यासी)
  • नायक:- जीवक
  • नायिकाः- चिंतामणि 
यह जैन धर्म से प्रभावित ग्रंथ है । 

-: संगमकालीन राजनीतिक इतिहास:-

संगमकाल नें तीन महत्वपूर्ण राज्य का विवरण मिलता है ।
(1) चेर (2) चोल (3) पाण्डय
(1) चेर:-
चेर शब्द की उत्पत्ति तमिल शब्द चेरल से हुई है जिसका अर्थ पर्वतीय देश होता है । चेर राजा चेरतलन ( पर्वतीय देश का स्वामी) कहलाते थें ।
संगम कालीन राज्यों में सबसे प्राचीन चेर राज्य था जो वर्तमान केरल में स्थित है। चेर राज्य के बारें में पहली जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में मिलती है। इसमें चेर के लिए चेरापदा नाम आया है।
चेर राज्य की राज्यधानी वंधि (केरल) थी जबकि राजकीय चिन्ह तीर-धनुष था। इसका दो महत्वपूर्ण बंदरगाह (1) मुजरिस ( 2 ) तोण्डी था ।
चेर राज्य का संस्थापक उदयिन जेरल था। (इसका काल लगभग 130 ई माना जाता है। इनके विषय में कहा गया है कि इन्होनें महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले योद्धा को भोजन करवाया इसी कारण इसे महाभोजन उदयिन जेरल की उपाधि दी गई है।
चेर वंश के सबसे महान शासक के रूप में शेनगट्टवन या धर्म परायण गुट्टवन का विवरण मिलता है। इसे लाल चेर के नाम से भी जाना जाता है। इन्होनें सती पुजा या पत्नी पुजा की शुरूआत किया तथा कण्णगी के मंदिर का निर्माण करवाया । चेर शासक आदिग इमान को दक्षिण में गन्ने की खेती प्ररंभ का श्रेय प्राप्त है। अंतिम शासक सैईयै ( 210 ई)
मामुलनार ने उल्लेख किया है कि पनदोंग ने अपनी केस गंगा की धारा में छिपा रखा था।

-: पाण्डय वश :-

पाण्ड्य का शाब्दिक अर्थ प्राचीन प्रदेश होता है। इस राज्य का वर्णन सर्वप्रथम मेगास्थनीज के ग्रंथ में माबर नाम से किया गया है। मेगास्थनीज के अनुसार यह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। पाण्ड्य राज्य की राजधानी मदुरै। इसका प्रतीक चिन्ह मछली था। 
प्रमुख शासक:-
पाण्ड्य वंश का संस्थापक नेडियोन था। नेडियोन का अर्थ लम्बा आदमी होता है। नेडियोन ने पहरूली नदी को अस्तित्व को प्रदान किया तथा समंद्र पुजा प्रारंभ किया ।
इस वंश का सबणे महान शासक नेडुजेलियन था । इन्होनें तलैया लंगानम् ( 290 ई.) के युहद में चेर और चोल राजा को पराजित किया। चेर शासक शेय (हाथ की आँख वाला) को पाण्ड्य बंदीगृह में डाल दिया । नककीरर जैसे विद्वान इनके दरबार में रहते थें। इन्होनें रोमन सम्राट अगस्टस के दरबार में अपना दूत भेजा था ।
इस वंश का अंतिम शासक नालिलवकौडन था ।

-: चोल :-

संगमकालीन राजवंशों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण चोल राजवंश था। चोल राज्य वर्तमान आंध्रप्रदेश और तामिलनाडु के क्षेत्र में स्थित था ।
चोल राज्य का राजकीय चिन्ह बाघ था। इस राजवंश के राजधानी के रूप में उड़ैयूर या तंजाबूर का विवरण मिलता है। इसकी सबसे प्रसिद्ध बंदरगाह कावेरोपटनम थी जिसे पुहार भी कहते थें ।
संस्थापकः- इलनजेतचेन्नी
सबसे महान शासक- कारिफाल ने बेन्नी के युद्ध में 11 राजाओं के संगठन पराजित किया साथ ही ही कारगील ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर वहाँ से 1.50 लाख युद्ध बंदियों को पकड़कर भारत लाया और उसी के सहायता से कावेरी पट्नम बंदरगाह का निर्माण करवाया ।
रूद्रण- पहिनपल्लै
करिकाल के निधन के साथ ही चोल साम्राज्य का पतन शुरू हो गया ।
संगम साहित्य को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) पत्थुधातुः-
यह 10 संक्षिप्त पदों का संग्रह है। इन संक्षिप्त पदों में पाण्ड्य राजा नेडुजेलियन और चोल राजा कारगिल के विषय में जानकारी मिलती है । (दूसरी सदी)
(2) इत्युथौक:-
यह आठ कविताओं का संग्रह है।
(3) पदिनेनकीलकन्कुः-
यह 18 छोटी कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं में तिरुवल्लुवर द्वारा रचित कुरल या तिरुककरल उत्कृष्ट रचना है। इस रचना में राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, आचारशास्त्र और प्रेम जैसे विषय सम्मिलित है ।
तमिल में प्रेम संबंधी मानवीय पहलू पर आधारित रचनाओं को "आगम' तथा राजाओं की प्रशंसा, साताजिक जीवन, नैतिकता, वीरता संबंधी रचनाओं को "पुरम" कहा जाता था ।
संगम युग में उड़ैयूर कपास के व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र होने के कारण विख्यात था ।
तिरूवल्लुवर की रचना "कुरल" को तमिल भूमि का बाईबिल कहा जाता है। इसे तमिल ग्रंथों में लघुवेद भी कहा जाता है।
प्राचीनतम तमिल देवता मरूगन कर्तिकेय रेंद के समान थें ।

-: चोल साम्राज्य (9वीं से 12वीं शताब्दी) :-

9वीं शताब्दी ई. के मध्य में दक्षिण भारत में चोल सम्राज्य की स्थापना विजयालय ने किया इसीलिए विजयालय को चोल साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है।
चोल शासक पल्लवों के सामंत थें।
विजयालय (850-575) ने तंजौर (तामिलनाडु) को अपनी राजधानी बनाया ।
विजयालय देवी दुर्गा का उपासक था । उन्होनें ने तंजौर में देवी दुर्गा का एक मंदिर बनवाया तथा स्वयं नरकेसरी की उपाधि धारण किया।
अगले शासक आदित्य प्रथमं ( 875-907 विजयालय का पुत्र)
आदित्य प्रथम (875–907):-
इन्होनें पल्लव शासक से तोण्डमण्डलम् का क्षेत्र छीन लिया और कोदण्डराम की उपाधि धारण किया।
अगले शासक - परातक प्रथम (907 - 953 आदित्य प्रथम का पुत्र)
परातक प्रथम (907-953):-
इन्होनें पाण्ड्य शासक से मदुरै छीन लिया एवं मदरईकोण की उपाधि धारण किया। इसके वाद मुडरादित्य, परान्तक द्वितीय और उत्तम चोल वंश के शासक हुए।
राजराज प्रथम (985–1014) - परान्तक द्वितीय का था:
इसे अरिमोलिवर्मन के नाम से भी जाना जाता है, जो कि चोल साम्राज्य का प्रथम महान शासक था इन्होनें साम्राज्य विस्तार के लिए लौह एवं रक्त की नीति अपनाया । राजराज प्रथम ने चेर शासक, पाण्ड्य शासक और श्रीलंका के राजा महेंद्र पंचम को पराजित कर अपने साम्राज्य का काफी विस्तार किया ।
राजराज प्रथम श्रीलंका पर आक्रमण कर लगभग आधा उत्तरी श्रीलंका का विजय कर उसे अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया तथा इस जीते हुए क्षेत्रों का नाम मामुण्डी चोल-मंडलम रखा, इसकी राजधानी पोलो न्नरूवा (श्रीलंका) को बनाया जो वर्तमान में जननाथ मंगलम् के नाम से जाना जाता है। राजराज प्रथम शैव धर्म को मानता था । इन्होनें शिवपांदशेखर, मामुण्डीचोलदेव जैसी उपाधियाँ धारण किया ।
राजराज प्रथम ने अपनी राजधानी तंजौर में एक विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया जिसे वृहदेश्वर शिव मंदिर या राजराजेश्वर शिव मंदिर के नाम से जाना है ।
राजेन्द्र प्रथम ( 1014-1044) ( सबसे महान )
पूरे श्रीलंका को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया ।
बंगाल के उपर आक्रमण  किया | (महिपाल भाग गया ।)
बंगाल विजय के उपलक्ष्यः-
गंगईकोडचोलदेव की उपाधि धारण किया । तंजौर के बगल में गंगईकोंडचोलपुरम नामक नगर की स्थापना किया तथा तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। गंगईकोंडचोलपुरम में एक तालाब का निर्माण करवाया जिसमें गंगा दी के जल को डाला गया इसलिए इस तालाब को चोलगंगम के नाम से जाना जाता है ।
गडारकोंड की उपाधि धारण किया। 
राजेंद्र शैव ध क साथ ही चोल साम्राज्य का पतन होने लगा।
♦ विजयालय द्वारा स्थापित चोल चोल वंश के अंतिम शासक- ( 1070 - हत्या जनता ) 
अधिराजेंद्र इनसे पूर्व राजेंन्द्र द्वितीय इनका राज्याभिषेक युद्ध भूमि में हुआ ।
वेंगी के चालुक्य वंश के राजेद्र द्वितीय को कुलातुंग प्रथम (1070-1120) के नाम से गद्दी पर बैठाया ।
अंतिम शासक- राजेंद्र तृतीय (1279 में पाण्ड्य शासक की अधीनता स्वीकार लिया)

-: चोल प्रशासन :-

चोल काल में दो प्रकार के शासन व्यवस्था के विषय में जानकारी मिलती है।
(1) केंद्रीय प्रशासन (2) स्थानीय स्वशासन या ग्राम व्यवस्था
(1) केंद्रीय प्रशासन:-
चोलवंश में राजतंत्रात्मक एवं वंशानुगत शासन व्यवस्था का प्रचलन था ।
राजा को परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होता था जिसे उडनकुट्टन कहते थें ।
चोल काल में दो प्रकारी के अधिकारी वर्गो का विवरण मिलता है।
(1) परून्दरम्ः– यह उच्च स्तरीय अधिकारी होता था ।
(2) सेरून्द्ररम्:- यह निम्नस्तरीय अधिकारी होता था ।
पूरा साम्राज्य प्रांत में बँटा था ।

  • प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव था ।
गाँव दो प्रकार का होता था-
(1) बड़ा गाँव' - तनयूर
(2) छोटा गाँव - सिरूर
(2) स्थानीय स्वशासन या ग्राम प्रशासनः-
चेल कालीन व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण विशेषता स्थानीय स्वशासन या ग्राम प्रशासन था। चोल काल में तीन प्रकार के स्थानीय स्वशासन का विवरण मिलता है। I
(1) ऊर:-
इस काल में ऊर सर्वसाधारण के गाँव का संगठन था अर्थात जिस गाँव में सभी जाति के लोग रहते थें ।
(2) सभा या महासभाः-
सभा या महासभा ब्राह्मणों के गाँव का संगठन था ।
(3) नगुरम:-
इसका गठन व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्र में होता था ।

-: चोल कालीन संस्कृति और साहित्य:-

चोल काल में सर्वाधिक शासकों ने शैव धर्म को अपनाया। हलांकि इस समय शेव धर्म, वैष्णव धर्म, बौद्ध धर्म का भी व्यापक विकास हुआ ।
चोल शासक राजराज प्रथम ने तंजौर में वृहदेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया जिसे इतिहासकार पर्सी ब्राउन ने भारतीय वस्तुकला का निकर्ष कहा ।
राजराज प्रथम द्वारा निर्मित गंगईकोंडचोलपुरम के वृहदेश्वर मंदिर को पर्सी ब्राउन ने सगीत की भाँति संवेदना उत्पन्न करने वाली महान कलात्मक निर्माण कहा है।
इस समय की सबसे उत्तम मुर्ति नटराज शिव की मूर्ति है जो ताँबे की बनी हुई है। ये मुर्तियाँ प्रायः चतुर्भुज है।
चोल काल में साहित्य कला के क्षेत्र में विकास हुआ। सर्वाधिक विकास तमिल भाषा का हुआ जो है-
(1) तमिल रामायण :- कवि कंबल
(2) नलबेम्बाः– पुगलेन्दी, आ.........

-: पत्लव वंश (575-897 ई) :-

पल्लव का संस्कृत भाषा में अर्थ कांमल लता या पत्ता होता है, जबकि तमिल भाषा में इसका अर्थ डाकू होता है ।
पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक सिंहविष्णु को माना जाता है। जो वैष्णव धर्म को मानता था । इन्होनें अपनी राजधानी काँची (तामिलनाडु) को बनाया ।
सिंहविष्णु की राजसभा में संस्कृत के विद्वान भारवि रहता था जिन्होनें किराताजुनियम नामक ग्रंथ लिखा !
सिंहविष्णु का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम ( 600 - 630 ई.) हुआ। ये एक महान निर्माता, कवि एवं संगीतज्ञ शासक था । महेंद्रवर्मन प्रथम ने " मत्तविलास प्रहसन" नामक नाटक की रचना किया।
प्रसिद्ध संगीतज्ञ रूद्राचार्य से महेंद्रवर्मन प्रथम ने संगीत की दीक्षा ली।
महेंद्रवर्मन प्रथम जैन धर्म को मानता था लेकिन अरपार नाममक शैव संत के प्रभाव में आकर शैव धर्म को अपना लिया ।
महेंद्रवर्मन प्रथम और चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय के बीच पुल्लूर का युद्ध हुआ जिसमें पुलकेशिन द्वितीय विजयी हुए और महेंद्रवर्मन प्रथम मारा गया ।
महेंद्रवर्मन प्रथम का उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) हुआ। इन्हीं के शासनकाल में चीनी यात्री हवेनसांग काँची की यात्रा किया था।
काशाककुटी ताम्रपत्र और मद्यवंश के अनुसार पल्लव राजवंश के शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने श्रीलंका के मानवर्मा को सहायता देने के लिए एक शक्तिशाली नौसेना सिंहल भेजी ।
नरसिंहवर्मन प्रथम ने बादामी के चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय को पराजित कर वतापीकोण्ड की उपाधि धारण किया तथा "महामल्ल" की भी उपाधि धारण किया ।
नरसिंहवर्मन प्रथम के काल में ही महाबलिपुरम् (तामिलनाडु) में एकाश्म मंदिर का निर्माण हुआ जिसे रथ मंदिर कहा जाता है ।
पल्लव वंश के सबसे महान शासक के रूप में नरसिंहवर्मन द्वितीय का विवरण मिलता है । (700-728 ई.) इनके दरबार में संस्कृत विद्वान दंडी रहता था जिन्होनें दशकुमार चरत, काव्य दर्शन की रचना किया ।
नरसिंहवर्मन द्वितीय ने राजासिंह, आगमप्रिय, शंकर भक्त जैसी उपाधि धारण किया है
अरब आक्रमण के समय पल्लव वंश के शासक नरसिंहवर्मन द्वितीय था ।
नरसिंहवर्मन द्वितीय ने काँची में कैलाशनाथ मंदिर तथा महाबलिपुरम में शोर मंदिर का निर्माण करवाया।
वैलूरपाल्यम् अभिलेख में दंतिवर्मन को विष्णु का अवतार कहा गया है।
इस वंश के अंतिम शासक अपराजितवर्मन था जिसे चोल शासक आदित्य प्रथम ने पराजित कर पल्लव क्षेत्र को चोल साम्राज्य में शामिल कर लिया ।

-: राष्ट्रकूट (752-973) :- 

राष्ट्रकूट का शाब्दिक अर्थ देश का प्रधान होता है।
दक्षिण में राष्ट्रकूटों का शासन पाल और प्रतिहार वंशों के शासन का समकालीन था ।
इस वंश का संस्थापक दंतिदुर्ग था जिन्होनें वानापी के चालुक्य वंश के शासक की निवर्मन द्वितीय को पराजित कर कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के क्षेत्र में चालुक्य वंश के स्थान पर राष्ट्रकूट वंश का शासन की स्थापना की ।
इन्होनें अपनी राजधानी मात्यखेत / मालखंड (कर्नाटक) को बनाया ।
राष्ट्रकूट की भाषा कन्नड़ थी |
दंतिदुर्ग ने मालवा पर अभियान किया और (752 - 758) हिणगर्भ (महादान) यज्ञ किया। जिसमें प्रतिहारों ने द्वारपाल की भूमिका निभाया ।
इसके उत्तराधिकारी के रूप में कृष्ण प्रथम (758-773) का विवरण मिलता है। जिन्होनें एलोरा (महाराष्ट्र) के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया जो बेसर शैली में निर्मित शिव मंदिर है ।
ध्रुव ( 780-793):-
इसे धारावर्ष के नाम से भी जाना जाता है। ध्रुव राष्ट्रकूट वंश का शासक था जिसने कन्नौज पर अधिकार करने के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया ।
त्रिपक्षीय संघर्ष:-
कन्नौज (उत्तरप्रदेश) को लेकर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट के मध्य लगभग 100 वर्षो तक संघर्ष चला जिसकी शुरूआत प्रतिहार शासकों ने किया। इसमें सर्वाधिक पराजय का सामना पाल शासकों को करना पड़ा। सर्वाधिक बार विजयी राष्ट्रकूट को मिली लेकिन अंतिम रूप से विजयी प्रतिहार शासकों की हुई ।
अमोघवर्ष (814–878):-
इस वंश का सबसे महान शासक था जो जैनधर्म को मानता था । इन्होनें कन्नड़ भाषा में कविराजमार्ग नामक ग्रंथ की रचना किया ।
आदिफरान के रचनाकार जिनसेन, गणितजार संग्रह के रचियेता महावीराचार्य एवं अमोघवर्ष के लेखक सकतायना अमोघ्वर्ष के दरबार में रहते थें। अमोघवर्ष तुंगभद्रा नदी में जल समाधि लेकर प्राण का त्याग किया ।
इन्द्र तृतीय (914–922):-
अरब यात्री अलमसूदी इसी के काल में भारत आया ।
कृष्ण तृतीय (939-968):-
इस वंश का अंतिम महान शासक था ।
तककोलम् का युद्ध (949):-
यह युद्ध राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय एवं चोल शासक परातक प्रथम के बीच हुआ जिसमें कृष्ण तृतीय की जीत हुई ।
कृष्ण तृतीय ने रामेश्वरम् में विजय स्तंभ एवं देवालय का निर्माण करवाया। इनकी राजसभा में कन्नड़ भाषा का कवि पोन्न निवास करता था, जिसने शांतिपुरान की रचना किया ।
अंतिम शासकः-
इस वंश के अंतिम शासक के रूप में कर्क द्वितीय (974) का वर्णन मिलता है। जिसे कल्याणी के चालुक्य शासक तैलव द्वितीय ने पराजित कर चालुक्य वंश की स्थापना किया ।
12वीं सदी के राष्ट्रकूट वंश के 5 शिलालेख कर्नाटक राज्य में मिले हैं।
राष्ट्रकूट काल में कन्नड़ भाषा के तीन महान विद्वान पम्प, पोन्न, रन्ना का विवरण मिलता है इसे कन्नड़ भाषा का त्रिरत्न कहा जाता है ।
एलोरा गुफाओं का निर्माण राष्ट्रकूटों ने कराया था । एलोरा में गुफाओं व शैलकृत मंदिरों का संबंध हिन्दुओं, बौद्धों एवं जैनों से है।

-: चालुक्य वंश (550-757 ई) :-

चालुक्यों की कई शाखाओं वातापी के चालुक्य, वेगी के चालुक्य तथा कल्याणी का चालुक्य का विवरण मिलता है। इनमें से वातापी का चालुक्य चालुक्यों की प्राचीनतम शाखा है। जिसे पश्चिमी चालुक्य के नाम से भी जाना जाता है ।
चालुक्यों की मुल शाखा का उदय स्थल वातापी (आधुनिक बादामी) कर्नाटक में था । उसे स्थल बदामी होने के कारण इसे बादामी का चालुक्य कहा जाता है ।
वातापी का चालुक्य (550-757 ) :-
  • वातापी के चालुक्य वंश के संस्थापक जयसिंह थें।
  • चालुक्यों की राजधानी वातापी (आधुनिक बादामी)
  • कीर्तिवर्मन प्रथम ( 566 - 597) को वातापी का प्रथम निर्माता कहा जाता है।
  • इस वंश के सबसे महान शासक के रूप में पुलकेशिन द्वितीय ( 609-642 ) का विवरण मिलता है। इन्होने महाराजाधिराज, परमभागवत् जैसी उपाधि धारण की थी ।
  • पुलकेशिन द्वितीय के विषय में जानकारी हमें एहोल अभिलेख से मिलती है, जिसकी रचना उसके दरबारी कवि रवीकीर्त्ति ने किया था।
  • पुलकेशिन द्वितीय ने उत्तर भारत के शासक हर्षवर्धन को नदी के तट पर 618 ई में युद्ध में हराया ।
पल्लव वंशी शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने पुलकेशिन द्वितीय को 642 ई. में हराया और उसकी हत्या कर दिया साथ ही वातापी कोंड की उपाधि धारण किया ।
अंतिम शासक के रूप में कीर्तिवर्मन द्वितीय का विवरण मिलता है जिसकी हत्या दंतिदुर्ग ने कर दिया और वातापी के चालुक्य वंश के स्थान पर राष्ट्रकूट वंश की स्थापना किया।

-: कल्याणी के चालुक्य :-

कल्याणी के चालुक्य वंश के संस्थापक के रूप में तैलप द्वितीय का विवरण मिलता है। जिन्होनें राष्ट्रकूट के अंतिम शासक कर्क द्वितीय को पराजित कर चालुक्य वंश की स्थापना किया।
इनकी राजधानी मान्यखेत थी । कलांतर में सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ) जो 1043 ई. में शासक बना। अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानांतरिक की । सोमेश्वर प्रथम चोल शासकों से लगातार पराजित होने के कारण तुंगभद्रा नदी में डूबकर आत्म हत्या कर ली ।

विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126)

यह इस वश का सबसे महान शासक था। इनके राजकवि विल्हन थें जिन्होनें विक्रमांक देव चरित्र की रचना किया एवं विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा की रचना किया।
अंतिम शासक सोमेश्वर षष्ठ (1181-1189 ई.) था।

बेंगी के चालुक्य

इस वंश के संस्थापक विष्णुवर्धन इनकी राजधानी बेंगी (आंध्रप्रदेशवंश का सबसे महान शासक विजयादित्य तृतीय था। इसके सेनापति पंडरंग था।

-: पाल वंश (750–1150) :-

ग्रंथः
  • दायभाग ( हिन्दुविधि):- जीमूतवाहन
  • रामचरितः– संध्याकर नंदी
  • लौकेश्वर शतक:- वज्रदत्त
पाल शासक बौद्ध का अनुयायी था ।
संस्थापक:- गोपाल (75C-770)
गोपाल ने ओदितपुरी (बिहार) में बौद्ध मठ का निर्माण करवाया ।
उत्तराधिकारी इसका पुत्र धर्मपाल हुआ जो (770-810) ई. तक शासन किया। धर्मपाल कन्नौज में रहें संघर्ष में उलझा रहा। इन्होनें कन्नौज के शासक इंद्रायुध को पराजित कर अपने संरक्षण में चक्रायुद्ध को वहाँ शासक बनाया |
गुजराती कवि सोड्दल ने इन्हें उत्तरापथ स्वामी की उपाधि दिया।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा सोनपुर महाविहार (वर्तमान बंगलादेश) की स्थापना करवाया।
पाल वंश का अगला शासक देवपाल ( 810-850 ई.) हुआ। इन्होनें ही मुंगेर को अपनी राजधानी बनाया।
इनके शासनकाल में अरब यात्री सुलंगान भारत आया था। इन्होनें पाल वंश को रूहमा कहकर संबोधित किया।
देवपाल के पश्चात् विग्रहपाल, नारायणपाल, राज्यपाल, गोपाल द्वितीय, विग्रहपाल द्वितीय शासक बनें।
महिपाल प्रथम ( 978-1038 ई.) को पालवंश का द्वितीय संस्थापक माना जाता है क्योंकि इनके शासन काल में पालों की शक्ति पुर्नस्थापित हुई ।
महिपाल ने बौद्ध भिक्षु अनिशा के नेतृत्व में एक धर्मप्रचारक मंडल तिब्बत भेजा था।
पाल वंश के अंतिम शासक के रूप में मदनपाल का विवरण मिलता है।

-: सेन वंश (1070–1230 ई) :-

पाल वंश के पतन के पश्चात बंगाल में सेन राजवंश की स्थापना हुई । 
सेन वंश की स्थापना सामंतसेन ने "राद" नामक स्थान पर की।
इसकी राजधानी 'नवद्वीप' थी ।
सामंतसेन का उत्तराधिकारी विजयसेन (1095-1158 ई.) था जो सेन वंश का प्रथम महान शासक था। जिसने परमेश्वर, परम भट्टारक तथा महाराजाधिराज जैसी उपाधि धारण किया।
विजयसेन शैव धर्म का अनुयायी था । इन्होनें देवपाड़ा में प्रघुनेश्वर मंदिर (शिव) का निर्माण करवाया ।
देवपाड़ा प्रशस्ति जिसकी रचना कवि धोयी ने किया है। इससे हमें विजयसेन के विजयों के बारें में जानकारी मिलती है। इसमें यह उल्लेख है कि विज् यसेन ने नेपाल (नव्य) एवं मिथिला (वीर) राज्य को पराजित किया ।
विजयसेन की उपलब्धियों से प्रभावित होकर श्री हर्ष नामक कवि ने उसकी प्रशंसा में विजयप्रशस्ति काव्य की रचना किया । 
बल्लालसेन (1158-1178):-
यह विजयसेन का उत्तराधिकारी था । यह एक विद्वावन शासक था तथा विद्वानों को संरक्षण देता था।
दानसागर और अदभुतसागर नामक ग्रंथ की रचना बल्लाल सेन ने किया । अदभुत सागर का पूर्ण रूप लक्ष्मण सेन ने दिया ।
बल्लाल सेन को बंगाल में जाति प्रथा और कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय प्राप्त है । उसे बंगाल के ब्राह्मणों और कायस्यों में कुलीन में प्रथा का प्रवर्त्तक माना जाता है।
बल्लाल सेन शैव धर्म को मानता था इन्होनें भी परमभट्टारक, महाराधिराज जैसी उपाधियाँ धारण किया।
लक्ष्मण सेन (1178-1205 ई.):
वल्लाल सेन का उत्तराधिकारी लक्ष्मण सेन हुआ । इन्होनें बंगाल की प्रचीन राजधानी "गौड़” के निकट ही एक अन्य राजधानी लखनौती की स्थापना किया।
जीधर उसका दरबारी कवि था ।
लक्ष्मण सेन के दरबार में गीत गोविन्द के लेखक जयदेव, पवनदूत क े लेखक धोयी, ब्राह्मणसर्वस्व क ेलेखक हलायुध रहते थें ।
हलायुध लक्ष्मण सेन का प्रधान न्यायधीश तथा मुख्यमंत्री था ।
लक्ष्मण सेन गहड़वाल शासक जयचंद्र को पराजित किया था ।
लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्म का अनुयायी था उसने "परमभागवत" की उपाधि धारण किया।
लक्ष्मण सेन ने लक्ष्मण संवत का प्रचलन किया | (UPPCS)
लक्ष्मण सेन बंगाल का अंतिम हिन्दु शासक था।
⇒  सेन राजवंश प्रथम राजवंश था जिसने अपने लेख हिंदी में लिखवाया ।
इसकी राजभाषा संस्कृत थी ।
अंतिम शासक केशव सेन था ।

-: कश्मीर के राजवंश :-

कश्मीर के हिन्दू राज्य के विषय में जानकारी हमें कल्हन के राजतरंगिनी से मिलती है।
राजतरंगिनीः-
यह ऐसा संस्कृत साहित्य है जिसमें क्रमबद्ध तरीका से इतिहास लिखने का पहली बार प्रयास किया गया |
कल्हन की राजतरंगिनी में कुल आठ तथा लगभग 8000 श्लोक है।
⇒ पहले तीन तरंग से कश्मीर के प्राचीन इतिहास की जानकारी मिलती है ।
चौथे से छठे तरंग में कर्कोट एवं उप्पल वंश का उल्लेख है ।
⇒ सातवें एवं आठवें तरंग में लोधरवंश का लेख है ।
यह ग्रंथ ऐतिहासिक रूप से इसीलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल्हण ने पक्षपातरहित होकर राजा के गुण-दोषों का वर्णन किया है।
कश्मीर पर शासन करनेवाले वंश इस प्रकार है-
(1) कार्कोट वंश (2) उत्पल वंश (3) लोहार वंश
(1) कार्कोट वंश:-
627 ई. में दुर्लभवर्धन नामक व्यक्ति ने कश्मीर में कार्कोट वंश की स्थापना किया ।
हवेनसांग इनके शासनकाल में कश्मीर की या पर आया था ।
दुर्लभवर्धन के बाद उसका पुत्र दुर्लभक (632 - 682 ) शासक बना । दुलर्भक के बाद चंद्रपीड शासक बना जो एक न्यायप्रिय शासक था । तत्पश्चात् तारापीड शासक बना। कल्हना ने इसे क्रूर एवं निर्दभी बताया।
इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक ललितादित्य मुकतापीड (724 - 760 ई.) था । इन्होनें कश्मीर में मार्त्तण्ड मंदिर का निर्माण करवाया ।
मुकतापीड कन्नौज शासक यशोवर्मन को पराजित किया जो कि उसकी सबसे बड़ी जीत थी ।
कार्कोट वंश का अंतिम शासक जयापीड हुआ जिनका निधन 810 ई. में हो गया। इनके निधन के साथ ही इस वंश के शासन की समाप्ति हुई ।
(2) उत्पल वंशः -
कर्कोट वंश बाद कश्मीर में उत्पल वंश के शासन की स्थापना हुई ।
इस वंश के संस्थापक अवंतिवर्मन (855-883 ई.) था।
इन्होनें अवन्तिपुर नामक नए नगर की स्थापना किया।
इनके अभियंता सूरभ ने सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण करवाया।
980 ई. में उत्पल वंश की रानी दिघा एक महत्वाकांक्षिणी शासिका हुई ।
1003 ई. में रानी के मृत्यु के बाद संग्रामराज शासक बना जिसने कश्मीर में लोहार वंश की नींव रखी।
(3) लोहार वंशः - 
इस वंश के संस्थापक संग्रामराज था (1003-1028 ) |
इसके बाद अनंत राजा हुआ । उसकी पत्नी सूर्यमती प्रशासन को सुधारने में उसकी सहायता करती थी ।
लोहार वंश के का शासक हर्ष विद्वान, कवि तथा कई भाषाओं का ज्ञाता था । कल्हण हर्ष का आश्रित कवि था ।
हर्ष को कश्मीर का नीरो कहा जाता था । इसके शासनकाल में कश्मीर में भयानक अकाल पड़ा था ।
लोहार वंश का अंतिम शासक जयसिंह ( 1128-1155 ई.) हुआ । इन्होनें अपने शासनकाल में यवनों को पराजित किया ।
कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना जयसिंह के काल में किया और इसी के साथ राजतरंगिणी का विवरण भी समाप्त हो जाता है।
1329 ई. में कश्मीर तुर्कों के अधीन हो गया।
कश्मीर पर शासन करने वाले तुर्क शासकों में सर्वाधिक लोकप्रिय शासक "जैन -उल-अविदीन" हुआ जिसे "कश्मीर का अकबर" कहा जाता है । 

-: राजपूत वंश :-

उत्तर भारत में छठी शताब्दी के पश्चात् अधिकांश राजवंश राजपूत थें, इसीलिए 7वीं से बारहवीं शताब्दी के उत्तर भारतीय इतिहास को "राजपूत काल" माना जाता है ।
महत्वपूर्ण राजपूत राज्य वंश
अजमेर चौहान
दिल्ली तोमर
जेजाकभुकती (बुंदेलखंड)  चंदेल
त्रिपुरी कलचुरि
कन्नौज गहड़वाल
गुजरात चालुक्य ( सोलंकी)
मालवा परमार
राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित है। कुछ विद्वान इसे भारत में रहने वाली एक जाती मानते हैं तो कुछ अन्य की संतान ।
कुछ विद्वान राजपूतों को आपू पर्वत पर वशिष्ठ के अग्निकुंड से उत्पन्न हुआ मानते हैं। यह सिद्धांत चंदरबरदाई की "पृथ्वी राजरासो" पर आधारित है ।

-: गुर्जर प्रतिहार वंश :-

गुर्जर प्रतिहार वंश की उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। प्रतिहारों के अभिलेखों में इन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है ।
पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख में सर्वप्रथम गुर्जर जाति का उल्लेख मिलता है।
इस वंश के संस्थापक के रूप में नागभट्ट प्रथम (730 - 736 ) का विवरण मिलता है। ग्वालियर प्रशस्ति में उसे मलेच्छो ( अरबों ) नाशक बताया गया है।

-: वत्सराज (775–800 ई) :-

वत्सराज एक शक्तिशाली शासक था जिसे प्रतिहार सम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है । इन्होनें त्रिपक्षीय संघर्ष में सर्वप्रथम भाग लिया तथा पाल वंश के शासक धर्मपाल को पराजित किया परंतु राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हो गया । 
वत्सराज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (800-233 ई.) गद्दी पर बैठा । उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया।

-: मिहिरभोज प्रथम ( 836 - 885) :-

मिहिरभोज इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था।
इन्होनें अपनी राजधानी कन्नौज को बनाई थी ।
मिहिरभोज प्रथम विष्णुभक्त था इसने विष्णु के सम्मान में " आदिवराह" एवं प्रभास जैसी उपाधि धारण की।
मिहिरभोज की उपलब्धियों की चर्चा उसके ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख में की गई है।
निहिभोज के पश्चात् उसका पुत्र महेंद्रपाल प्रथम (885 - 910 ई.) शासक बना। इन्होनें राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय को पराजित किया ।
महेंद्रपाल के दरबार में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करता था, जो उसका राजगुरू था।
राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्यमीमांसा, बालरामायण आदि ग्रंथों की रचना किया ।
महिपाल प्रथम (912–944):-
इसके शासन काल में बगदाद यात्री अलमसूदी राजा को बौरा कहकर पुकारता था जो संभवतः आदिवराह का अशुद्ध उच्चारण है।
अतिम शासकः-
यशपाल/गहड़वाल ने कन्नौज पर अधिकार कर गुर्जर प्रतिहार वंश का अंत कर दिया ।

-: कन्नौज का गहड़वाल वंश (राठौर वंश) :-

गहड़वालों का मूल निवास स्थान विध्यांचल का पर्वतीय वन प्रांत माना जाता है ।
चंद्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना की। इन्होनें “महाराधिराज" की उपाधि धारण की । इन्होनें अपनी राजधानी वाराणसी को बनाया ।

गोविन्द चंद्र (1114-1155 ई)

गोविन्द चंद्र गहड़वाल वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था ।
वह स्वंभ विद्वान शासक था। उसे उसके लेखों में "विविध विद्या विचार वाचस्पति" कहा गया है ।
लक्ष्मीधर गोविन्दचंद्र का शांति एवं युद्ध मंत्री था। वह शास्त्रों का प्रकाण्ड पंडित था। इन्होनें कृत्यकल्परू नामक ग्रंथ की रचना किया ।
गोविन्दचंद्र की एक रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में धर्मचक्र जिन विहार बनवाया ।

जयचंद (1170–1194)

इस वंश के अंतिम शासक के रूप में जयचंद का विवरण मिलता है ।
यचंद ने संस्कृत के प्रख्यात कवि श्री हर्ष को संरक्षण प्रदान किया जिसने "नौषाद चरित्र” एवं “खंडन–खंड" की रचना की।
पृथ्वीराज तृतीय ने स्वंवर से जयचंद की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लिया था।
1194 ई. में चंदावर के युद्ध में जयचंद मुहम्मद गौरी से पराजित हुआ तथा मारा गया।
कलांतर में इल्तुतमिश ने कन्नौज पर अधिकार कर गहड़वाल वंश के शासन को समाप्त कर दिया ।

-: शाकभरी का चौहान वंश :-

7वीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकंभरी ( साभंर एवं अजमेर) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है।
इस वंश के विषय में जानकारी हमें विग्रह राज द्वितीय के हर्ष प्रस्तर अभिलेख से मिलती है ।
चौहान, प्रतिहार शासकों के सामंत थें । 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में वाकपतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र कर लिया।
प्रमुख शासकः
अजयराज:-
अजयराज 12वीं शताब्दी में चौहान वंश का शासक बना। इन्होनें अजमेर नगर की स्थापना की तथा इसे अपनी राजधानी बनाया था।
अजयराज का उत्तराधिकारी अर्णोराज एक महत्वपूर्ण शासक था। उसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया था ।
विग्रहराज प्रथम अथवा वीसलदेव (1153-1163):
√ वीसलदेव की सबसे बड़ी सफलता तोमरों की स्वाधीनता समाप्त करके उन्हें अपना बनाना था।
√ वीसलदेव ने "हरिकेल” नामक एक संस्कृत नाटक की रचना की। इस नाटक की कुछ अंश "अढ़ाई दिन का झोपड़ा” नामक मस्जिद की दीवारों पर उत्कीर्ण किये गयें हैं।
√ वीसलदेव ने अजमेर में सरस्वती का प्रसिद्ध बनावाया ।
√ इनके दरबार में सोमदेव रहता था। जिन्होनें कथा सरितसागर एवं ललितविग्रह राज नामक ग्रंथ की रचना की।
पृथ्वीराज चौहान (1178-1192
पृथ्वीराज चौहान अथवा पृथ्वीराज तृतीय को राय पिथौरा भी कहा जाता है। ये चौहान वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था। इन्होनें अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया।
तराईन का प्रथम युद्ध (1191 ई ):-
मुहम्मद गौरी एवं पृथ्वीराज चौहान के बीच यह युद्ध हुआ। जिसमें पृथ्वीराज चौहान की जीत हुई ।
तराईन का द्वितीय युद्ध (1192 ई):-
यह युद्ध भी नुहम्मद गौरी एवं पृथ्वीराज चौहान के बीच हुआ । इसमें पृथ्वीराज चौहान की हार हुई और बंदी बना लिया गया । तथा कुछ समय बाद उनका निधन हो गया।
पृथ्वीराज चौहान के राजकवि चंदबरदाई ने "पृथ्वीराजरासो" नामक ग्रंथ की रचना किया ।
जयानक ने "पृथ्वीराज विजय" नामक संस्कृत काव्य की रचना किया।
कलांतर में गौरी के गुलाम कुतुब-उद-दीन ऐबक ने दिल्ली तथा अजमेर पर आक्रमण कर के चौहानों की सत्ता का अंत कर दिया।

-: जेजाकभुक्ति का चंदेल वंश :-

जेजाकभुक्ति (बुंदेलखण्ड) (उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश) में 9वीं शताब्दी में चंदेल वंश की स्थापना नन्नुक ने किया । उन्होनें अपनी राजधानी खजुराहों (मध्यप्रदेश) को बनाया ।
नन्नुक के पौत्र जयशक्ति अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति कहलाया ।
प्रमुख शासकः
यशोवर्मन (925-950 ई.):-
यह एक सम्राज्यवादी शासक था। इन्होनें मालवा, चेदी और महाकोशला को जीतकर अपने सम्राज्य का विस्तार किया। 
यशोवर्मन ने खजुराहों का प्रसिद्ध विष्णु मंदिर (चतुर्भुज मंदिर) का निर्माण करवाया । 
धंगदेव ( 950 -10007 ई.)
धंग यशोवर्मन का पुत्र था। इन्हें प्रतिहार से पूर्ण स्वतंत्रता का वास्तविक श्रेय दिया जाता है ।
इन्होनें अपनी राजधानी कालिंजर को बनाया ।
इन्होनें ग्वालियर को जीतकर अपने सम्राज्य में मिलाया जो कि उसकी प्रमुख विजय थी ।
इन्होनें भटिंडा के शादी शासक जयपाल को सुबुकतगीन के विरूद्ध सैनिक सहायता प्रदान किया ।
धंग ने खजुराहों में जिननाथ, विखनाथ, वैद्यनाथ आदि भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया । 
धंग के शासनकाल में निर्मित खजुराहों का विख - विख्यात मंदिर स्थापत्य कला कला का एक विशिष्ट उदाहरण है।
धंग के बाद उसका पुत्र गंगदेव राजा हुआ ।
विद्याधर (1019-1029 ई.):-
विद्यसागर गंगदेव का पुत्र था जो चंदेल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था !
विद्यासागर ने 1019 ई. में गुर्जर प्रतिहार शासक राज्यपाल का वध कर दिया, क्यों वह महमूद गजनवी से युद्ध करने के बजाय भाग खड़ा हुआ था।
विद्यासागर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गोगेयदेव को पराजित कर उसे अपने अधिन कर लिया ।
चंदेल वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक परमादिदेव अथवा परमल था ।
1182 ई. में पृथ्वीराज ने उसे पराजित कर मोहबा पर तथा 1203 ई. में कुतुब-उद-दीन ऐबक ने कलिंजर पर अधिकार कर लिया। अंततः 1205 ई. में चंदेल राज्य दिल्ली में मिल गया ।

-: मालवा का परमार वंश :-

परमार वंश की स्थापना 9वीं शताब्दी के प्रारंभ में नर्मदा नदी के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ति) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज ने किया । इस वंश के शासक प्रारंभ में प्रतिहारों के सामंत थें ।
परमार वंश के प्रथम शक्तिशाली शासक के रूप में सीयक अथवा श्री हर्स का विवरण मिलता है ।
परमारों की आरंभिक राजधानी उज्जैन थी जो बाढ़ में धार हो गई।
प्रमुख शासकः
वाकपतिमुंज (973-995 ) :
  • मालवा में परमारों की शक्ति का उदय वाकपतिमुंज के समय में प्रारंभ हुआ ।
  • इन्होनें धार में मुज सागर झील का निर्माण कराया।
  • मुंज ने श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ, अमोघवर्ष आदि उपाधि धारण किया।
  • “कोपेम" दानपत्र से पता चलता है कि इन्होनें हूणों को पराजित किया ।
  • इनके दरबार में पदमगुप्त, धनंजयध, धनिक तथा छलायुद्ध जैसे विघ्दान रहते थें।
राजा भोज (1000-1055):
  • इस वंश के एक महान शासक के रूप में राजाभोज का विवण मिलता है।
  • उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार इन्होनें तुर्कों को पराजित तथा धार को अपनी राजधानी बनाया ।
  • राजाभोज ने बवसाहसांकः अर्थात नवविक्रादित्य की उपाधि धारण किया । भोज अपनी विद्वना के कारण कविराज की उपाधि से विख्यात थें। इन्होनें चिकित्साशास्त्र पर आयुर्वेदसर्वस्व तथा स्थापत्य शास्त्र पर समरांगण सूत्तधार ग्रंथ की रचना किया जो उल्लेखनीय है ।
  • भोज ने अपने नाम पर भोजपूर नामक नगर बसाया तथा भोजसर नामक एक तालाब भी बनवाया ।

-: गुजरात (अन्हिलवाड़) का चालुक्य अथवा सोलंकी :-

चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था, इन्होनें गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया ।
इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक एवं संरक्षक थें ।
प्रमुख शासकः
भीम प्रथम (1022–1064):
भीम प्रथम इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था इनके शासनकाल में महमूद गजनवी ने 1025 ई. में गुजरात पर आक्रमण कर सोमनाथ मंदिर को लूटा ।
भीमप्रथम ने सोमनाथ मंदिर को पत्थर से निर्मित करवाया (जो पहले लकड़ी और फिर ईंटो द्वारा निर्मित था।)
भीम प्रथम के सेना नायक विगलशाह ने माउंट आबू पर प्रसिद्ध जैन मंदिर ( दलिवाड़ा मंदिर) का निर्माण करवाया ।
नोट:- सोमनाथ मंदर से संबंधित एक अन्य मान्यता के अनुसार इस मंदिर का पननिर्माण कुमार पाल ने करवाया।
जयसिंह सिद्धराज (1094 -1143):
  • जयसिंह ने सिद्धराज की उपाधि धारण किया ।
  • प्रसिद्ध जैन आयार्य हेमचंद्र इनके दरबार में रहते थें ।
  • सिद्धराज शैव धर्म को मानता था |
  • इन्होनें सिद्धपुर में रूद्रमहाकाल मंदिर बनवाया ।
  • इन्होनें आबू पर्वत पर एक मंडप का निर्माण करवाया जहाँ उसने हाथियों पर आरूद अपने सात पूर्वजों की मूर्तियों को प्रतिष्ठापित करवाया ।
कुमारपाल (1143–1172):
  • कुमारपाल को जैन आचार्य हेमचंद्र ने जैन धर्म में दीक्षित किया। इन्होनें “परम अर्हत" की उपाधि धारण किया तथा संपुर्ण साम्राज्य में अहिंसा के सिद्धांत को लागू किया ।
  • कुमारपाल ने सोमनाथ के मंदिर को अंतिम रूप से पुर्ननिर्माण करवाया तथा जैन आचार्य हेमचंद्र के साथ सोमनाथ मंदिर में शिव की अर्चना किया।
अजयपाल (1172 - 1176):-
अजयपाल कुमारपाल का उत्तराधिकारी था । अनके शासनकाल में शैव एवं जैन धर्मावलंबियों के मध्य गृहयुद्ध हुआ ।
मूलराज द्वितीय (1176–1178) ने 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को हराया।
चालुक्य वंश का अंतिम शासक भीम द्वितीय था ।
भीम द्वितीय ने मुहम्मद गौरी के गुजरात आक्रमण ( 1178) को विफल कर दिया ।
1198 ई. में कुतुब-उद-दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण कर आदिलवाड़ पर अधिकार कर लिया ।

-: गुप्तोत्तर कालीन अन्य राजवंश :-

-: गौड़ वंश :-

गौड़ बंगाल का प्रमुख राजवंश था
शशांक गौड़ वंश का प्रमुख राजवंश था ।
शशांक हर्षवर्धन का समकालीन था ।
शशांक ने हर्षवर्धन के भाई राज्यवर्धन का वध किया |
शशांक के निधन के पश्चात् गौड़ का निधन हो गया ( 602 - 620 ई.)
शशांक शैव धर्म का अनुयायी था । इन्होनें बोधिवृक्ष को कटवाकर उसकी जड़ों में आग लगा दिया ।

-: वल्लभी के मैत्रक वंश :-

मैत्रक वंश की स्थापना भट्टारक ने किया । ये गुप्तों के अधिन सामंत था। इन्होनें गुप्त वंश के पतन का लाभ उठाकर स्वयं को गुजरात और सौराष्ट्र का शासक घोषित कर दिया और वल्लभी को अपनी राजधानी बनाई ।
वल्लभी बौद्ध धर्म एवं शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था ।

-: कलचुरि (चेदि) वंश :-

इस वंश की स्थापना कोकल्ल प्रथम ने किया ।
इन्होनें अपनी राजधानी त्रिपुरी को बनाया ।
कलचुरि संभवतः चंद्रवंशीय क्षत्रीय था ।
गांगेयदेव (1019–1040) इस वंश का सबसे महान शासक था। जिसने विक्रमाकदत्य की उपाधि धारण की थी ।
1181 आते-आते इस वंश का पतन हो गया। इस वंश के शासक "त्रंकूटक संवत्" का प्रयोग करता था जो 248–49 में प्रचलित हुआ था ।

-: पूर्वी गंग वंश :-

इस वंश के सबसे प्रतापी शासक राजा अनंत वर्मा चोडगंग था। (976-1048)
इन्होनें पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
पूर्वी गंग वंश द्वारा निर्मित कोर्णाक का सूर्य मंदिर भी विश्व विख्यात है ।
इस वंश की राजधानी कलिंगनगर था जो वर्तमान में आंध्रप्रदेश में है ।

-: काकतीय वंश :-

इस वंश के शासक चालुक्य के सामंत थें।
इस वंश के संस्थापक बीटा प्रथम था । इन्होनें नलगोंडा (हैदराबाद) में एक छोटे से राज्य का गठन किया जिसकी राजधानी अंमकोण्ड थी ।
इस वंश के सबसे योग्य एवं महान शासक के रूप में रूद्र प्रथम का विवरण मिलता है । जिन्होनें अपनी राजधानी वारंगल को बनाया ।
⇒ रूद्र प्रथम के बाद महादेव व प्रथम गणपति शासक बना।
गणपति ने विदेशी व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया । इनके काल में मोटुपल्ली (आंध्रप्रदेश) सबसे प्रमुख बंदरगाह था।
इस वंश का अंतिम शासक प्रताप रूद्र - ( 1295–1323) था।

-: होयसल वंश :-

होयसल वंश देवगिरी के यादव वंश के समान ही द्वारसमुद्र के यादव कुल का था । इसलिए इस वंश के राजाओं ने अपने को यादवकुलतिलकाय कहा है।
द्वारसमुद्र के होयसल वंश की स्थापना विष्णुवर्धन ने किया है।
इस वंश की राजधानी द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेविड ) था ।
वेलूर में चेन्ना केशव मंदिर का निर्माण विष्णुवर्धन ने 1117 में करवाया ।
इस वंश का अंतिम शासक वीरबल्लाल तृतीय था जिसे मलिक काफूर ने हराया ।

-: यादव वश :-

देवगिरी के यादव वंश की स्थापना भिल्लभ पंचम ने किया। इसकी राजधानी देवगिरी थी।
इस वंश का सबसे प्रतापी शासक सिंहण था ।
इस वंश का अंतिम स्वतंत्र शासक रामचंद्र था जिसने अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफुर के सामने आत्म समर्पण किया ।
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